बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 2
विनीत
कुमार ने आदित्य चोपड़ा की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे पर यह
सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्लेषण के नए आधार और आयाम है।
चवन्नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्तों में प्रस्तुत है। आज उसका दूसरा अंश...
-विनीत कुमार
ऐसा करके फिल्म ये दर्शकों का एक तरह से विरेचन करती है कि प्रेम तो अपनी
जगह पर ठीक है लेकिन उस प्यार को हासिल करके आखिर क्या हो जाएगा जिसकी स्वीकृति
अभिभावक से न मिल जाए.( छार उठाए लिन्हीं एक मुठी, दीन्हीं उठाय पृथ्वी झूठी) इस संदर्भ को फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी इस रूप
में विश्लेषित करती है कि ये फिल्म दरअसल इसी बहाने दो अलग-अलग मिजाज,रुझान और
पृष्ठभूमि की पीढ़ी के बीच सेतु का काम करती है. यही पर आकर पूरी फिल्म लव स्टोरी
होते हुए भी प्रेमी-प्रेमिका का अभिभावकों के साथ निगोसिएशन की ज्यादा जान पड़ती
है और इसी निगोएसिशन के बीच जो स्थितियां और संदर्भ बनते हैं वो अपनी बहुमत की सरकार
के आदर्श सिनेमा की परिभाषा के बेहद करीब जान पड़ती है और तब राज वह युवा नहीं रह
जाता जिसे अलग से संस्कारित करने की जरूरत रह जाती है बल्कि वह ऐसे नायक के रूप
में सामने होता है जो सेल्फ ट्यून्ड है-
“मैं
तुम्हें यहां से भगाकर या चुराकर लेने नहीं आया हूं. मेरी पैदाईश भले ही इंग्लैंड
में हुई हो लेकिन हूं हिन्दुस्तानी, मैं तुम्हें दुल्हन बनाकर लेने आया हूं”
सिमरन से राज का कहा गया ये संवाद असल में उस हर हिन्दुस्तानी का वक्तव्य
है जो कि “फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी” की
समझदारी के साथ जीता है. ये वो कमिटमेंट है जो मुल्क परिवेश और परिस्थितियों के
बदल जाने की स्थिति में भी बरकरार रहते हैं. लगातार बदलती स्थितियों और परिवेश के
बीच भी जो चीजें नहीं बदलती, जिनमे स्थायित्व बरककार रहता है, वह भारतीय होने का
मजबूत सबूत है, फिल्म इसे तत्परता के साथ स्थापित करती चलती है. हां, ये जरूर है
कि सांस्कृतिक अध्ययन पद्धति के हिसाब से कोई इस फिल्म का अध्ययन करना चाहे तो कई
स्तरों पर फैले झोल अपने-आप सामने चले आते जाएंगे. इधर राज की ओर से कहें गए ऐसे
संवादों की पूरी श्रृंखला है जिसका अगर स्वतंत्र अध्ययन किया जाए तो लगेगा कि ये
फिल्म प्रवासी भारतीय की घोषणापत्र है. एक प्रवासी भारतीय को किस मानसिक बुनावट के
साथ अपनी जिंदगी जीनी चाहिए, उसका खांका इस फिल्म में शामिल है. वैसे तो फिल्म की
ओपनिंग शॉट्स से गौर करना शुरु करें जहां एक भारतीय मुल्क का व्यापारी चौधरी बलदेव
सिंह पिछले 22 सालों से लंदन की जमीन पर दूकान चला रहे हैं उतने ही समय से दूकान
खोलते ही केले में खोंसकर अगरबत्ती जलाने का काम कर रहे हैं, दर्शकों को बताने के
लिए काफी है कि एक भारतीय होने का क्या अर्थ होता है..कैसे कुछ चीजें चाम के साथ
इस तरह जुड़ी होती है कि आप इससे अपने को अलग नहीं कर सकते. इसके साथ ही अपने को
परिभाषित करने के क्रम में अपने देश से कट जाने की कसक इस भारतीय को नास्टैल्जिया
की तरफ ले जाती है, वो इस बात का संकेतक है कि अगर स्थायित्व न भी बचा सकें तो
नास्टैल्जिया ही वो चीज है जिससे परिस्थिति और स्थायित्व के बीच की दरार को पाटा
जा सकता है. लेकिन लंदन की इसी जमीन पर बिंदास जी रहा राज जिसे इन्टरवल के पहले तक
आप भारतीय कहकर दांव नहीं लगा सकते, वो चौधरी बलदेव सिंह की वायनरी बनकर भी कहीं
ज्यादा भारतीय होने का सबूत पेश कर जाता है.चौधरी बलदेव सिंह के साथ-साथ धर्मवीर
मल्होत्रा( राज के पिता) इसी स्थायित्व के लिए अपने बेटे को वो जिंदगी जीने के लिए
प्रोत्साहित करते हैं, जिससे वे खुद वंचित रह गए. मजाक में ही सही लेकिन ये कम
दिलचस्प नहीं है कि वो इसके लिए अपने पुश्तों के अनपढ़ और फेल हो जाने को अपने
परिवार की परंपरा का हिस्सा मानकर ऐसा करने पर राज को शाबाशी तक देते हैं..इस
नाकारात्मकता में स्थायित्व का अतिरेक तो है लेकिन ऐसे कई प्रसंग इस फिल्म में
शामिल हैं जिसकी दिशा बदले जाने या उघाड़ने से शायद इतनी स्वीकार्य नहीं हो पाती
और न ही इस बहुमत की सरकार के लिए आदर्श बन पाती जितनी की अब है. ध्यान रहे, ये सब
फिलहाल फिल्म द्वारा कुछ संकेतों और संवादों के इर्द-गिर्द फिक्स कर दिए जाने को
लेकर है, बात बिल्कुल वैसी ही है या नहीं, इस पर आगे....
इस तरह स्थायित्व का भाव तो है कि जो मौजूदा बहुमत की सरकार को आकर्षित
करती है लेकिन इससे कहीं ज्यादा दूसरा भाव हृदय परिवर्तन का है. इस पूरी फिल्म में
हृदय परिवर्तन फिल्म की अन्तर्कथा के रूप में हर थोड़ी दूर जाने के बाद मौजूद है.
उपरी तौर पर यह एक अन्तर्विरोध के रूप में दिखाई देता है कि एक तरफ तो
परिस्थितियों,परिवेश और स्थितियों के बदले जाने के बावजूद भी स्थायित्व मूल भाव के
रूप में बल्कि मूल्य के रूप में मौजूद है तो फिर दूसरी तरफ व्यक्ति/चरित्र
के स्तर पर हृदय परिवर्तन कैसे संभव है ? लेकिन इसकी प्रक्रिया
में उतरते ही बहुत स्पष्ट हो जाता है कि ये हृदय परिवर्तन भी दरअसल उसी स्थायित्व
को हासिल करने या बनाए रखने के लिए है. दिलचस्प है कि इसमे इतनी अधिक विविधता और
बारीकी है कि सबकुछ हमें बेहद स्वाभाविक लगता है और कमोवेश ये लगभग सभी प्रमुख
चरित्रों को लेकर है.
चौधरी बलदेव सिंह का हृदय परिवर्तन हमें बहुत साफ दिखाई देता है. भारतीय
होने के प्रमाणों के साथ अपने संस्कारों और उसूलों के प्रति प्रतिबद्ध शख्स का
हृदय परिवर्तन मानवीयता की उस छौंक से शुरु होती है जहां निर्धारित समय पर दूकान
बंद करने के बाद कुछ भी नहीं बेच सकते लेकिन सिरदर्द होने पर उसी राज को दवाई दे
सकते हैं..सुरक्षा और संस्कार के सींकचे से सिमरन को कभी बाहर नहीं जाने देनेवाला
ये पिता अपनी बेटी की भगवत-भक्ति से प्रसन्न और निश्चिंत होकर महीने भर के लिए
स्वीटजरलैंड की ट्रिप के लिए भेज सकता है. पूरी फिल्म में ये हृदय परिवर्तन इस
बारीकी से की गई है कि खुलेपन की तरफ तेजी से बढ़ता दर्शक इस आदर्श भारतीय की जिद
के आगे उसके संस्कारों को नजरअंदाज न कर दे ऐसे में जहां-जहां इसकी आशंका दिखाई
देती है, उसके पहले ही हृदय परिवर्तन अनुकूलन पैदा करने के लिए कर दिया जाता है.
लेकिन सिमरन की मां का हृदय परिवर्तन या कहें तो व्यवहार इससे ठीक विपरीत है.
सिमरन की मां और राज के पिता फिल्म के शुरुआती हिस्से में लगभग एक ही ध्रुव पर
दिखाई देते हैं कि जो बिंदास और खुलेपन की जिंदगी जीने से महरूम रह गए, वो जिंदगी
अपने बच्चों को देंगे.
क्रमश:
मूलतः प्रकाशित- संवेद, सिनेमा विशेषांक 2014
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