बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे
विनीत कुमार ने आदित्य चोपड़ा की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे पर यह सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्लेषण के नए आधार और आयाम है। चवन्नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्तों में प्रस्तुत है। आज उसका पहला अंश...
-विनीत कुमार
हर सप्ताह ढेर सारी फिल्में रिलीज होती हैं लेकिन उनमे
बमुश्किल ऐसी चीजें होती है जिनसे कि भारतीय कला और संस्कृति का प्रसार हो सके.
हमारी कोशिश होगी कि हम सिनेमा के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सामाजिक मूल्यों
को बढ़ावा दें, ऐसी फिल्मों को हर तरह से प्रोत्साहित करें जिसमे आर्थिक सहयोग भी
शामिल है. हमने इस पर काम करना भी शुरु कर दिया है. दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे
जैसी फिल्म जिसकी कहानी भारत की महान परिवार परंपरा के इर्द-गिर्द ही घूमती है की
हमें और जरूरत है.- मिथिलेश कुमार त्रिपाठी, राष्ट्रीय संयोजक, कला एवं संस्कृति
प्रकोष्ठ, भारतीय जनता पार्टी
1995 में रिलीज हुई फिल्म “दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे” के
संदर्भ में यह कम दिलचस्प वाक्या नहीं है कि साल 2014 में बहुमत की सरकार बनाने जा
रही पार्टी इसे अपनी सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद की राजनीति के न केवल अनुकूल मानती है, आदर्श उदाहरण के रूप में देखती
है बल्कि सिनेमा को लेकर अपनी समझदारी के लिए इसे बतौर घोषणापत्र के रूप में पेश
करती है. ऐसी ही फिल्मों को आर्थिक सहयोग सहित अन्य सभी स्तरों पर प्रोत्साहित करने
की बात करती है. इस आर्थिक सहयोग में यह बात अपने आप शामिल है कि ऐसी फिल्मों के
साथ बाम्बे से लेकर फना जैसी स्थिति कभीपैदा नहीं की जाएगी. एक तरह से भविष्य में पूर्ण बहुमतवाली सरकार और
लोकतंत्र के बीच दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे जैसी फिल्में बनती हैं तो उन्हें उन
सभी स्तरों पर संरक्षण प्राप्त होंगे, जिनके अभाव में कई दूसरी फिल्में दर्शकों की
पसंद-नापसंद की प्रक्रिया से गुजरे बिना ही अंतिम निर्णय यानी प्रतिबंध तक पहुंचा
दी जाती है. बहरहाल..
इस दिलचस्प वाक्ये के साथ उतना ही दिलचस्प सवाल है कि क्या “दिलवाले
दुल्हनियां ले जाएंगे” एक ऐसी फिल्म है जो भाजपा की दक्षिणपंथी सांस्कृतिक
राष्ट्रवादी रुझानों को तुष्ट करती है और 18 साल की उम्र पार कर चुकी इस फिल्म पर
इस बयान के बाद यह कम खतरा नहीं है कि आगे इसे इसी रूप में विश्लेषित किया जाएगा ? इस
फिल्म से एक-एक करके ऐसे रेशे निकाले जाएंगे जिसका कि समय-समय पर बीजेपी ने अपनी
घोषणापत्र में और इनके प्रवक्ता ने अलग-अलग संदर्भ मसलन परिवार, विवाह, प्रेम,
संस्कृति और समाज को लेकर जो कुछ कहा है, मिलान किया जाएगा. ऐसा होता है तो बीजेपी
के लिए फिर भी सुविधाजनक स्थिति होगी कि उसे बिना किसी लागत, मेहनत और रचनात्मक
स्तर पर संघर्ष किए एक ऐसी फिल्म मिल जाएगी जिसकी लोकप्रियता देश और दुनियाभर में
कई स्तरों पर निर्धारित मानकों को लांघ जाती है. लेकिन इस फिल्म के लिए यह कम
बिडंबनापूर्ण स्थिति नहीं होगी कि जो बात यह बेहद तरलता की स्थिति तक लाकर दर्शकों
को संप्रेषित करती है, उनका विश्लेषण बेहद ही शुष्क और बयानों की शक्ल में कर दिया
जाएगा जिसका कि इस फिल्म से सीधा-सीधा नाता न भी रहा हो.
लेकिन यह भी है कि ठीक लोकसभा
चुनाव 2014 के परिणाम घोषित होने के चौबीस घंटे के भीतर ही बहुमत की सरकार बनाने
जा रही पार्टी बीजेपी के कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ के संयोजक ने सिनेमा संबंधी
अपनी रणनीति को लेकर इस फिल्म को जिस रूप में शामिल किया, कम से कम सिनेमा और
पब्लिक स्फीयर के संदर्भ में इसे काटकर नहीं देखा सकता है. यहां बीजेपी की सिनेमा
संबंधी रणनीति, सिनेमा के माध्यम से राष्ट्रवाद, संस्कार और मूल्योंका प्रसार
संबंधी परिवर्तनकामी दृष्टिकोण के विस्तार में न भी जाएं और फिलहाल सिर्फ इसकी इस
सिरे से चर्चा करें कि आखिर एक ऐसी फिल्म जो न केवल बनाए जाने की नीयत में विशुद्ध
लव स्टोरी है जिसकी चर्चा न केवल दर्जनों फिल्म समीक्षकों द्वारा बार-बार की जाती
रही है बल्कि स्वभाव से बेहद संकोची औरफिल्म की अपार सफलता के बावजूदइंटरव्यू के
नाम पर मीडिया के आगे शर्माते रहे स्वयं फिल्म के निर्देशक आदित्य चोपड़ा द्वारा
भी इसके केन्द्र में लव स्टोरी ही बताया जाता है और दर्शक-प्रभाव तो इसी रूप में
हैं ही फिर इसमे ऐसा क्या है कि बीजेपी इसे आदर्श फिल्म के रूप में देखती है,
आगामी फिल्म के लिए नमूना मानती है ? क्या बीजेपी प्रेम और
प्रेम कहानी को लेकर उसी रूप में उदार है जैसा कि फिल्म के अंत तक आते-आते चौधरी
बलदेव सिंह( सिमरन के पिता) हो जाते हैं जिन्हें अपनी पारिवारिक परंपरा और
संस्कारों के आगे इस बात पर ज्यादा गहरा यकीन होता है किउसकी बेटी को“इस
लड़के( राज) से ज्यादा और कोई प्यार नहीं कर सकता.”दिलवाले
दुल्हनियां ले जाएंगे अगर बीजेपी के लिए आदर्श फिल्म का नमूना है तो इसका मतलब है
कि वो न केवल सिनेमा में बल्कि समाज में भी प्रेम को भी उसी रूप में स्वीकार करती
है, उसे प्रोत्साहित करती है और उसकी इच्छा है कि ऐसी फिल्में युवाओं के बीच प्रेम
को जीवन का अंतिम सत्य( मानुष प्रेम भए बैकुंठी) के रूप में प्रस्तावित करे. ऐसा
सचमुच है क्या ?
यदि ऐसा होता तो इस फिल्म के रिलीज होने के बारह साल बाद परोमिता बोहरा को “मोरलिटी
टीवी एंड द लविंग जिहाद” जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाने की जरूरत नहीं पड़ती.
मेरठ के पार्क में अपनी भावनाओं का इजहार कर रहे प्रेमी युगल को पुलिस जितनी
बेरहमी से डंडे मारकर भगाती है, मीडिया जिनमे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों शामिल
हैं, जिस बेहयापन के साथ इस पर अश्लीलता का मुल्लमा चढ़ाने के लिए तत्पर होता है,
उतने ही अमानवीय होकर बजरंग दल जैसे संस्कृति रक्षक इन पर टूट पड़ते हैं. वो इन पर
हमला करके, इन्हें कुचलकर संस्कृति और भारतीय परंपरा हो हर हाल में बचाना चाहते
हैं..बजरंग दल जैसे संस्कृति रक्षक की दमन की हद तक “मोरेल
पुलिसिंग” सिर्फ वेलेंटाइन डे या किसी एक सिनेमा को लेकर स्थिर
नहीं हो जाती बल्कि सेंसर बोर्ड, संबंधित संस्थाओं की ओर से अनुमोदित कर दिए जाने
के बावजूद रूटीन वर्क के रुप में जारी रहती है. यह सच है कि तकनीकी रूप से बीजेपी
को बजरंग, शिव सेना या राम सेना जैसे संगठन और पार्टी का पर्याय के रूप में नहीं
देखा जा सकता( समय-समय पर पार्टी स्वयं इससे अपने को अलग करती आयी है) लेकिन
संस्कृति,परंपरा, प्रेम और स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर जो नजरिया इनका है,
बीजेपी ने उससे कोई अलग उदाहरण पेश नहीं किया है. मिथिलेश कुमार त्रिपाठी ने सिनेमा
और संस्कृति को लेकर जो बयान दिया, उसके बाद द संडे गार्जियन में तनुल ठाकुर को जो
इंटरव्यू दिया, उसमे भी स्पष्ट है कि ट्रीटमेंट के स्तर पर भले ही पार्टी की
मुलायमियत होगी और वो बजरंग दल या शिव सेना जैसा कुछ नहीं करेगी लेकिन जिस सिनेमा
ने सामाजिक मूल्यों का ह्रास करने, पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने का काम किया
है, इसे दुरुस्त किया जाएगा और युवाओं को हर हाल में शिक्षित किया जाएगा कि कौन सी
फिल्म उनके लिए बेहतर है और कौन सी नहीं. खैर वापस डीडीएलजे की लव स्टोरी और
बीजेपी द्वारा इसे आदर्श सिनेमा बनाए जाने की तरफ लौंटें....
क्या सीधे-सीधे ये कहा जा सकता है कि बीजेपी को डीडीएलजे की प्रेम कहानी से
कोई लेना-देना नहीं है बल्कि इस प्रेम कहानी के इर्द-गिर्द जो संरचना खड़ी होती
है, उसका मोह उनके प्रति ज्यादा है. ये संरचना कहानी के बढ़ने के साथ ध्वस्त होने
की आशंका और फिर आगे चलकर संरक्षित रह जाने के जश्न के बीच की है. सतही तौर पर ही
सही लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये एक ऐसी कहानी है जिसका गाढ़ापन प्रेम
को लेकर है लेकिन जिसकी पूरी शर्तें परिवार को बचाए रखने की है और ऐसे में ये
शर्तें स्थायित्व को मूल्य के रूप में प्रस्तावित करती है. पूरी फिल्म में इस
स्थायित्व के कई संस्करण बनते नजर आते हैं और जिसकी शुरुआत राज और सिमरन की प्रेम
कहानी शुरु होने से पहले ही हो जाती है जहां राज अपने बिंदास और खुलेपन स्वभाव के
बीच सिमरन के आगे स्वीकार करता है कि उसे अफयेर तो कई लड़कियों के साथ हुआ है
लेकिन जिंदगी में प्यार पहली बार हुआ है.
जाहिर है इस प्यार को स्थायित्व तभी मिलेगा जबकि इसे शादी की शक्ल दी जाए
और विवाह संस्था में यकीन रखने का मतलब है परिवार की उस नींव को और मजबूती देना
जिसकी कामना भारतीय समाज में की जाती रही है. प्रेम की अंतिम परिणति विवाह है,
पूरी फिल्म इसे जिस तरलता के साथ स्थापित करती है, उससे एक ही साथ दर्शकों को अपने
से बांधने और स्थायित्व को मूल्य के रुप में प्रस्तावित करने का काम साथ-साथ हो
जाता है. 1995 का वह भारतीय समाज जहां प्रेम और प्रेम विवाह की स्वीकार्यता
मध्यवर्ग तक एक सामान्य घटना के रूप में स्वीकृत नहीं हुई हो, जो कि इसके बिना पर “ऑनर
किलिंग” जैसे लेबल के साथ हत्या तक जा पहुंचती हो, ऐसे में प्रेम
विवाह को पारंपरिक/एरेंज मैरेज की शक्ल में परिवर्तित करना, परस्पर विरोधी
मिजाज के अभिभावकों के लिए स्वीकार्य बनाना, कम युगांतकारी कदम नहीं माना जाएगा.
शायद यही कारण है कि जो राज बीयर जैसी मामूली चीज के लिए अपने भावी ससुर से
हिन्दुस्तानी होकर इंग्लैंड की जमीन पर झूठ बोलता है वही राज अपने इस प्रेम को
एरेंज मैरिज की शक्ल तक इंतजार करने की स्थिति तक आते-आते पंजाब की जमीन पर अपना
लिया जाता है. एरेंज मैरिज का मतलब प्रेम में भले ही वो मिजाज से मजनूं हो जाए
लेकिन संस्कार से दामाद के रुप में स्वीकार न कर लिए जाने तक सबकुछ बर्दाश्त
करेगा, वह इसके लिए उन अभिभावकों के विरोध में नहीं जाएगा जिसने उसके प्रेम( यहां
सिमरन) को पाल-पोसकर बढ़ा किया है. आदित्य चोपड़ा भी निजी तौर पर यही मानते हैं.
क्रमश:
मूलतः प्रकाशित- संवेद, सिनेमा विशेषांक 2014
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