क्यों नहीं केयरफ्री हो सकती मैं-अनुष्का शर्मा


प्रस्तुति-अजय ब्रह्मात्मज
मैं आर्मी बैकग्राउंड से आई हूं। अलग-अलग शहरों में रही। परिवार और आर्मी के माहौल में कभी लड़के और लड़की का भेद नहीं फील किया। मेरे पेरेंट्स ने कभी मुझे अपने भाई से अलग तरजीह नहीं दी। मैं लड़को और लड़कियों के साथ एक ही जोश से खेलती थी। मेरे दिमाग में कभी यह बात नहीं डाली गई कि यह लड़का है,यह लड़की है। गलती वहीं से आरंभ होती है,जब हम डिफाइन करने लगते हैं। उनकी तुलना करने लगते हैं। लड़कियां लड़कियों जैसी ही रहें और आगे बढ़ें। लड़कियों पर यह नहीं थोपा जाना चाहिए कि उन्हें कैसा होना चाहिए? लड़किया होने की वजह से उन पर पाबंदियां न लगें। अगर कोई आदर्श और स्टैंडर्ड है तो वह दोनों के लिए होना चाहिए। अब जैसे कि हीरोइन सेंट्रिक फिल्म ¸ ¸ ¸यह क्या है? क्या हीरो सेंट्रिक फिल्में होती हैं?
    बचपन से मैंने जिंदगी जी है,उसकी वजह से लड़के और लड़की के प्रति दोहरे रवैए से मुझे दिक्कत होती है। मैं नहीं झेल पाती। अपने देश में ऐसे ही अनेक समस्याएं हैं। हमारी एक समस्या महिलाओं की सुरक्षा है। लिंग भेद की वजह से असुरक्षा बढ़ती है। औरतें असुरक्षित रहेंगी तो विकास का नारा बेमानी होगा। सही विकास नहीं हो सकेगा।  सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से हम पिछड़े रहेंगे। परिवार में भी भाई-बहन का फर्क रखने से दोनों की प्रगति प्रभावित होती है। परिवार में हम दोनों भाई-बहन दो इंडिविुजअल थे। हम दोनों दो बच्चे थे। लड़के और लड़की के भेद की कहानियां मुझे अटपटी और अजीब लगती हैं। औरतों पर अत्याचार की बातों से मैं सिहर जाती हूं।
    आज मैं सुरक्षित हूं। मेरे आसपास ऐसे लोग हैं,जो मेरी सुरक्षा को लकर सावधान रहते हैं। मुझे ऑटो नहीं पकड़ना है। टैक्सी में अकेले नहीं जाना है। सोच कर ही कोपने लगती हूं। मैंने अपनी किशोरावस्था में इसे महसूस किया है। बस में कोई पास आकर खड़ा हो जाता था। छूने की कोशिश करता था। मैंने ऐसे लोगों को मारा है। वे इशारे करते थे। घिनौनी हरकतें करते थे। मैंने उन्हें वाटर बोटल से मारा है। ऐसे बुरे अनुभव रहे हैं मेरे। तब कितना गंदा लगता था। अचानक लगता था कि यार ये क्या है? ऐसा कोई क्यों कर रहा है? मैं क्यों नहीं केयरफ्री हो सकती? अभी कई बार सेट पर किसी को घूरते देखती हूं तो चौंक जाती हूं। समझने की कोशिश करती हूं कि वह मुझे अनुष्का की तरह देख रहा है या मैं कोई ऑब्जेक्ट हूं उसकी नजर में। मैं असहज हो जाती हूं। मन में द्वंद्व चलता है कि फैन है या मैन है? मैन मतलब पुरुष।
    समस्याएं बहुत ज्यादा हैं। कभी-कभी बहुत गुस्सा आता है। अभी रोतक में जो हुआ है। कौन हैं ये लोग? ये इंसान कहलाने लायक नहीं हैं। ये हैवान और दानव हैं। कोई ऐस कैसे कर सकता है? सोचते हुए मुझे राना आ जाता हैं कि मैं पढ़ और सुन रही हूं,लेकिन कुछ कर नहीं पा रही हूं। हमें अपना माहौल और माइंडसेट बदलना होगा। यह तभी बदलेगा ्र,जब आप औरत को समान मानोगे। उसके वजूद को पहचानोगे। कोई भी अंतर क्यों रखना? महिलाओं को भी चाहिए कि वे अपनी पहचान पर मेहनत करें। अपनी पहचान हासिल कर वे इस अंतर को पाट सकती हैं।
    फिल्म इंडस्ट्री में औरतों की पहचान बढ़ी है। उन्हें प्रतिष्ठा मिल रही है। सबसे बड़ी बात है कि उन्हें समान अवसर मिल रहे हैं। लड़कियां निर्देशन में आई हैं। मुझ जैसी कुछ निर्माता भी बनी हैं। अब पहले जैसा नहीं है कि फलां काम तो मर्दों का है। आप अभिनेत्री है तो आप का यही दायरा है। यही दायरा टूटे। पूरे समाज में बराबरी का माहौल और मौका हो तो सभी अपनी टैलेंट का सही इस्तेमाल कर सकेंगी।

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