दरअसल : मुद्दई सुस्त,गवाह चुस्त
-अजय ब्रह्मात्मज
सेंसर बोर्ड के नए अध्यक्ष की नियुक्ति के बाद से आरंभ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। फिल्मों के संवादों से कथित अपशब्द गायब हो रहे हैं। फिल्में पुनरीक्षण समिति में जा रही हैं। फिल्मों के निरीक्षण और प्रमाणन में देरी होने से फिल्मों की रिलीज टल रही है। कुल मिला कर एक हडक़ंप सा मचा हुआ है। स्पष्ट नहीं है कि किस तरह की फिल्में सेंसर बोर्ड में अटक जाएंगी। एक घबराहट का माहौल है। निर्माता-निर्देशक आगामी फिल्मों का स्वरूप तय नहीं कर पा रहे हैं। लेख परेशान और असमंजस में हैं। न जाने कब क्या मांग आ जाए या किन शब्दों और भावों पर निषेध आ जाए? हिंदी फिल्मों के लिए विकट समय है। कारण यह है कि सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष अतिरिक्त जोश और वैचारिक प्रमाद में सत्तारूढ़ पार्टी की खुशी के लिए प्रचलित धारणा का अनुमोदन कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों और हफ्तों से मीडिया में सेंसर से संबंधित सुर्खियां बन रही हैं।
मजेदार तथ्य है कि संसर को लेकर चल रहे सवाल और विवाद मीडिया में तो हैं,लेकिन संबंधित फिल्मों के निर्माता-निर्देशक की तरफ से विरोध के स्वर नहीं सुनाई पड़ रहे हैं। यों लगता है कि कोई चूं भी नहीं कर रहा है। पिछले दिनों ‘अब तक छप्पन 2’ और ‘दम लगा के हईसा’ रिलीज हुईं। दोनों फिल्मों पर गिरी सेंसर बोर्ड की गाज दिखाई पड़ी। निर्माता-निर्देशकों ने सेंसर बोर्ड के सुझावों पर सवाल नहीं उठाए। उन्हें मान लिया। अपेक्षित कट,परिवत्र्तन और बीप के साथ फिल्में रिलीज कर दीं। ‘अब तक छप्पन 2’ में तो नाना पाटेकर के संवादों से गायब होते अक्षरों और शब्दों से पता चल जाता है कि कहां कैंची चली है। ‘दम लगा के हईसा’ में बदले गए शब्दों की जानकारी खबर छपने पर पता चली। इस फिल्म में ‘लेस्बियन’ शब्द को मूक किया गया। ‘हराममखोर’ को ‘कठोर’,‘हरामीपना’ को ‘छिछोरापना’ और ‘घंटा’ को ‘ठेंगा’ से बदला गया। इन बदलावों के सुझावों पर यशराज फिल्म्स ने आपत्ति नहीं की। अगर वे इस मामले को पुनरीक्षण समिति या ट्रिब्यूनल तक ले ताते तो शायद सेंसर बोर्ड के दस्य भी फिर से सोचते। अभी स्थिति यह हो गई है कि संबंधित निर्माता-निर्देशक सुस्त हो जाते हैं और मीडिया अपनी चुस्ती दिखाता रहता है।
जरूरत है कि निर्माता-निर्देशक सेंसर बोर्ड के सुझावों पर सवाल करें। अपने संगठनों और मीडिया के माध्यम से बातचीत करें। ऐसा नहीं करने पर सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष और अन्य सदस्य अतिरिक्त उत्साह में मनमानी करते रहेंगे। बोर्उ के अनेक सदस्यों ने कहा कि अगर उनके साथ निर्माता-निर्देशक समय रहते उन्हें सूचित करें तो अवश्य ही पुनर्विचार के लिए बाध्य किया जा सकता है। सेंसर बोर्ड का कार्य सुझाव देना है। उन सुझावों को चुनौती दी जा सकती है। होता यह है कि रिलीज के कुछ दिनों पहले फिल्में सेंसर के लिए भेजी जाती हैं। तब तक रिलीज की तारीखें तय करने क साथ बाकी बिजनेस डील किए जा चुके होते हैं। निर्माता पर दबाव रहता है कि वह समय पर डिलीवरी दे। समय इतना कम रहता है कि निर्माता किसी नए वितंडा में जाने की जगह सुझावों को मान लेता है। और इस तरह सेंसर की कैंची चलती रहती है।
अभी फिल्मों से संबंधित तमाम संगठनों को सेंसर के मामले में सोचना चाहिए। जब तक नए मार्गदर्शक नियम नहीं आ जाते,तब तक इतनी कोशिश तो की ही जा सकती हैं कि सेंसर बोर्ड प्रतिगामी सोच से बाज आए। हम जहां तक आ चुके हैं,उससे पीछे जाने की क्या जरूरत है। गाली-गलौज और अपशब्दों पर मच रही हाय-तौबा बंद हो। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि फिल्ममेकर नए विषय और फिल्मों के बारे में साचते समय किसी प्रकार के दबाव में नहीं रहे। अभी तो लेख लिखने के पहले सोचता है कि कहरीं उसके लिखे शब्दों की बलि न चढ़ जाए। इसे लिए फिल्म बिरादरी को आगे आकर सक्रिय भूमिका निभानी होरी। अपनी आवाज बुलंद करनी होगी।
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