फिल्म समीक्षा : हंटर
-अजय ब्रह्मात्मज
निस्संदेह 'हंटर' एडल्ट फिल्म है। फिल्म के प्रोमो से ऐसा लग सकता है कि यह एडल्ट सेक्स कामेडी होगी। फिल्म में सेक्स से ज्यादा सेक्स की बातें हैं। सेक्स संबंधी उन धारणाओं,मूल्यों और समस्याओं की चर्चा है,जिनके बारे में हम दोस्तों के बीच तो छुप कर बातें करते हें,लेकिन कभी खुलेआम उन पर बहस नहीं होती। भारतीय समाज में सामाजिक और नैतिक कारणों से सेक्स एक वर्जित विषय है। फिल्मों में दर्शकों उलझाने और लुभाने के लिए उसका अनुचित इस्तेमाल होता रहा है। हर्षवर्धन कुलकर्णी ने इस सेक्स को कहानी का विषय बनाने का सराहनीय जोखिम उठाया है। संवाद और दृश्यों में फिल्म थोड़ी सी फिसलती तो अश्लील और फूहड़ हो सकती थी। हर्षवर्धन ने संयत तरीके से इसे पेश किया है। पहली फिल्म के लिहाज से उनके चुनाव,लेखन और निर्देशन की तारीफ होनी चाहिए।
कल सई परांजपे का जन्मदिन था। 'चश्मेबद्दूर' और 'कथा' जैसी फिल्मों की निर्देशक सई परांजपे की शैली,ह्यूमर और परिप्रेक्ष्य से प्रभावित हैं हर्षवर्धन और यह कतई उनकी कमजोरी नहीं है। उन्होंने प्रयाण वहां से किया है और समय के हिसाब से 'हंटर' में ज्यादा खुले हैं। मैं इसे बोल्ड फिल्म नहीं कहूंगा। 'बोल्ड' शब्द हिंदी फिल्मों में घिस का अपना मानी खो चुका है। यह बदलते ट्रेंड और माइंड की फिल्म है। महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि की इस फिल्म में मंदार पोंकसे की कहानी है। किशोरावस्था से ही मंदार सेक्स के प्रति जिज्ञासु है। वह पोर्नो फिल्म देखते हुए पकड़ा जाता है। लड़कियों से दोस्ती करने के लिए उत्साहित रहता है। बड़े होने पर उसका यह आकर्षण और बढ़ता है और उसकी आदत बन जाता है। वह स्वाभाविक रूप से विपरीत सेक्स के प्रति सम्मोहित रहता है। वह सूंघ लेता है। महाराष्ट्र में ऐसे लड़कों को वासु कहते हैं। मंदार की वासुगिरी चलती रहती है,जबकि उसके सारे दोस्त शादी कर घर बसा रहे हैं। मंदार पर भी दबाव है कि वह शादी कर ले। वह अपनी मजबूरी और आदत के बहाने शादी टालता रहता है। आखिरकार उसकी मुलाकात तृप्ति से होती है। तृप्ति के प्रति उसके मन में प्यार जागता है तो वह खुद को दोराहे पर पाता है। उसकी इस दुविधा और आत्मसाक्षात्कार की वजह से इस फिल्म का आशय बड़ा हो जाता है। फिल्म कुछ कहने लगती है।
हर्षवर्धन कुलकर्णी ने 2015 से कहानी शुरू की है। वे पहले मंदार के बचपन और किशोरावस्था में जाते हैं और फिर बार-बार 2015 में लौटते हैं। समय के इस आवागमन में थोड़ा कंफ्यूजन होता है। ध्यान बंटे तो कहानी और किरदारों का तारतम्य मिस भी हो सकता है। बहरहाल,हर्षवर्धन की पटकथा का ढीलापन फिल्म को जरा कमजोर करता है। यों संवाद चुटीले और थीम के अनुरूप हैं। फिल्म कई जटिल प्रसंगों को सहज तरीके से चित्रित कर देती है। निर्देशक को अपने दक्ष कलाकारों का भरपूर सहयोग मिला है। पर्दे पर केंद्रीय चरित्र के तौर पर मंदार और तृप्ति तो हैं ही बेहतर। गुलशन देवैया और राधिका आप्टे के बेहतरीन और संयत प्रदर्शन ने 'हंटर' को कथित सेक्स कामेडी होने से बचा लिया है। उन दोनों के बीच के अनेक दृश्य बेहतर तालमेल और समझदारी के उदाहरण बन सकते हैं। उन्होंने वर्जित विषय को सही संवेदना से दूश्यों में समाहित किया है। उनके साथ छोटी भूमिकाओं में आए कलाकारों ने भी पूरा सहयोग दिया है। सई तम्हाणकर,वीरा सक्सेना,सागर देशमुख और अन्य कलाकारों का अभिनय उल्लेखनीय है।
'हंटर' 21 वीं सदी के दूसरे दशक के भारत को सही तरीके से पेश करती है। हिंदी फिल्मों में सेक्स के नाम पर फूहड़ता परोसी जाती रही है। चुंबन और अंग प्रदर्शन की भोंडी तरकीबें निर्देशक इस्तेमाल करते रहे हैं। 'हंटर' के प्रचार में भी इन तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया "या। फिल्म महज सेक्स कामेडी नहीं है। यह फिल्म सेक्स के साथ मानसिक दुविधाओं और भावनाओं को भी तरजीह देती है। अच्छी बात है कि निर्देशक ने फिल्म को फिसलने नहीं दिया है। वे अपने ध्येय में सफल रहे हैं।
अवधि: 140 मिनट
*** तीन स्टार
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