रॉय : पर्दे के पीछे : जयप्रकाश चौकसे
समानांतर कथाओं की सूत्रविहीन फिल्म
-जयप्रकाश चौकसे
मेहमान कलाकाररणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल और जैक्लीन की 'रॉय' में दो कहानियां समानांतर चलती हैं। एक कथा रॉय नामक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के युवा चोर की है जिसने कभी कोई सबूत नहीं छोड़ा है। केवल उसकी आंखें एक व्यक्ति ने देखी हैं। एक गुप्तचर रजत वर्षों से उसकी तलाश में है। युवा रॉय का पथ प्रदर्शक एक बूढ़ा घाघ है और एक पेंटिंग के आधे भाग की तलाश है जिसके लिए करोड़ों रुपए मिल सकते हैं। रॉय उसी की तलाश में मलेशिया पहुंचता है और पेंटिंग हथियाने के बाद अपने पथ प्रदर्शक से वापस मांगता है क्योंकि पेंटिंग का शेष भाग बनाने वाली कन्या से वह प्यार करता है। गुरु चेले का द्वंद होता है और युवा जीत कर अपनी प्रेयसी से मिलता है।
दूसरी कथा एक सनकी फिल्मकार की है जो दो चोरी की रोमांचक सफल फिल्में बना चुका है तथा तीसरी के लिए मलेशिया पहुंचा है जहां लंदन में रहने वाली भारतीय युवती भी अपनी फिल्म बनाने आई है और दिलफेंक फिल्मकार उसे अपना शिकार बनाते हुए स्वयं उससे सच्चा प्रेम करने लगता है परन्तु वह उसे समझ चुकी है और रॉय से ही उसे सच्चा प्यार है। बहरहाल इस कथा पर बड़ी आसानी से एक रोमांचक सफल फिल्म बनाई जा सकती थी परन्तु इस फिल्म का निर्देशक अपनी छद्म बौद्धिकता के अहंकार में कठिन समानांतर कहानियाें को और अधिक दुरूह बनाकर प्रस्तुत करता है और दर्शक के लिए धुंध पैदा करता है। रणबी कपूर जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की मेहमान भूमिका को ही रोचक नहीं बना पाया, यहां तक कि उसकी प्रेम कथा जिसके कारण उसने अपराध का मार्ग छोड़ दिया है को भी मनोरंजक दंग से नहीं प्रस्तुत कर पाया। पूरी फिल्म में सनकी फिल्मकार की भूमिका में अर्जुन रामपाल एक ही ऊबाऊ भाव चेहरे पर लिए दर्शक को तलता रहता है। नायिका का भी भरपूर उपयोग नहीं हो पाया। यह बताया गया है कि लेखक फिल्मकार व्यक्तिगत जीवन में मेधावी है परन्तु अगर प्रतिभा सेल्युलाइड को रोशन नहीं कर पाए तो दुख होता है। इस फिल्म के भीतर की फिल्म का निर्देशक पात्र बिना पटकथा लिखेे ही अपने पूरे ताम-झाम के साथ लोकेशन पहुंच जाता है मानो फिल्म बनाना त्वरित दोहा लिखना है। इस तरह का प्रसंग दो बार यथार्थ में हुआ है। चेतन आनंद के पास 'आखरी सच' कहानी थी परन्तु पटकथा उन्होंने एक नन्हे बच्चे के मूड के अनुसार मुंबई में लोकेशन पर ही लिखी थी और इसी तरह 'हकीकत' का भी विचार उनके दिमाग में स्पष्ट था परन्तु दृश्य लोकेशन पर ही उन्होंने अपने मित्र बलराज साहनी के साथ दृश्य लिखे और शूट किए थे। चेतन आनंद सी विलक्षण प्रतिभा कभी-कभी ही उजागर होती थी और 'त्वरित पटकथा' कर प्रयोग उन्होंने फिल्म उद्योग में दो दशक के अनुभव के बाद किया था। इसी तरह राजकपूर ने भी अपने चार दशक के अनुभव के बाद 'राम तेरी गंगा मैली' में किया था परन्तु कथा अवश्य लिखी हुई थी और दृश्य लोकेशन पर लिखे जाते थे।
'रॉय' के एक दृश्य में सहायक बनी शरनाज पटेल निर्देशक अर्जुन से कहती हैं। आखिर आपने फिल्म पूरी कर ली। दर्शक चीखते हैं कि 'बधाई हो, अब तो जाने दो'। निर्देशक पात्र कहता है 'जानें कैसे पूरी हुई' तो दर्शक चीखते हैं। यह तो कोई नहीं बता सकता। मुझे विगत 6 दशकों का फिल्म देखने का अनुभव है परन्तु कभी भी दर्शकों को इतने आक्रामक मूड में मैंने नहीं देखा। ऊबा देने वाली फिल्में बनती रहती है परन्तु दर्शक धीरज से सब सह जाता है और अपनी प्रतिक्रिया सिनेमाघर से बाहर जाते समय करता है परन्तु 'रॉय' में यह काम भीतर ही हुआ। हमारे देश की महान जनता के पास असीमित धीरज है और वे सदियों से अन्याय आधारित समाज में रहते हैं। वे कभी हिंसक आक्रामक नहीं होते- ऐसे ही संस्कार में वे पले हैं। रणबीर कपूर ने अपने बाल सखा के अनुरोध पर मेहमान भूमिका अदा की है परन्तु दर्शक तो उनके नाम के कारण ही फिल्म देखने आया। दरअसलसुपर सितारे को अपने बाल सखा की आर्थिक मदद करना चाहिए परन्तु फिल्म व्यवसाय करोड़ों लोगों से जुड़ा है। बहरहाल वे साहसी और प्रतिभाशाली है तथा इस हादसे से उबर जाएंगे।
परदे के पीछे
जयप्रकाश चौकसे
jpchoukse@dbcorp.in
मेहमान कलाकाररणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल और जैक्लीन की 'रॉय' में दो कहानियां समानांतर चलती हैं। एक कथा रॉय नामक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के युवा चोर की है जिसने कभी कोई सबूत नहीं छोड़ा है। केवल उसकी आंखें एक व्यक्ति ने देखी हैं। एक गुप्तचर रजत वर्षों से उसकी तलाश में है। युवा रॉय का पथ प्रदर्शक एक बूढ़ा घाघ है और एक पेंटिंग के आधे भाग की तलाश है जिसके लिए करोड़ों रुपए मिल सकते हैं। रॉय उसी की तलाश में मलेशिया पहुंचता है और पेंटिंग हथियाने के बाद अपने पथ प्रदर्शक से वापस मांगता है क्योंकि पेंटिंग का शेष भाग बनाने वाली कन्या से वह प्यार करता है। गुरु चेले का द्वंद होता है और युवा जीत कर अपनी प्रेयसी से मिलता है।
दूसरी कथा एक सनकी फिल्मकार की है जो दो चोरी की रोमांचक सफल फिल्में बना चुका है तथा तीसरी के लिए मलेशिया पहुंचा है जहां लंदन में रहने वाली भारतीय युवती भी अपनी फिल्म बनाने आई है और दिलफेंक फिल्मकार उसे अपना शिकार बनाते हुए स्वयं उससे सच्चा प्रेम करने लगता है परन्तु वह उसे समझ चुकी है और रॉय से ही उसे सच्चा प्यार है। बहरहाल इस कथा पर बड़ी आसानी से एक रोमांचक सफल फिल्म बनाई जा सकती थी परन्तु इस फिल्म का निर्देशक अपनी छद्म बौद्धिकता के अहंकार में कठिन समानांतर कहानियाें को और अधिक दुरूह बनाकर प्रस्तुत करता है और दर्शक के लिए धुंध पैदा करता है। रणबी कपूर जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की मेहमान भूमिका को ही रोचक नहीं बना पाया, यहां तक कि उसकी प्रेम कथा जिसके कारण उसने अपराध का मार्ग छोड़ दिया है को भी मनोरंजक दंग से नहीं प्रस्तुत कर पाया। पूरी फिल्म में सनकी फिल्मकार की भूमिका में अर्जुन रामपाल एक ही ऊबाऊ भाव चेहरे पर लिए दर्शक को तलता रहता है। नायिका का भी भरपूर उपयोग नहीं हो पाया। यह बताया गया है कि लेखक फिल्मकार व्यक्तिगत जीवन में मेधावी है परन्तु अगर प्रतिभा सेल्युलाइड को रोशन नहीं कर पाए तो दुख होता है। इस फिल्म के भीतर की फिल्म का निर्देशक पात्र बिना पटकथा लिखेे ही अपने पूरे ताम-झाम के साथ लोकेशन पहुंच जाता है मानो फिल्म बनाना त्वरित दोहा लिखना है। इस तरह का प्रसंग दो बार यथार्थ में हुआ है। चेतन आनंद के पास 'आखरी सच' कहानी थी परन्तु पटकथा उन्होंने एक नन्हे बच्चे के मूड के अनुसार मुंबई में लोकेशन पर ही लिखी थी और इसी तरह 'हकीकत' का भी विचार उनके दिमाग में स्पष्ट था परन्तु दृश्य लोकेशन पर ही उन्होंने अपने मित्र बलराज साहनी के साथ दृश्य लिखे और शूट किए थे। चेतन आनंद सी विलक्षण प्रतिभा कभी-कभी ही उजागर होती थी और 'त्वरित पटकथा' कर प्रयोग उन्होंने फिल्म उद्योग में दो दशक के अनुभव के बाद किया था। इसी तरह राजकपूर ने भी अपने चार दशक के अनुभव के बाद 'राम तेरी गंगा मैली' में किया था परन्तु कथा अवश्य लिखी हुई थी और दृश्य लोकेशन पर लिखे जाते थे।
'रॉय' के एक दृश्य में सहायक बनी शरनाज पटेल निर्देशक अर्जुन से कहती हैं। आखिर आपने फिल्म पूरी कर ली। दर्शक चीखते हैं कि 'बधाई हो, अब तो जाने दो'। निर्देशक पात्र कहता है 'जानें कैसे पूरी हुई' तो दर्शक चीखते हैं। यह तो कोई नहीं बता सकता। मुझे विगत 6 दशकों का फिल्म देखने का अनुभव है परन्तु कभी भी दर्शकों को इतने आक्रामक मूड में मैंने नहीं देखा। ऊबा देने वाली फिल्में बनती रहती है परन्तु दर्शक धीरज से सब सह जाता है और अपनी प्रतिक्रिया सिनेमाघर से बाहर जाते समय करता है परन्तु 'रॉय' में यह काम भीतर ही हुआ। हमारे देश की महान जनता के पास असीमित धीरज है और वे सदियों से अन्याय आधारित समाज में रहते हैं। वे कभी हिंसक आक्रामक नहीं होते- ऐसे ही संस्कार में वे पले हैं। रणबीर कपूर ने अपने बाल सखा के अनुरोध पर मेहमान भूमिका अदा की है परन्तु दर्शक तो उनके नाम के कारण ही फिल्म देखने आया। दरअसलसुपर सितारे को अपने बाल सखा की आर्थिक मदद करना चाहिए परन्तु फिल्म व्यवसाय करोड़ों लोगों से जुड़ा है। बहरहाल वे साहसी और प्रतिभाशाली है तथा इस हादसे से उबर जाएंगे।
परदे के पीछे
जयप्रकाश चौकसे
jpchoukse@dbcorp.in
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