बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 3
विनीत
कुमार ने आदित्य चोपड़ा की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे पर यह
सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्लेषण के नए आधार और आयाम है।
चवन्नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्तों में प्रस्तुत है। आज उसका तीसरा और आखिरी अंश...
फेल होना और पढ़ाई न करना हमारे खानदान की परंपरा है..भटिंडा का भागा लंदन
में मिलिनयर हो गया है लेकिन मेरी जवानी कब आयी और चली गयी, पता न चला..मैं ये सब
इसलिए कर रहा हूं ताकि तू वो सब कर सके जो मैं नहीं कर सका..- राज के पिता
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मुझे भी तो दिखा, क्या लिखा है तूने डायरी में. मुझसे छिपाती है, बेटी के
बड़ी हो जाने पर मां उसकी मां नहीं रह जाती. सहेली हो जाती है- सिमरन की मां.
फिल्म के बड़े हिस्से तक सिमरन की मां उसके साथ वास्तव में एक दोस्त जैसा
व्यवहार करती है, उसकी हमराज है लेकिन बात जब परिवार की इज्जत और परंपरा के
निर्वाह पर आ जाती है तो “मेरे भरोसे की लाज रखना”
जैसे अतिभावनात्मक ट्रीटमेंट की तरफ मुड़ जाता है. ऐसा कहने औऱ व्यवहार करने में
एक हद तक पश्चाताप है लेकिन नियति के आगे इसे स्वाभाविक रूप देने की कोशिश भी.
पहले मुझे लगता था औरत औऱ मर्द में कोई अंतर नहीं होता है. बड़ी होती गई तो
लगा कितना बड़ा झूठ है. औरत को वादा करने का भी हक नहीं है. – सिमरन की मां.
हृदय परिवर्तन का यह चक्र राज के पिता के मामले में बिल्कुल आखिर में दिखाई
देता है. जो राज से बिल्कुल अलग सिमरन को बिना शादी के ले जाने में यकीन रखते हैं
लेकिन राज की इस बात से आगे चलकर सहमत होते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं है. इन सबके
बीच सिमरन का सीधे-सीधे कहीं भी हृदय तो नहीं होता बल्कि इन सबके बीच वो अकेली ऐसी
चरित्र है जिसका कि परिवेश और परिस्थितियों के बदलते जाने के अनुरूप ही व्यवहार और
सोच के स्तर पर बदलाव आते जाते हैं. हम दर्शकों को ये कहीं ज्यादा स्वाभाविक लगता
है लेकिन गौर करें तो बाकी चरित्रों का हृदय परिवर्तन और सिमरन का स्वाभाविक स्तर पर दिखता बदलाव दरअसल
सारे संदर्भों को उस एकरेखीय दिशा की ओर ले जाने की कोशिश है जिससे कि स्थायित्व
को एक मूल्य के रूप में प्रस्तावित किया जा सके.
इधर मिथिलेश कुमार त्रिपाठी के बयान और 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए की गई
केम्पेनिंग पर गौर करें तो पूरा जोर स्थितियों में बदलाव से कहीं ज्यादा हृदय
परिवर्तन को लेकर है. होने और महसूस करने के बीच की रेखा को पाटने से है. त्रिपाठी
जहां ये मानते हैं कि युवाओं को ये समझाया जाना बेहद जरूरी है कि कौन सा सिनेमा
उनके लिए बेहतर और जिससे कि सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का विकास हो सकेगा तो
एक तरह से हृदय परिवर्तन के प्रति यकीन जाहिर कर रहे होते हैं कि जो परिवेश
निर्मित है और जिन परिस्थितियों के साथ युवा इन सबसे जुड़ा है, इससे कटकर तेजी से
बदलने शुरु हो जाएंगे. फर्क सिर्फ इतना है कि फिल्म में जहां सबकुछ भावनात्मक और
बहुत हुआ तो परिवार की लाज की दुहाई देकर किया गया, सरकार ये काम राजनीतिक स्तर पर
करेगी. इसी क्रम में अगर “अच्छे दिन आनेवाले हैं” की
पैकेजिंग शामिल कर लें तो नागरिक के बीच से सिरे से उस राजनीतिक तर्क को गायब कर
देना है जिससे तहत वो पूरी प्रक्रिया को समझना चाहती है. प्रक्रिया का लोप सिनेमा
में भी है और बहुमत की इस सरकार में भी शायद यही कारण है कि यह बीजेपी के लिए
आदर्श सिनेमा का नमूना बन पाती है. नम्रता जोशी शाहरूख खान पर स्वतंत्र रूप से
लिखते हुए इस फिल्म के संदर्भ में यह बात विशेष रूप से रेखांकित करती है कि यह
फिल्म जाति और दूसरे उन सर्किट के साथ छेड़छाड़ नहीं करती जो कि आमतौर पर प्रेम
कहानियों में हुआ करते हैं तो इसका एक आशय यह भी है कि सिनेमा उस प्रक्रिया का
सिरे से लोप कर देती है जहां परस्पर विरोधी तत्वों के टकराने और उनके बीच भारतीय
परंपरा एवं संस्कार के फॉर्मूले को फिट करने में भारी दिक्कत होती. यही पर आकर ये
फिल्म कथानक के लगातार धाराप्रवाह प्रसार के बावजूद सामाजिक संदर्भों के स्तर पर न
केवल सपाट लगने लग जाती है बल्कि उस सुविधाजनक परिवेश की निर्मिति की तरफ बढ़ती
जान पड़ती है जिनसे निम्न मध्यवर्ग और काफी हद तक मध्यवर्ग को टकराए बिना प्रेम की
तरफ बढ़ना संभव ही नहीं है. इनमे जाति, सामाजिक अन्तर्विरोधों के साथ-साथ साधन के स्तर
की जद्दोजहद भी शामिल है. ये फिल्म लगभग इन सबसे मुक्त है बल्कि जिस तरह से अंत
में चौधरी बलदेव सिंह का हृदय परिवर्तन होता है, खलनायक से भी मुक्त फिल्म बन जाती
है. स्वाभाविक भी है कि जब पूरा जोर सारे संदर्भों को एकरेखीय करने की हो तो फिर
खलनायक के होने की संभावना अपने आप ही खत्म हो जाती है..इस खलनायक को दूसरे हल्के
संस्करण विरोधी के रूप में देखें तो भी
शून्य की ही स्थिति बनेगी.
यहां तक तो एक स्थिति साफ बनती दिखाई देती है कि प्रेम कहानी के भीतर भी
पारिवारिक ढांचे को बचाए जाने, विवाह संस्था में गहरा यकीन रखने और भौगोलिक स्तर
पर हिन्दुस्तान से दूर रहने के बावजूद, परिस्थितियों के बदलते जाने पर भी
नास्टैल्जिया के तहत ही सही मिट्टी से गहरा लगाव रखने संबंधी जो संदर्भ इस फिल्म
में शामिल किए गए वो हमारी मौजूदा बहुमत सरकार की सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राजनीति
के एजेंड़े के बेहद अनुकूल है..लेकिन इसके अलावा जो दो और कारण है इसे संक्षेप में
ही सही देखा जाना चाहिए. एक तो राज मल्होत्रा जैसे एक ऐसे चरित्र का होना जिसकी
मौजूदगी और संवाद राजनीति के इस रूप के प्रति लोगों को बिना मोरेल पुलिसिंग के
भावनात्मक स्तर पर जुड़ने के लिए प्रेरित करती जान पड़ती है. ये अलग बात है कि इसी
से प्रेरित होकर जब दूसरे के लिए मोरेल पुलिसिंग का काम शुरु होता है तो वो
पितृसत्ता की उसी जकड़बंदी में जाकर छटपटाने लगती है, जैसा कि दक्षिणपंथी राजनीति
के व्यावहारिक प्रयोग में बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं. हमने पहले भी कहा
कि इस फिल्म में राज एक ऐसा चरित्र है जो सेल्फ ट्यून्ड है जिसे अलग से बताने की
जरूरत नहीं पड़ती कि स्विटरजरलैंड की जमीन पर अकेली लड़की के साथ रात गुजारने पर
क्या नहीं करनी चाहिए ?
“मैं
एक हिन्दुस्तानी हूं और जानता हूं कि एक हिन्दुस्तानी लड़की की इज्जत क्या होती
है.”- राज
पूरी फिल्म में प्रेम के दौरान सेक्स के आसपास के दृश्य कहीं नहीं है और
जहां इसकी संभावना बनती दिखाई भी देती है तो उसे या तो गर्दन के छूम लेने को ही
परिणति के रूप में अंतिम रूप दे दिया जाता है या फिर इसकी संभावना को एक
हिन्दुस्तानी लड़की का शादी के पहले तक, हिन्दुस्तानी लड़के द्वारा रक्षा करने के
घोषित कर्तव्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है. ये वो मूल्य हैं जो पूरी
फिल्म को एक ही साथ पारिवारिक और राज जैसे चरित्र को गृहास्थिक भारतीय के रूप में
स्थापित करती है. ये वो मासूम चरित्र है जो जीवन में अफेयर चाहे जितनी बार कर ले,
प्यार अपनी इच्छा से कर लेकिन बाकी सबकुछ अभिभावक की सहमति और विधान के बाहर जाकर
नहीं करेगा. हां ये जरूर है कि इसी बीच जब आप फिल्म के इस गाने “जरा
सा झूम लू मैं, न रे बाबा न, आ तुझे चूम लूं मैं” की
पंक्तियों पर गौर करते हैं तो लगता है कि स्वाभाविक इच्छा और संस्कार के बीच एक
अजीब की रस्साकशी लगातार चल रही है और इन सबके बीच सिमरन “मैं
चली बनके हवा” गाते हुए एक ऐसी लड़की हो जाती है जिसके लिए “मेंहदी
लगा के रखना, डोली सजा के रखना, लेने तूझे ओ गोरी, आएंगे तेरा सजना”
गाना ज्यादती है. तब आप इस सिरे से भी सोच सकते हैं कि क्या एक महीने के लिए
स्विटरजरलैंड की सिमरन की अवधि बढ़ा दी जाती तो वो हाइवे( 2014) की वीरा हो जाती.
वो वीरा जिसकी हाइवे पर वक्त बिताने की इच्छा कुछ और सेकण्ड बिताने की है, मिनट और
घंटे की भी नहीं..सिमरन के लिए महीने की अवधि बढ़ाए जाने की सद्इच्छा और वीरा की
चंद सेकण्ड हाइवे की हवा के बीच बिताने की इच्छा क्या दो अलग-अलग समयगत परिवेश का
सच है या फिर उस दृष्टिकोण का जिसके अठारह साल बीत जाने के बावजूद बहुमत की सरकार
वहीं से आदर्श सिनेमा के तत्व खोजती है, 2014 की इस फिल्म से नहीं ?
देने को दलील दी जा सकती है कि ऐसा होने से प्रेम का बेहद ही “लिमिटेड
वर्जन” और वो भी संपादित रूप हमारे सामने उभरकर आता है लेकिन
यही तो वो तत्व है जोइनके लिए इस फिल्म को प्रेम कहानी के
होने के बावजूद परिवार के इर्द-गिर्द, उसके सदस्यों के बीच का बनाती है..आप चाहें
तो इसे प्रेम में सामाजिकता की स्थापना कह सकते हैं जबकि इस सामाजिकता के बीच ही “ बन
के हवा” चलने की सिमरन की चाहत गायब हो जाती है. दरअसल प्रेम के
इस रूप को फिल्म इतनी जूम इन करके फैलाती है कि उसके भीतर बाकी की चीजें खासकर जो
सिमरन के सिरे से मैगनिफाई करके देखे जाने की जरूरत है, धुंधली या गायब हो जाती है
जबकि वीरा उसे अठारह साल बाद शिद्दत से सहेजने लग जाती है. बन के हवा की आशंका का
शमन एक और बड़ा कारण है जो फिल्मों की अंबार के बीच मिथिलेश कुमार त्रिपाठी को
उदाहरण के रूप में याद रह जाता है.
एक तो ये स्थिति है जहां राज और उसके बहाने घूमनेवाली पूरी कहानी बहुमत की
सरकार की सांस्कृति राष्ट्रवाद के घोषणपत्र के रूप में काम करती जान पड़ती है
लेकिन दूसरी स्थिति इस फिल्म का वो परिवेश और स्वयं राज मल्होत्रा का वो “ब्रांड
कॉन्शस” अंदाज है जो कि सरकार की आर्थिक नीति के लिए सांकेतिक
रूप में ही सही आदर्श बनकर आते हैं. सांस्कृतिक अध्ययन पद्धति के इस तर्क में न भी
जाएं कि संस्कृति कोई स्थिर या जड़ चीज नहीं है बल्कि जीवन प्रवाह का हिस्सा है
जिसका निर्धारण जीवन सापेक्ष है तो भी ये सवाल बचा रह जाता है कि इंग्लैंड और
स्विटजरलैंड में हिन्दुस्तानी दिल लेकर घूमते रहने के बावजूद क्या ये संभव है कि
हम इसी इरादे के साथ स्वदेशी वस्तुओं और संसाधनों के बीच घूमे ?
मूलतः प्रकाशित- संवेद, सिनेमा विशेषांक 2014
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