ऑक्‍सीजन है एक्टिंग : मनोज बाजपेयी

-अमित कर्ण
मनोज बाजपेयी दो दशकों से स्टार संचालित सिनेमा को लगातार चुनौती देने वाले नाम रहे हैं। ‘बैंडिट क्वीन’ और ‘सत्या’ जैसी फिल्मों और मल्टीप्लेक्स क्रांति के जरिए उन्होंने उस प्रतिमान का ध्वस्त किया कि सिर्फ गोरे-चिट्टे और सिक्स पैक से लैस चेहरे ही हिंदी फिल्मों के नायक बन सकते हैं। आज की तारीख में वे मुख्यधारा की सिनेमा के भी डिमांडिंग नाम हैं। नए साल में उनकी ‘तेवर’ आ रही है। वह आज के दौर में दो युवाओं की प्रेम कहानी के अलावा प्रेम को लेकर हिंदी पट्टी के पुस्ष प्रधान समाज की सोच और अप्रोच भी बयां करती है।
    मनोज कहते हैं, ‘मैंने अक्सरहां फॉर्मूला फिल्में नहीं की हैं। ‘तेवर’ इसलिए की, क्योंकि उसका विषय बड़ा अपीलिंग है। मेनस्ट्रीम की फिल्म होने के बावजूद रियलिज्म के काफी करीब है। छोटे शहरों में आज भी बाहुबलियों का बोलबाला है। उनके प्यार करने का तौर-तरीका जुदा व अलहदा होता है। मैं एक ऐसे ही बाहुबली गजेंद्र सिंह का रोल प्ले कर रहा हूं, जो जाट है। मथुरा का रहवासी है। वह राधिका नामक लडक़ी से बेइंतहा प्यार करता है। वह बाहुबली है, मगर चरित्रहीन नहीं। वह राधिका से शादी करना चाहता है। उस गरज से वह राधिका को बलपूर्वक ही ले जा रहा होता है, पर एक दूसरा लडक़ा गजेंद्र सिंह की राह में रोड़ा बनता है। वह लडक़ा गजेंद्र सिंह की ताकत के आगे चींटी सरीखा है। फिर भी उसने इतनी बड़ी हिमाकत की। तो एक अतिशक्तिशाली व साधारण शख्स की लड़ाई क्या करवट लेती है, वह आप को इस फिल्म में देखने को मिलेगा।’
    इस फिल्म और गजेंद्र सिंह की अपील पैन इंडियन है। उसकी वजह है कि हिंदुस्तान के तकरीबन सभी इलाकों में पुस्षवादी सोच के लोग ज्यादा हैं। आज भी महिलाओं को वे सिर्फ किचेन संभालने वाली चीज समझते हैं। वह गलत है या सही, यह फिल्म लोगों को उसकी झलक दिखाएगा।
    मैं व्यक्तिगत तौर पर पुस्षवादी सोच का नहीं हूं। इसके बावजूद मैं बिहार के छोटे से इलाका आता हूं। उसकी वजह यह है कि मेरे परिवार में मेरी मां को बहुत ऊंचा दर्जा हासिल था। वे ही हमारे घर-परिवार को कंट्रोल करती रहीं। तो मैंने भी यही मान लिया कि बीवियां ही फैमिली कंट्रोल कर सकती हैं।
    तो उन इलाकों से ताल्लुक रखने वाले शख्स के लिए हाउसहस्बैंड बनकर रहना कितना स्वीकार्य मुमकिन होगा? पूछे जाने पर मनोज कहते हैं, ‘देखिए अगर मेरी पत्नी को उनकी मर्जी का काम मिले तो मैं यकीनन हाउसहस्बैंड बनना पसंद कस्ंगा। हाल ही में उन्होंने एक विज्ञापन फिल्म की थी। उसका तीन दिन का शूट था। तो वे अपनी मर्जी से हमारी बेटी को साथ ले गई। वैसे भी आज की लड़कियों को आप परिवार की जिम्मेदारियों की बेड़ी में बांध कर नहीं रख सकते। उन्हें मनोज बाजपेयी या और किसी से परमिशन लेने की दरकार भी नहीं।’
    मनोज बाजपेयी की अदाकारी का लोहा हर किसी ने माना है। हाल के बरसों में ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में वे अपने किरदार सरदार खान से खासी चर्चा में आए। उसके बावजूद उन्होंने थोक की तादाद में फिल्में नहीं की? इस सवाल के जवाब में वे वजह अपने मिजाज को करार देते हैं। वे कहते हैं, ‘मैं लोगों से नियंत्रित नहीं होता हूं। मैं अपने शरीर और अपनी जस्रतों का गुलाम हूं। मैं अपने पेशे को मनोटोनोस यानी नीरस नहीं बनाना चाहता। तभी चर्चित होने के बाद भी मैं काम से लंबे-लंबे ब्रेक लेता रहता हूं। एक्टिंग मेरे लिए ऑक्सीजन है और मैं उसे पॉल्यूट नहीं करना चाहता। लिहाजा किसी काम से मेरी सारी ईमाआई पूरी हो जाती है। जस्रत के सामान खरीद लेता हूं, फिर ब्रेक ले लेता हूं। फिर जब कोई अच्छी स्क्रिप्ट हाथ आती है तो उसे दो-तीन महीने बाद की डेट दे देता हूं।’
    मैं अपने किरदारों का प्राइमरी स्केच अपने लेखक-निर्देशक के अनुस्प तैयार करता हूं। मेरे मामले में लेखक-निर्देशक मेरे किरदारों पर इतना होमवर्क कर चुके होते हैं कि मेरा काम उसे बस आखिर में फाइन ट्यून करने का होता है। उनकी मंशा भी होती है कि मैं कैरेक्टर क्रिएशन के बेसिक में दखलंदाजी कस्ं। मैं भी वह नहीं ही करता। गजेंद्र सिंह के बारे में मैं एक बात बताना चाहूंगा कि वह टिपिकल बाहुबलियों जैसा नहीं है। वह अनपढ़ या गंवार नहीं है। एक रसूखदार परिवार से वह ताल्लुक रखता है। उसका बड़ा भाई होम मिनिस्टर है। गजेंद्र सिंह खुद को विलेन नहीं मानता। वह अपनी जगह सही है। जिस इलाके में फिल्म बेस्ड है, वहां का चलन यही है कि बाहुबलियों को जो लडक़ी भा जाती है, उसके घर वे रिश्ता भिजवा देते हैं। गजेंद्र सिंह लवर ब्वॉय विलेन है। यह बात अलग है कि उसके खाते में एक भी गाना नहीं है।
    गजेंद्र सिंह बाहुबली है। उसके पास गुर्गों की पूरी फौज है, फिर भी आगरा का एक लडक़ा अकेले उसे पटखनी दे देता है। फिर यह कैरेक्टर या फिल्म रियलिस्टिक कैसे हुई? पूछे जाने पर मनोज कहते हैं, ‘चित्त नहीं कर पाता है सर। वैसा करने में बेचारे को नानी याद आ जाती है। आपने गजनी में जैसे देखा कि आमिर का किरदार अकेले दसियों पर भारी पड़ता है। ‘तेवर’ मेनस्ट्रीम की फिल्म है। वह रियलिस्टिक रहते हुए लार्जर दैन लाइफ है।’
    मनोज खुद बिहार से हैं। उनकी तरह कई और कलाकार और फिल्मकार हिंदी पट्टी के हैं, फिर भी फिल्मों की शूटिंग से लेकर बाकी हर चीजें मुंबई में ही होती हैं। फिल्म से जुड़े कार्यों का विकेंद्रीकरण नहीं हो रहा? पूछे जाने पर मनोज कहते हैं, ‘अब चीजें बदल रही हैं। शुजित सरकार कोलकाता ही रहते हैं। उनका मुंबई में बस ऑफिस है। विशाल भारद्वाज मसूरी में रहकर अपनी कहानियां डेवलप करते हैं। उन्होंने एडिटिंग व रिकॉर्डिंग स्म भी वहां बना लिया है। मुंबई से ढेर सारी विज्ञापन एजेंसियां बाहर जा चुकी हैं। चूंकि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एजेंट सिस्टम नहीं है, इसलिए कलाकारों या फिल्मकारों को मुंबई ही रहना पड़ता है। अगर एजेंट एक्टरों को स्क्रिप्ट भिजवा दिया करे तो एक्टर कहीं बाहर रहना अफोर्ड करे। मैं भी सदा सोचता हूं कि काश मैं दिल्ली, गोवा या लोनावला में रहता, मगर एजेंट सिस्टम लागू नहीं है तो मुझे मुंबई रहना पड़ता है।’
-अमित कर्ण

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