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Showing posts from March, 2015

किंगमेकर बनते कास्टिंग डायरेक्टर

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- स्मिता श्रीवास्तव --------------------------- डॉली अहलूवालिया, सुशांत सिंह राजपूत, राजकुमार राव, रणवीर सिंह, ताहिर भसीन, धृतिमान चटर्जी, फ्रीडा पिंटो, देव पटेल, बलजिंदन कौर, दुर्गेश कुमार में एक कॉमन चीज है। वह यह कि वे जिनकी खोज हैं, उन्हें कास्टिंग डायरेक्टर कहते हैं। साथ ही उपरोक्त अधिसंख्य नाम पॉपुलर और समर्थ कलाकार के तौर पर दर्ज हो रहे हैं। ‘काइ पो छे’ , ‘हाईवे’, ‘विकी डोनर’, ‘शाहिद’, ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ आदि फिल्मों की एक अहम धुरि कास्टिंग डायरेक्टर रहे हैं। इस तरह कि उक्त फिल्में सिर्फ कमाल की कहानियों के लिए ही विख्यात नहीं हुई, बल्कि अलहदा कलाकारों की मौजूदगी से फिल्म के रियलिच्म में चार चांद लग गए। रणवीर सिंह और ताहिर भसीन शानु शर्मा की खोज हैं तो सुशांत सिंह राजपूत, राजकुमार राव और हाईवे के दुर्गेश कुमार जैसे असाधारण कलाकार मुकेश छाबड़ा की। आंखोदेखी जैसी परफॉरमेंस केंद्रित फिल्मों में कमाल के कलाकारों की खोज भी कास्टिंग डायरेक्टरों ने की और नतीजतन वह फिल्म राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म सर्किट से लेकर बॉक्स ऑफिस तक पर क्या कीर्तिमान रच रही है, वह सब को पता है। कास्टिंग डाय...

जासूस बन देखें ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ : दिबाकर बनर्जी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज -इस फिल्म को देखने के लिए ऑडिएंस को किस तरह तैयार होना चाहिए। दर्शक आप की फिल्मों को लेकर द्वंद्व में रहते हैं। 0 बड़ा अच्छा सवाल किया आपने, लेकिन डायरेक्टर ही दर्शकों को बताता फिरे कि मेरी फिल्म को इस तरह देखो तो वह जरा अजीब सा लगता है। बहरहाल,मेरे हिसाब से हमारी फिल्मों में आजकल खाली टाइम बढ़ गया है। मैं पाता हूं कि सीन में गाने चल रहे हैं। डायलॉग चल रहा है, पर ऑडिएंस मोबाइल पर बातें कर रहे हैं। सिनेमा के बीच से बाहर जा चक्कर लगा कर आ रहे हैं। फिर वे कहना शुरू कर देते हैं कि यार हम तो बोर हो रहे हैं। इधर हिंदी फिल्में दर्शकों को बांधकर नहीं रख पा रही हैं। साथ ही सिनेमा के प्रति दर्शकों के समर्पण में भी कमी आई है। वे भी समर्पित भाव से फिल्में नहीं देखते। मेरा कहना है कि यार इतना आरामदेह सिनेमहॉल है। बड़ी सी हाई क्वॉलिटी स्क्रीन है। डॉल्बी साउंड है। अगर हम उस फिल्म के प्रति सम्मोहित न हो गए तो फिर फायदा क्या? कॉलेज स्टूडेंट को देखता हूं कि सिनेमा हॉल में बैठ वे आपस में तफरीह कर रहे हैं। मस्ती कर रहे हैं। सामने स्क्रीन पर चल रही फिल्म तो उनके लिए सेकेंडरी चीज है। सा...

दरअसल: विधु विनोद चोपड़ा की कोशिश

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अजय ब्रह्मात्मज     पिछले हफ्ते आमिर खान और अमिताभ बच्चन ने विधु विनोद चोपड़ा की अंग्रेजी फिल्म ' ब्रोकेन हॉर्सेज Ó के ट्रेलर की लॉन्चिंग की। इन दिनों ट्रेलर लॉन्चिंग एक इवेंट बन गया है। टीवी और सोशल मीडिया के लिए फोटो और फुटेज मिल जाते हैं। हालांकि लॉन्चिंग के कुछ मिनटों के बाद ट्रेलर , गाने और प्रोमो यू-ट्यूब पर उपलब्ध हो जाते हैं। फिर भी ऐसे इवेंट का अपना महत्ब बनता और बढ़ता जा रहा है। समकालीन घटनाओं को रिकार्ड और संरक्षित करना बेहद जरूरी काम है। ऐसे इवेंट पर सोच-समझ के साथ या बेखयाली में कही गई बातों का भी ऐतिहासिक संदर्भ बनता है। ' ब्रोकेन हॉर्सेज Ó के ट्रेलर लॉन्च पर विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी ख्वाहिशों का जिक्र किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर लक्ष्य स्पष्ट हो और लगन व मेहनत में कोई कमी न रहे तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है। उन्होंने अपनी कोशिश का उदाहरण दिया। कश्मीर के हिंदी मीडियम में डीएवी स्कूल से पढ़ा लड़का इसी लगन और मेहनत से आज अंग्रेजी फिल्म बना सका है।     डीएवी स्कूल में पढ़ते समय विधु विनोद चोपड़ा ने...

फिल्‍म समीक्षा : हंटर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज निस्संदेह 'हंटर' एडल्ट फिल्म है। फिल्म के प्रोमो से ऐसा लग सकता है कि यह एडल्ट सेक्स कामेडी होगी। फिल्म में सेक्स से ज्यादा सेक्स की बातें हैं। सेक्स संबंधी उन धारणाओं,मूल्यों और समस्याओं की चर्चा है,जिनके बारे में हम दोस्तों के बीच तो छुप कर बातें करते हें,लेकिन कभी खुलेआम उन पर बहस नहीं होती। भारतीय समाज में सामाजिक और नैतिक कारणों से सेक्स एक वर्जित विषय है। फिल्मों में दर्शकों उलझाने और लुभाने के लिए उसका अनुचित इस्तेमाल होता रहा है। हर्षवर्धन कुलकर्णी ने इस सेक्स को कहानी का विषय बनाने का सराहनीय जोखिम उठाया है। संवाद और दृश्यों में फिल्म थोड़ी सी फिसलती तो अश्लील और फूहड़ हो सकती थी। हर्षवर्धन ने संयत तरीके से इसे पेश किया है। पहली फिल्म के लिहाज से उनके चुनाव,लेखन और निर्देशन की तारीफ होनी चाहिए। कल सई परांजपे का जन्मदिन था। 'चश्मेबद्दूर' और 'कथा' जैसी फिल्मों की निर्देशक सई परांजपे की शैली,ह्यूमर और परिप्रेक्ष्य से प्रभावित हैं हर्षवर्धन और यह कतई उनकी कमजोरी नहीं है। उन्होंने प्रयाण वहां से किया है और समय ...

जैगम ईमाम की कोशिश -दोज़ख़

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-अजय ब्रह्मात्मज     मैं बनारस का हूं। वहीं पैदाइश हुई और दसवीं तक की पढ़ाई भी। उसके बाद लखनऊ चला गया। फिर भोपाल और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी गया। मास कॉम की पढ़ाई की थी। दिल्ली आकर मैंने अमर उजाला में रिपोर्टर के तौर पर काम शुरू किया। प्रिंट से इलक्ट्रानिक मीडिया में जाना हुआ। न्यूज 24 और आज तक में भी काम किया। इसके बा द मैंने महसूस किया कि सिनेमा मेरे अंदर जोर मार रहा है।  तब तक मैंने दोजख नाम से उपन्यास लिख लिया था। सिनेमा की तलाश में उपन्यास लेकर मुंबई आ गया। शुरू में टीवी शो लिखने का काम मिला। एक साल के लेखन और कमाई के बाद सिनेमा ने फिर से अंगड़ाई ली। मैंने अपने ही उपन्यास को स्क्रिप्ट का रूप दिया और टीम जोडऩी शुरू कर दी। पहले लोगों ने यकीन नहीं किया। मजाक किया। जब मैंने टीम के सदस्यों को एडपांस पैसे देने आरंभ किए तो उन्हें यकीन हुआ।     घरवालों को बताए बगैर मैंने अपने फंड तोडऩे शुरू कर दिए। नगदी जमा किया। पैसे कम थे। हिम्मत ज्यादा थी। बनारस के दोस्तों की मदद से बनारस में ही शूटिंग की प्लानिंग की। वहीं की कहानी है। सब कुछ अकेले करता रहा। 2012 के...

हिंदी टाकीज 2 (6) फिल्‍मी हुआ मैं - आरजे आलोक

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हिंदी टाकीज सीरिज में इस बार आरजे आलोक। आरजे आलोक हाजिरसवाल आरजे और फिल्‍म पत्रकार हैं। अपनी मधुर और वाक् उपस्थिति से वे हर इवेंट को जीवंत कर देते हैं। पिछले चंद सालों में ाहचान में आए फिल्‍म पत्रकारों में से एक आरजे आलोक सक्रिय और रंजक हैं। फ़िल्मी हुआ मैं ..  मैं उत्तर प्रदेश के सोनभद्र ज़िले में "ओबरा " नामक स्थान से ताल्लुक़ रखता हूँ, जहां आज भी नयी फिल्में रिलीज़ होने के २ महीने बाद लगती हैं ! जब मैं छोटा था तो घर में नयी रंगीन टी वी आयी थी और वी सी आर प्लेयर किराये पर मंगा कर के महीने में १-२ बार पिताजी वीडियो कैसेट्स पर फिल्में दिखाया करते थे, आस पास से पडोसी भी आ जाया करते थे , फिल्म देखने की पिकनिक , घर में ही हो जाया करती थी ! उन दिनों में मुझे याद आता है "बड़े दिलवाला " फिल्म पूरे परिवार ने साथ देखा था , मेरे हाथ में वो वीडियो कैसेट का कवर भी था और घर के होली पर बनाये गए चिप्स को खाते हुए हम फिल्म देख रहे थे ! (फोटो - मैं वीडियो कैसेट  के साथ ,बगल में मेरे बड़े भाई ) पहली बार मुझे याद है मुंबई दंगो पर आधारित फिल्म "बॉम्बे " रिली...

अश्लील नहीं है हंटर- हर्षवर्द्धन कुलकर्णी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     प्रोफेसर और पोएट जीवी कुलकर्णी के बेटे हर्षवर्द्धन कुलकर्णी को घर में साहित्यिक और सृजनशील माहौल मिला। पिता कर्णाटक के धारवाड़ से मुंबई आ गए थे। हर्षवर्द्धन की परवरिश मुंबई में ही हुई। पढ़ाई-लिखाई में अच्छे थे तो मध्यवर्गीय परिवार के दबाव में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की। कॉलेज के दिनों में थिएटर की संगत रही। भाई की सलाह पर पुणे पढऩे गए। पुणे में सांस्कृतिक माहौल मिला। पुणे प्रवास के दौरान हमेशा एफटीआईआई के सामने की सडक़ से आना-जाना होता था तो वह बुलाता था। मन में हूक सी होती थी कि यहां से कुछ करना है।पढ़ाई पूरी करने के बाद हर्षवद्र्धन मुंबई आ गए। यहां प्रदीप उप्पुर सीआईडी के निर्देशक बीपी सिंह के साथ मिल कर ‘आहट’ आरंभ करने जा रहे थे। यह 1995 की बात है। ‘आहट’ के लिए छह-सात महीने काम करने का अनुभव हुआ और वे चीफ असिस्टैंट तक बन गए थे। इस बीच एफटीआईआई में एडमिशन मिल गया। उस समय सभी ने मना किया,लेकिन बीपी सिंह ने स्पष्ट सलाह दी कि मुझे जाना चाहिए। अपना स्वर हासिल करना चाहिए। अब लगता है कि उनकी सलाह नेक और दूरगामी प्रभाव की थी।     एफटी...

बांध लिया एनएच 10 की स्क्रिप्‍ट ने - अनुष्‍का शर्मा

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-अजय ब्रह्मात्मज  ‘एनएच 10’ की घोषणा के समय एक ही सवाल गूंजा कि अनुष्का शर्मा को इतनी जल्दी निर्माता बनने की जरूरत क्यों महसूस हुई ? पहले हिंदी फिल्मों की हीरोइनें करिअर की ढलान पर स्वयं फिल्मों का निर्माण कर टेक लगाती थीं। या फिर रिटायरमेंट के बाद करिअर ऑप्शन के तौर पर प्रोडक्शन में इंवेस्ट करती थीं। फिल्मों सब्जेक्ट इत्यादि में उनकी राय नहीं चलती थी। अनुष्का शर्मा ने ‘एनएच 10’ के निर्माण के साथ नवदीप सिंह को निर्देशन का मौका भी दिया। नवदीप सिंह ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ के बाद अगली फिल्म नहीं बना पा रहे थे। किस्सा है कि नवदीप सिंह ने पढऩे और सोचने के लिए अनुष्का के पास स्क्रिप्ट भेजी थी। अनुष्‍का को स्क्रिप्ट इतनी अच्छी लगी कि वह लीड रोल के साथ प्रोडक्शन के लिए भी तैयार हो गईं। अनुष्का से यह मुलाकात उनके घर में हुई। इन दिनों फिल्म स्टार इंटरव्यू के लिए भी किसी पंचतारा होटल के कमरे या स्टूडियो के फ्लोर का चुनाव करते हैं। घर पर बुलाना बंद सा हो गया। प्रसंगवश बता दें कि अनुष्का के घर की सजावट में सादगी है। लगता नहीं कि आप किसी फिल्म स्टार के घर में बैठे हों। फिल्मों की चमक से परे ...

एक सितारा बनते देखा - सत्यजित भटकल

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प्रस्तुति-अजय ब्रह्मात्मज सत्यजित भटकल आमिर खान के जिगरी दोस्त हैं। अच्छे-बुरे दिनों में वे हमेशा आमिर के करीब रहे। नौवीं कक्षा में दोनों के बीच दोस्ती हुई। सत्यजित भटकल के लिए आमिर खान हिंदी फिल्मों के सुपर स्टार मा। नहीं हैं। वे उनके विकास और विस्तार को नजदीक से देखते रहे हैं। वे आमिर के हमकदम भी हैं। ‘लगान’ और ‘सत्यमेव जयते’ में दोनों साथ रहे। 14 मार्च को आमिर खान का जन्मदिन था। इस अवसर पर सत्यजित भटकल ने आमिर खान के बारे में कुछ बताया :-     हर मनुष्य का एक स्थायी भाव होता है। उम्र बढऩे के साथ व्यक्त्त्वि में आए परिवत्र्तनों के बावजूद वह स्थायी भाव बना रहता है। आमिर का स्थायी भाव जिज्ञासा है। वह आजन्म छात्र रहे हैं और आगे भी रहेंगे। वे जिंदगी के सफर को सफर के तौर पर ही लेते हैं। अपनी जिज्ञासाओं की वजह से उन्होंने हमेशा खुद को नए सिरे से खोजा और सफल रहे हैं। जिंदगी की मामली चीजों के बारे में भी वे इतनी संजीदगी से बता सकते हैं कि आप चकित रह जाएं। ‘लगान’ की शूटिंग के समय हमलोगों ने सहजानंद टावर्स को होटल में बदल लिया था। बैरे के रूप में स्थानीय लडक़े काम कर रहे थे।...

फिल्‍म समीक्षा : एनएच 10

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'अजय ब्रह्मात्‍मज  स्टार: 4 नवदीप सिंह और अनुष्का शर्मा की 'एनएच 10' पर सेंसर की कैंची चली है। कई गालियां, अपशब्द कट गए हैं और कुछ प्रभावपूर्ण दृश्यों को छोटा कर दिया गया है। इस कटाव से अवश्य ही 'एनएच 10' के प्रभाव में कमी आई होगी। 'एनएच 10' हिंदी फिल्मों की मनोरंजन परंपरा की फिल्म नहीं है। यह सीधी चोट करती है। दर्शक सिहर और सहम जाते हैं। फिल्म में हिंसा है, लेकिन वह फिल्म की थीम के मुताबिक अनगढ़, जरूरी और हिंसक है। चूंकि इस घात-प्रतिघात में खल चरित्रों के साथ नायिका भी शामिल हो जाती है तो अनेक दर्शकों को वह अनावश्यक और अजीब लग सकता है। नायिका के नियंत्रण और आक्रमण को आम दर्शक स्वीकार नहीं कर पाता है। दरअसल, प्रतिशोध और प्रतिघात के दृश्यों के केंद्र में नायक(पुरुष) हो तो पुरुष दर्शक अनजाने ही खुश और संतुष्ट होते हैं। 'एनएच 10' में इंटरवल से ठीक पहले अपने पति की रक्षा-सुरक्षा के लिए बेतहाशा भागती मीरा के बाल सरपट भागते घोड़़ों के अयाल की हल में उछलते है। वह अपने तन-बदन से बेसुध और मदद की उम्मीद में दौड़ी जा रही है। नवदीप सिंह ने क...

दरअसल : मुद्दई सुस्त,गवाह चुस्त

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-अजय ब्रह्मात्मज     सेंसर बोर्ड के नए अध्यक्ष की नियुक्ति के बाद से आरंभ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। फिल्मों के संवादों से कथित अपशब्द गायब हो रहे हैं। फिल्में पुनरीक्षण समिति में जा रही हैं। फिल्मों के निरीक्षण और प्रमाणन में देरी होने से फिल्मों की रिलीज टल रही है। कुल मिला कर एक हडक़ंप सा मचा हुआ है। स्पष्ट नहीं है कि किस तरह की फिल्में सेंसर बोर्ड में अटक जाएंगी। एक घबराहट का माहौल है। निर्माता-निर्देशक आगामी फिल्मों का स्वरूप तय नहीं कर पा रहे हैं। लेख परेशान और असमंजस में हैं। न जाने कब क्या मांग आ जाए या किन शब्दों और भावों पर निषेध आ जाए? हिंदी फिल्मों के लिए विकट समय है। कारण यह है कि सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष अतिरिक्त जोश और वैचारिक प्रमाद में सत्तारूढ़ पार्टी की खुशी के लिए प्रचलित धारणा का अनुमोदन कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों और हफ्तों से मीडिया में सेंसर से संबंधित सुर्खियां बन रही हैं।     मजेदार तथ्य है कि संसर को लेकर चल रहे सवाल और विवाद मीडिया में तो हैं,लेकिन संबंधित फिल्मों के निर्माता-निर्देशक की तरफ से विरोध के स्वर नहीं सुनाई पड...

संदेश शांडिल्य ले आए सिंफनी

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-अजय ब्रह्मात्मज आगरा के संदेश शांडिल्य के पिता अध्यापक थे। उन्होंने पिता से अलग एकेडमिक फील्ड में जाने के बजाए संगीत की राह चुनी। बचपन सं संगीत का रियाज और अभ्यास किया। शास्त्रीय संगीत की शिक्षा के लिए उन्होंने दिल्ली के श्रीराम कला केंद्र में दाखिला लिया और फिर 1989 में मुंबई का रुख किया। उस समय उनकी उम्र महज 21 साल थीं। मुंबई में वे आरंभ में संगीतकार सुरेन्द्र सोढी के सहायक रहे। मुंबई आने के बाद ही उन्होंने उस्ताद सुल्तान खान से सारंगी की शिक्षा ली। संगीत में निष्णात होने के लिए उन्होंने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की भी शिक्षा ली। संगीत की सभी परंपराओं से परिचित होने के बाद उन्होंने संगीत निर्देशन में कदम रखा। शुरूआती दौर में संदेश ने कुछ टीवी धारावाहिकों में संगीत निर्देशन किया। उन्हें पहली लोकप्रियता और सफलता करण जौहर की फिल्म ‘कभी खुशी कभी गम’ के गीत ‘सूरज हुआ मद्धम’ से मिली। उनके संगीत निर्देशन की पिछली फिल्म ‘रंगरसिया’ थी।     संदेश शांडिल्य की इच्छा थी कि वे भी दुनिया के मशहूर संगीतकारों की तरह सिंफनी तैयार करें। सिंफनी खास किस्म की संगीत रचना होती है,जिसमें किसी ...

एनएच 10 : खास सिचुएशन में पावरफुल हुई औरत- नवदीप सिंह

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-अजय ब्रह्मात्मज     ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ के सात सालों के बाद नवदीप सिंह की फिल्म ‘एनएच 10’ आ रही है। इस फिल्म में अनुष्का शर्मा मेन लीड में हैं। दूसरी फिल्म में इतनी देरी की वजह पूछने पर नवदीप सिंह स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘बीच में मेरी दो फिल्मों की घोषणाएं हुईं। ‘बसरा’ और ‘रॉक पर शादी’। ‘रॉक पर शादी’ की तो शूटिंग शुरू भी हो गई थी। बीस दिनों की शूटिंग के बाद वह अटक गई। इनमें काफी समय निकल गया।’ दरअसल,नवदीप अलग सोच के निर्देशक हैं। उन्हें जिदी भी कहा जाता है। नवदीप इससे इंकार नहीं करते। वे जोड़ते हैं,‘मेरी जिद से ज्यादा निर्माताओं की अपनी दिक्कतें रहती हैं। उन्हें मेरी स्क्रिप्ट पसंद आती है,लेकिन वे यह कहना नहीं भूलते कि यह टिपिकल हिंदी फिल्म नहीं है। उन्हें डर रहता है कि नई किस्म की फिल्म है। चलेगी,नहीं चलेगी। यही समय अगर साउथ की फिल्म की रीमेक में लगाया जाए तो रिटर्न पक्का है। ज्यादातर निर्माता स्क्रिप्ट पढ़ कर फिल्म की कल्पना नहीं कर पाते। वे स्टार,सेटअप और नाम देखते हैं। वे किसी भी दूसरी भाषा की फिल्म देख कर आश्वस्त हो जाते हैं कि उसक कुछ प्रतिशत भी रीमेक ह...

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लेखिकाएं लहरा रहीं परचम - अमित कर्ण

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-अमित कर्ण     हिंदी फिल्म जगत में महिला लेखिकाओं व निर्देशकों का दौर रहा है। हनी ईरानी, साईं परांजपे, कल्पना लाजिमी, मीरा नायर ने दर्शकों को नए किस्म का सिनेमा दिया, मगर उस जमाने में कथित पैरेलल सिनेमा के पैरोकार कम थे। ऐसे में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री महिला लेखिकाओं की बहुत बड़ी तादाद से महस्म थी। आज वह बात नहीं है। इंडस्ट्री में ढेर सारी फीमेल रायटर और डायरेक्टर अपने नाम का परचम लहरा रही हैं। उनमें अद्वैता काला, जूही चतुर्वेदी, उर्मि जुवेकर, अन्विता दत्ता, शिबानी बथीजा, शगुफ्ता रफीक उल्लेखनीय नाम हैं। वे अपने अलग विजन और ट्रीटमेंट से लोगों का दिल जीत रही हैं। उक्त नाम लीक से हटकर फिल्में दे रही हैं, जबकि फराह खान, रीमा कागटी, जोया अख्तर पॉपुलर फिल्में दे रही हैं। सब के सफल होने की वजह यह रही कि उन्होंने अपनी नारीवादी सोच को किनारे रख ह्यूमन इंटरेस्ट की कहानियां दर्शकों को दी। ‘कहानी’ जैसी फिल्म लिखने वाली अद्वैता काला कहती हैं, ‘एक लेखक के तौर पर आप जब कहानी लिखना शुरू करते हो तो आप को कोई आइडिया नहीं होता कि उसका अंत क्या होगा? मैं अपनी कहानी का अंत भी प्रेडिक्ट नहीं...

क्यों नहीं केयरफ्री हो सकती मैं-अनुष्का शर्मा

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प्रस्तुति-अजय ब्रह्मात्मज मैं आर्मी बैकग्राउंड से आई हूं। अलग-अलग शहरों में रही। परिवार और आर्मी के माहौल में कभी लड़के और लड़की का भेद नहीं फील किया। मेरे पेरेंट्स ने कभी मुझे अपने भाई से अलग तरजीह नहीं दी। मैं लड़को और लड़कियों के साथ एक ही जोश से खेलती थी। मेरे दिमाग में कभी यह बात नहीं डाली गई कि यह लड़का है,यह लड़की है। गलती वहीं से आरंभ होती है,जब हम डिफाइन करने लगते हैं। उनकी तुलना करने लगते हैं। लड़कियां लड़कियों जैसी ही रहें और आगे बढ़ें। लड़कियों पर यह नहीं थोपा जाना चाहिए कि उन्हें कैसा होना चाहिए? लड़किया होने की वजह से उन पर पाबंदियां न लगें। अगर कोई आदर्श और स्टैंडर्ड है तो वह दोनों के लिए होना चाहिए। अब जैसे कि हीरोइन सेंट्रिक फिल्म ¸ ¸ ¸यह क्या है? क्या हीरो सेंट्रिक फिल्में होती हैं?     बचपन से मैंने जिंदगी जी है,उसकी वजह से लड़के और लड़की के प्रति दोहरे रवैए से मुझे दिक्कत होती है। मैं नहीं झेल पाती। अपने देश में ऐसे ही अनेक समस्याएं हैं। हमारी एक समस्या महिलाओं की सुरक्षा है। लिंग भेद की वजह से असुरक्षा बढ़ती है। औरतें असुरक्षित रहेंगी तो विकास का नारा बेमानी हो...

चवन्‍नी पर होली

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होली पर चवन्‍नी के आर्काइव से तीन लेखत्र इस साल शबना आजमी और अनुराग कश्‍यप ने दोस्‍तों के साथ होली को सार्वजनिक रंग दिया। कभी इस फिल्‍म इंडस्‍ट्री में रंगों की फुहार और ढोलक की थाप पर सभी सितारे ठुमकते और सराबोर होते थे। अग फिॅल्‍म इंडस्‍ट्री की होली सराबोर से घट कर बोर हो गई है। न रहा रांग, न रहे रंग। होली हो गई निस्‍संग। Friday, March 21, 2008 खेमों में बंटी फ़िल्म इंडस्ट्री, अब नहीं मनती होली हां, यहां यह याद दिलाना आवश्यक होगा कि सेटेलाइट चैनलों के आगमन और सीरियल के बढ़ते प्रसार के दिनों में सीरियल निर्माताओं ने अपनी यूनिट के लिए होली का आयोजन आरंभ किया। इस प्रकार की होली चुपके से होली के पहले ही होली के दृश्य जोड़ने के काम आने लगी। होली ने कृत्रिम रूप ले लिया। अभी फिल्म इंडस्ट्री घोषित-अघोषित तरीके से इतने खेमों में बंट गई है कि किसी ऐसी होली के आयोजन की उम्मीद ही नहीं की जा सकती, जहां सभी एकत्रित हों और बगैर किसी वैमनस्य के होली के रंगों में सराबोर हो सकें!  Sunday, March 4, 2012 हाय वो होली हवा हुई पोज बना कर होली फिल्मी...

दरअसल : आज के निर्दशकों की नजर में गुरू दत्त

‘’ -अजय ब्रह्मात्मज     पिछले दिनों विनोद चोपड़ा फिल्म्स और ओम बुक इंटरनेशनल ने दिनेश रहेजा और जितेन्द्र कोठारी के संपादन में गुरू दत्त फिल्म्स की तीन फिल्मों ‘साहब बीवी और गुलाम’,‘चौदहवीं का चांद’ और ‘कागज के फूल’ की स्क्रिप्ट जारी की। इस अवसर पर तीन युवा निर्देशकों अनुराग कश्यप,फरहान अख्तर और दिबाकर बनर्जी को आमंत्रित किया गया था। तीनों ने अपने लिए गुरू दत्त की प्रासंगिकता पर बातें कीं। इन दिनों हिंदी फिल्मों पर किताबों की बौछार चल रही है। दस्तावेजीकरण हो रहा है। अफसोस है कि हिंदी प्रकाशक अपने प्रिय लेखकों से ही सिनेमा पर भी लिखवा रहे हें। उन्हें यह परवाह नहीं है कि उनके प्रकाशन की कोई उपयोगिता भी है या नहीं? बहरहाल,गुरू दत्त के बारे तीनों निर्देशकों की राय सुनना रोचक रहा।     तरंग के पाठकों के लिए मैं उनकी बातों के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूं: अनुराग कश्यप- गुरू दत्त की प्यासा मेरी पहली फिल्म थी। इस फिल्म से ही गुरू दत्त से मेरा परिचय हुआ। उसका असर ऐसा हुआ कि आज भी उस फिल्म की छवियां मेरा पीछा करती हैं। दस फिल्म के एक गाने से प्रेरित होकर मैंने पूरी फि...

इरफान की अनौपचारिक बातें-3

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3 आखिरी किस्‍त  इरफान ने इस बातचीत में अपनी यात्रा के उल्‍लेख के साथ वह अंतर्दृष्टि भी दी है,जो किसी नए कलाकार के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। चवन्‍नी पर इसे तीन किस्‍तों में प्रकाशित किया जाएगा। इरफान के बारे में आप की क्‍या राय है ? आप उन्‍हें कैसे देखते और समझते हैं ? अवश्‍य लिख्‍ें chavannichap@gmail.com   कल से आगे....  -अजय ब्रह्मात्‍मज         यहां की बात करूं तो 2014 का पूरा साल स्पेशल एपीयरेंस में ही चला गया। पहले गुंडे किया और फिर हैदर। अभी पीकू कर रहा हूं। मुझे यह पता है कि दर्शक मुझे पसंद कर रहे हैं। वे मुझ से उम्मीद कर रहे हैं। मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि वे निराश न हों। मैं कुछ सस्पेंस लेकर आ सकूं। आर्ट फिल्म करने में मेरा यकीन नहीं है , जिसमें डायरेक्टर की तीव्र संलग्नता रहती है। ऐसी फिल्में आत्ममुग्धता की शिकार हो जाती हैं। आर्ट हो है , पर वैसी फिल्म कोई करे जिसमें कुछ नया हो। ना ही मैं घोर कमर्शियल फिल्म करना चाहता हूं। फिर भी सिनेमा के बदलते स्वरूप में अपनी तरफ से कुछ योगदान करता रहूंगा। पीकू...