इरफान की अनौपचारिक बातें-3
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आखिरी किस्त
इरफान
ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी
है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्नी पर इसे तीन
किस्तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्या राय है ?
आप उन्हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्य लिख्ें
chavannichap@gmail.com
कल से आगे....
-अजय ब्रह्मात्मज
यहां की बात करूं तो 2014
का पूरा साल स्पेशल एपीयरेंस में ही चला गया। पहले गुंडे किया और फिर हैदर। अभी
पीकू कर रहा हूं। मुझे यह पता है कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं। वे मुझ से उम्मीद
कर रहे हैं। मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि वे निराश न हों। मैं कुछ सस्पेंस लेकर आ
सकूं। आर्ट फिल्म करने में मेरा यकीन नहीं है,जिसमें डायरेक्टर की तीव्र
संलग्नता रहती है। ऐसी फिल्में आत्ममुग्धता की शिकार हो जाती हैं। आर्ट हो है,पर वैसी फिल्म कोई करे जिसमें कुछ नया हो। ना ही मैं घोर
कमर्शियल फिल्म करना चाहता हूं। फिर भी सिनेमा के बदलते स्वरूप में अपनी तरफ से
कुछ योगदान करता रहूंगा। पीकू के बाद तिग्मांशु के साथ एक फिल्म करूंगा। और भी
कहानियां सुन रहा हूं। सुजॉय घोष के साथ कुछ करना है। संजय गुप्ता के साथ भी बात
चल रही है। वह ऐश्वर्या के साथ है। अभी उस पर काम चल रहा है। मैंने हां कह दिया है, लेकिन अभी देखें कहानी क्या रूप लेती है? निश्चित होने के बाद बात करने में मजा आता है। अभी लगता है कि
फिल्म का प्री-प्रोडक्शन ठोस होना चाहिए। हिंदी फिल्मों में दर्शक मुझसे कुछ
अतिरिक्त चाहते हैं। मैं चालू किस्म की फिल्में नहीं कर सकता। मुझे अपने रोल में
कुछ अतिरिक्त दिखना चाहिए। हां अगर डायरेक्टर पर भरोसा हो तो हां कर सकता हूं।
वेलकम टु कराची का अनुभव के बाद ज्यादा सावधान हो गया हूं। मूल फिल्म किसी और दिशा
में घूम गई थी। चीजें बदलती हैं तो समझ में आ जाती हैं। वेलकम टु कराची में क्लब
सौंग डाल दिया था। क्लब सौंग तो अक्षय कुमार गा सकते हैं, उसमें मैं क्या करूंगा?
जो मेरा पिच
नहीं है, वहां क्यों खेलने के लिए भेज रहे हो? कमर्शियल पिल्मों में मैं आप को मजा दे सकता हूं, लेकिन मुझे अपना मैदान तो दो। मेरा मैदान, मेरा बल्ला दो, देखो मैं छक्का मारता हूं।
विज्ञापनों में मेरी अलग पहचान बनी है। उसके लिए मैंने
काफी लंबा इंतजार किया। वोडाफोन करने के बाद मेरे पास सारे ऐड एक ही प्रकार के आ
रहे थे। सब उसी के एक्सटेंशन थे। एक-दो करने के बाद लगा कि ये तो निचोड़ लेंगे।
फिर मैंने मना कर दिया। पैसों से ही संतोष नहीं होता। काम से भी संतोष होना चाहिए।
मैंने उन लोगों को समझाया कि आप मुझे दोहराएंगे तो आप के प्रोडक्ट को कौन नोटिस
करेगा? सीएट के साथ मेरी छह महीने तक बैठकें
होती रहीं। मैंने उनसे कहा कि ऐड में कैरेक्टर डालो। ऐड में इतना जरूर ख्याल रखता
हूं कि तंबाकू और नशे वगैरह के ऐड न करूं।
मैं अपनी जिंदगी में हर प्रकार के काम से जल्दी ऊब
जाता हूं। अगर ऊब गया तो पागल हो जाऊंगा। इस लाइन में इसलिए आया कि अलग-अलग काम
करता रहूंगा। मुझे किसी भी फिल्म या रिश्ते में संलग्न होने में वक्त लगता है।
मैंने महसूस किया है कि सारे रिश्ते एक समय के बाद आप को तन्हा छोड़ देते हैं।
कितना भी नजदीकी रिश्ता हो, उसमें घूम फिरकर आप अकेले हो
जाते हो। अगर लिया गया काम मुझे व्यस्त रखे। इंटरेस्ट बना रहे। तब तो मैं लगा
रहूंगा। नहीं तो कुछ और कर लूंगा। मैं अपनी तनहाई से घबरा जाता हूं। पैसों से भी
ऊब जाता हूं। मेरे बच्चे मुझे डांटते रहते हैं कि गाड़ी बदल लो। मुझे लगता है कि महंगी गाड़ी लेकर पैसे
क्यों बर्बाद करूं? उन पैसों से अपने भाइयों की मदद कर
सकता हूं। मुझे नई कार चाहिए, लेकिन उस कार के लिए कोई
फिल्म नहीं कर लूंगा। उस लालसा से मैं निकल गया हूं। कभी था मैं उसमें। प्रलोभन
मुझे डिगा नहीं सकते। मोटी रकम के ऑफर ठुकराने में मुझे वक्त नहीं लगता। दरअसल मैं
तनाव में नहीं रहना चाहता। ऐसी फिल्में खोने से कुछ पाने का एहसास होता है।
नए एक्टर मेरी तरह बनना चाहते हैं। मुझे लगता है अपने
काम और व्यवहार से मैं कोई सिग्नल दे रहा हूं। जिस नए एक्टर का एंटेना चालू होगा, वह मुझ से ग्रहण कर लेगा और फिर मुझ से आगे निकल जाएगा। मैंने
खुद ऐसे ही दूसरों के सिग्नल पकड़े थे। चलते-चलते यहां तक आ गया। मेरे लिए एक्टिंग
सिर्फ पैसा कमाने और सुरक्षा का साधन नहीं है। पैसे और सुरक्षा तो हैं, लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा, वह
हमारे काम का बाय प्रॉडक्ट है। अभी कुछ दिनों पहले किसी ने कहा कि आप की पान सिंह
तोमर देखने के बाद मुझे जीने का मकसद मिल गया। उसने हाथ भी नहीं मिलाया। कहा और
निकल गया। मुझे लगा इससे च्यादा पवित्र तारीफ नहीं हो सकती। अपने जीवन के लिए इसे
महत्वपूर्ण मानता हूं। आप गौर करेंगे कि अपनी फिल्मों से मैं खुद के लिए जाल नहीं
बुन रहा हूं। अपने काम से मुझे आजादी मिलती है। मैं यहां फिल्म करता हूं। किसी और
देश के किसी शहर में कोई हिल जाता है। वह मेरे किरदार से कुछ सीख लेता है। उस सीख
को मैं वैल्यू देता हूं। वह अनमोल है।
मेरे व्यक्तित्व में सबसे बड़ा योगदान एनएसडी का है।
मैं अपने आप भी एक्टर बन सकता था। मेरे अंदर वह चीज थी, लेकिन फिर 15 साल लगते। मालूम नहीं तब
कहां होता? क्या करता फिरता? जयपुर में मैं जमरू नाटक कर रहा था। मेरे साथ और भी लोग थे।
मालूम नहीं वह कर के मैं कहां पहुंचता? आप को बताऊं कि मैं जयपुर
में फट रहा था। समझ में आ गया था आगे बढऩा है तो कुछ सीखना पड़ेगा। एनएसडी ने सब
कुछ घोल कर पिला दिया। तीन साल खत्म होने के बाद मुझे लगा कि एनएसडी भी कम पड़
गया। खुद से मैंने सवाल पूछा कि क्या यही स्टैंडर्ड हम आगे बढ़ाएंगे? एनएसडी से निकलने के बाद तक मुझे पता नहीं था कि किसी इमोशन
में कैसे प्रवेश करते हैं? मुझे यह तो बताया गया कि अगर
किसी कैरेक्टर में गिल्टी फील करना है तो आप स्टेज पर गिल्टी फील करो। मुझे यह
नहीं बताया गया कि मैं गिल्टी कैसे फील करूं। वे संप्रेषण बता रहे थे। एहसास नहीं
बता पा रहे थे। बमुश्किल एक या दो क्लास नसीर साहब के मिल पाए थे। वहां से निकला
तो गोविंद निहलानी के साथ जजीरे जैसी फिल्म की। सभी तारीफ करते थे, लेकिन मैं खुद से नफरत करता था। जजीरे फिल्म की शूटिंग का
आखिरी संवाद बोलते समय मुझे अपना किरदार समझ में आया। तब तक तो फिल्म बन चुकी थी।
अब वह झुंझलाहट मैं किसे बताता? मेरे लिए अभिनय अपने काम में
जिंदा होना है। जिंदा होने का अपना एक्साइटमेंट होता है। कमर्शियल फिल्मों में अगर
मुझे वह मिलने लगे तो वह भी करूंगा। सिर्फ पैसे कमाकर क्या करूंगा?
मेरा सोशल सर्कल नहीं है। कुछ लोग मुझे अहंकारी समझते
हैं। मैं इसकी परवाह नहीं करता। किसी कमरे में आप केवल चुपचाप बैठ जाएं तो देख लें
बाकी नौ आप के बारे में क्या-क्या बातें करने लगते हैं। सभी के अपने निर्णय और
दृष्टिकोण होंगे। किसी को लगेगा कि यह मारने वाला है। कोई कहेगा अहंकारी है। किसी
को मैं प्यारा लगूंगा। तीसरा या चौथा कहेगा कि कोई स्कीम कर रहा है। नौ लोग होंगे
तो नब्बे कहानियां बनेंगी। मुझे इस पचड़े में रहना ही नहीं है। अगर मुझे चुप रहना
अच्छा लग रहा है तो मैं चुप रहूंगा। कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।
पिछले दिनों एक नया एक्टर मिला। वह मेरे पास आया और
मुझसे चिपक कर रोने लगा। मैं हतप्रभ। समझ में नहीं आया। फिर मुझे अपना वाकया याद
आया। एनएसडी में मेरा एडमिशन हो गया था। संध्याछाया नाटक मैं देखने गया था। सुरेखा
सीकरी और मनोहर सिंह उसमें अभिनय कर रहे थे। सुरेखा ने मुझे इतना अभिभूत किया कि
नाटक खत्म होने के बाद मैं ग्रीन रूम में चला गया। मैंने उनके पांव पकड़े और रोने
लगा। कोई इतना अच्छा अभिनय कैसे कर सकता है?
मुझे अपना वह
इमोशन याद आया। एक सुकून सा मिलता है कि आप किसी को इंस्पायर कर रहे हैं। आप के
एक्ट से कुछ हो जा रहा है। अब ऐसा न हो कि आप कुछ होने के लिए आप एक्ट करने लगे।
सब कुछ नैसर्गिक होना चाहिए। हम सब की लाइफ इतनी शर्तों में बंधी रहती है कि हम
लगातार प्रलोभन में फंसते रहते हैं। कुछ पाने के चक्कर में सब कुछ खोते रहते हैं।
कुछ हासिल करना चिपचिपा है। उसमें फिसलन है। दुनिया चाहती है कि आप उसी में अटके
रहें। मुझे लगता है कि मेरे अंदर के इन एहसासों की वजह से ही मुझे अलग ऑफर मिलते
हैं। किसी ने कहा है कि आप जो चाहते हैं, वही होता है। हमारे फैसले ही
हमारा भविष्य बनाते हैं। सारी चीजें आंतरिक रूप से इस तरह जुड़ी हुई हैं कि चार
साल या चालीस साल पहले लिए फैसले का नतीजा अभी सामने आए।
प्रोडक्शन में अभी हमने मदारी फिल्म पूरी कर ली है।
उसके निर्माता शैलेष सिंह हैं। उसके निर्माताओं में सुतपा, शैलेष और शैलेष की पत्नी
हैं। तीसरी फिल्म भी तैयारी में है, जिसमें मीरा नायर का नेफ्यू
काम कर रहा है। उसमें मैं नहीं हूं। हिंदी फिल्मों की जमीन अभी बहुत ऊपजाऊ हो गई
है। आप किसी भी कहानी का पुष्ट बीज डालें तो अच्छी फसल मिलेगी। देखना यह है कि
फिल्म नियंत्रित बजट में बने और मुनाफा कमाए। लंचबॉक्स ने अगर ज्यादा बिजनेस कर
लिया है तो इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि मैं मोटी रकम मांगने लगूं। निर्माता
फायदे में रहें।
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