दरअसल : मल्टीप्लेक्स के महाजाल का शिकंजा
देश में मल्टीप्लेक्स संस्कृति के विकास से यकीनन
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को फायदा हुआ है। आरंभ से ही उनके लक्षण दिखने लगे थे।
खासकर निर्माताओं को लाभ हुआ था। उन्हें कलेक्शन की सही रिपोर्ट मिलने लगी और समय
पर उनके पैसे भी खातों में जमा होने लगे। वितरण में एक पारदर्शिता आई। साथ ही
मल्टीप्लेक्स की तकनीकी सुविधाओं एवं साफ-सफाई सुरक्षा से दर्शक भी बढ़े।
धीरे-धीरे पूरे देश में मल्टीप्लेक्स के चेन विकसित हुए। अभी पीवीआर के सबसे
ज्यादा मल्टीप्लेक्स थिएटर और स्क्रीन हैं। इसी प्रकार आइनॉक्स, बिग सिनेमा और फन सिनेमा ने भी अपना विस्तार किया है। इनके
अलावा तकरीबन 45-50 मल्टीप्लेक्स हैं, जिनके पास 3 या 3 से ज्यादा स्क्रीन हैं। उसके एक मल्टीप्लेक्स में 7 स्क्रीन तक होते हैं।
मल्टीप्लेक्स की इस बढ़त से वितरक और प्रदर्शकों का
महाजाल नए रूप में उभरा है। पारंपरिक वितरक और प्रदर्शक भी अब मल्टीप्लेक्स
मालिकों और मैनेजरों पर निर्भर करने लगे हैं। इनमें से कुछ मल्टीप्लेक्स स्वंय ही
वितरक बन गए हैं। वे फिल्मों के प्रदर्शन और वितरण के लाभ का शेयर भी ले रहे हैं।
धीरे-धीरे स्थिति यह बनती जा रही है कि अगर मल्टीप्लेक्स चेन किसी कारण से न चाहें
तो बड़ी से बड़ी फिल्में दर्शकों तक न पहुंच सकें। सुविधा और सहूलियत के लिए
मल्टीप्लेक्स पर बढ़ी निर्माताओं की निर्भरता ही अब अपना स्याह पक्ष दिखा रही है।
उनके महाजाल में सभी फंस रहे हैं।
पिछले दिनों एक निर्माता-निर्देशक मिले। उन्होंने भी
छोटी फिल्मों के निर्माण में रुचि ली है। नई प्रतिभाओं और अपेक्षाकृत कम पॉपुलर
कलाकारों को लेकर कंटेंट प्रधान फिल्म बनाई है। इस फिल्म के प्रदर्शन और प्रचार
में आई दिक्कतों से सबक लेकर वह असमंजस में है कि भविष्य में छोटी फिल्मों का
निर्माण करें या नहीं? बड़ी फिल्मों को कोई दिक्कत
नहीं होती। पॉपुलर स्टार की वजह से उसकी मांग रहती है। मल्टीप्लेक्स मालिक और
मैनेजर वैसी फिल्मों के निर्माताओं को हर लिहाज से खुश और संतुष्ट रखते हैं, लेकिन उक्त निर्माताओं की ही छोटी फिल्में आती हैं तो
मल्टीप्लेक्स के मालिकों और मैनेजरों का रवैया बदल जाता है। किस्सा यूं है कि
मल्टीप्लेक्स थिएटर छोटी फिल्मों के ट्रेलर चलाने के भी पैसे लेने लगे हैं। पैसे
और व्यापार में कोई बुराई नहीं है, लेकिन पता चला है कि पैसे
लेने के बावजूद वे छोटी फिल्मों के ट्रेलर नहीं चलाते। सीमित बजट में छोटी फिल्म
लेकर आ रहा निर्माता हर थिएटर में अपने आदमी भेज कर यह पड़ताल नहीं कर सकता कि
उसका ट्रेलर चल रहा है या नहीं? अफसोस की बात है कि ऐसी
घपलेबाजी सामने लाने पर मल्टीप्लेक्स के मैनेजर माफी मांग कर डील की इतिश्री समझ
लेते हैं।
पिछले साल नवंबर में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की फिल्म
‘जेड प्लस’ रिलीज हुई। इसे एक समझौते के
तहत पीवीआर ने रिलीज किया था। छोटी फिल्म होने की वजह से पीवीआर ने अपने थिएटर में
भी उसे स्क्रीनिंग की सही टाइमिंग नहीं दी। या तो सुबह या देर रात या फिर दोपहर के
असुविधाजनक समय में प्रदर्शित इस फिल्म को अनेक दर्शक चाह कर भी नहीं देख सके। शो
टाइमिंग की गड़बड़ी के अलावा यहां भी पता चला कि दिल्ली जैसे शहर के मल्टीप्लेक्स
में तो फिल्म के पोस्टर तक नहीं लगे थे। अगर मल्टीप्लेक्स यह बताएगा ही नहीं कि उस
थिएटर में कौन-कौन सी फिल्म लग है तो दर्शकों को क्या इल्हाम होगा कि वे कौन-कौन
सी फिल्म देखें? समझौते और वादे के बावजूद
मल्टीप्लेक्स चौकसी नहीं रखते और छोटी फिल्मों की अकाल मौत हो जाती है।
पिछले साल के अंत में प्रदर्शित अनुराग कश्यप की ‘अग्ली’ का भी कमोबेश यही हाल रहा।
इस फिल्म को भी अच्छे शो नहीं मिले। नतीजा सबके सामने हैं। होनहार निर्देशक अनुराग
कश्यप की फिल्म फ्लॉप घोषित कर दी गई। इन दिनों कुछ निर्माता और छोटी फिल्मों के
निर्देशक निर्माता और प्रदर्शकों के इस महाजाल से निकलने की युक्ति सोच रहे हैं।
एक सहमति यह बन रही है कि छोटी फिल्मों की टिकट दर कम रखी जाए। उसे दर्शकों की
सुविधानुकूल शो टाइमिंग दी जाए। अगर मल्टीप्लेक्स ‘पीके’ जैसी फिल्म के समय टिकट रेट बढ़ा सकते हैं तो उन्हें छोटी
फिल्मों के समय टिकट रेट घटाना भी चाहिए। तब शायद दर्शकों की रुचि छोटी फिल्मों
में भी बढ़े। फिलहाल वितरक और प्रदर्शक के इस महाजाल की एक डोर मल्टीप्लेक्स व
थिएटर मालिकों के हाथ में है। वे अपनी समझ,
सुविधा और
मर्जी से उसे तानते और ढीला करते हैं।
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