जैगम ईमाम की कोशिश -दोज़ख़
-अजय ब्रह्मात्मज
मैं बनारस का हूं। वहीं पैदाइश हुई और दसवीं तक की पढ़ाई भी। उसके बाद लखनऊ चला गया। फिर भोपाल और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गया। मास कॉम की पढ़ाई की थी। दिल्ली आकर मैंने अमर उजाला में रिपोर्टर के तौर पर काम शुरू किया। प्रिंट से इलक्ट्रानिक मीडिया में जाना हुआ। न्यूज 24 और आज तक में भी काम किया। इसके बा द मैंने महसूस किया कि सिनेमा मेरे अंदर जोर मार रहा है। तब तक मैंने दोजख नाम से उपन्यास लिख लिया था। सिनेमा की तलाश में उपन्यास लेकर मुंबई आ गया। शुरू में टीवी शो लिखने का काम मिला। एक साल के लेखन और कमाई के बाद सिनेमा ने फिर से अंगड़ाई ली। मैंने अपने ही उपन्यास को स्क्रिप्ट का रूप दिया और टीम जोडऩी शुरू कर दी। पहले लोगों ने यकीन नहीं किया। मजाक किया। जब मैंने टीम के सदस्यों को एडपांस पैसे देने आरंभ किए तो उन्हें यकीन हुआ।
घरवालों को बताए बगैर मैंने अपने फंड तोडऩे शुरू कर दिए। नगदी जमा किया। पैसे कम थे। हिम्मत ज्यादा थी। बनारस के दोस्तों की मदद से बनारस में ही शूटिंग की प्लानिंग की। वहीं की कहानी है। सब कुछ अकेले करता रहा। 2012 के मार्च-अप्रैल महीने में हम ने शूटिंग की। खराब हालत और मुश्किलों के बीच काम होता रहा। ग्यारहवें दिन पैसे खत्म हो गए। मैंने टीम छोटी की। लगने लगा कि मैंने नाकामयाब किस्म का सपना देख लिया है। बड़े भाई मदद में आए। उन्होंने हौसला और पैसे दिए। फिल्म पूरी कर मैं मुंबई आ गया। आने के बाद फिर से टीवी लेखन आरंभ किया। पैसे जमा हुए तो पोस्ट प्रोडक्शन का काम शुरू किया। पोस्ट प्रोडक्शन में देखने पर अपनी सोच और फिल्म पर यकीन बढ़ता गया। 2013 में फिल्म पूरी होने लगी। तब मैंने बताना शुरू किया। पहला कट आया तो 92 मिनट की फिल्म बनी।
मैंने फिल्म की डीवीडी बनवाई और विदेशी फिल्म फेस्टिवल में भेजना इारंभ किया। सात जगह से रिजेक्शन आ गया। मन टूटने लगा। मुझे भ्रम था कि मेरी फिल्म विदेशों में पसंद की जाएगी। रिजेक्शन के मेल सेे एहसास हुआ कि यह तो भारत की फिल्म है। सबसे पहले कोलकाता के फिल्म फस्टिवल ने फिल्म चुनी और प्रीमियर किया। उसके बाद भारत के अनेक फस्टिवल में इसे मौका मिला। दर्शकों की सराहना मिली। मेरे अच्छे दिन आ गए थे। मुझे अब रिलीज की चिंता सताने लगी थी। कई जगह घूमने के बाद आखिरकार पीवीआर ने उसे चुन लिया और रिलीज का अवसर दिया। आज भी यह सीमित स्तर पर रिलीज हो रही है।
फिल्म की कहानी रामनगर की है। आमने-सामने मंदिर-मस्जिद हैं। पंडित् और मौलनी में थोड़ी खींचातानी चलती है। मौलवी अजान देता है तो पंडित घंटी बजाने लगता है। मौलवी के बेटे से पंडित हिला-मिला हुआ है। मौलवी के बेटे को रामलीला का हनुमान बहुत पसंद है। वह हनुमान बनना चाहता है। एक शाम रामलीला का हनुमान घायल हो जाता है। उस लडक़े को पंडित हनुमान बना देता है। इधर उसकी पूंछ में रावण आग लगाता है,उधर उसके अब्बा अजान देते हैं। लडक़ा घर की ओर भागता है। मौलवी उसे कहते हैं कि तू दोजख जाएगा। एक बार वह लडक़ा किसी की मैयत में जाता है। वहां सब कुछ देखने के बाद वह अपने अब्बा से कहता है कि अगर मैं मरु तो मुझे दफ्न मत करना। वहां बहुत अंधेरा रहता है। इस बीच लडक़े की अम्मी का इंतकाल हो जाता है और लडक़ा घर से गायब हो जाता है। मौलवी साहब उसे खोजने निकलते हैं तो उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने बच्चे को सही तालीम और परवरिश नहीं दी। पंडित की भूमिका में नाजिम खान है। मौलवी की भूमिका ललित तिवारी ने निभाई है। मैंने बनारस के लोगों से भी काम करवाया है। मेरी फिल्म दोजख बनारस को अलग रंग और माहौल में में पेश करती है।
मेरी फिल्म सेंसर में भी फंसी थी। सेंसर बोर्ड के सदस्यों के खयाल अलग-अलग थे। फिल्म रिवाइजिंग कमिटी में गई। मेरी फिल्म पर कुछ सदस्यों को आपत्तियां थीं। आखिरकार लीला सैंपसन ने इसे मंजूरी दी।
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