फिल्में बड़ी होती हैं या फिल्ममेकर?
अजय ब्रह्मात्मज
आज एक खबर आई है कि करण जौहर ऐश्वर्या राय बच्चन, रणबीर कपूर और अनुष्का
शर्मा के साथ 'ऐ दिल है मुश्किल' फिल्म का निर्देशन करेंगे। यह फिल्म 2016
में 3 जून को रिलीज होगी। इस खबर के आने के साथ सोशल मीडिया से लेकर फिल्म
इंडस्ट्री के गलियारे में उन्हें बधाई देने के साथ चर्चा गर्म है कि चार
सालों के बाद आ रही इस फिल्म में हम सोच और संवेदना के स्तर पर भिन्न करण
जौहर को देखेंगे। यों यह खबर प्रायोजित है और फिल्म के प्रचार का पहला कदम
है। पर चूंकि खबर में चार लोकप्रिय हस्तियां शामिल हैं,इसलिए मीडिया इसे
स्वाभाविक रूप से महत्व देता रहेगा। अभी से अगले साल जून तक किसी न किसी
रूप में 'ऐ दिल है मुश्किल' से संबंधित खबरें बनी रहेंगी। इन दिनों प्रतिभा
और कौशल से अधिक लोकप्रियता को महत्व दिया जा रहा है। यही कारण है कि किसी
भी नई फिल्म की चर्चा में फिल्म के विषय से अधिक स्टार और डायरेक्टर का
जिक्र होता है।
पिछले कुछ समय से लोकप्रियता का अहंकार फिल्मों की घोषणाओं और सूचनाओं
में दिखने लगा है। ट्रेड और मार्केटिंग के पंडित इसे अपने प्रोडक्ट (यहां
फिल्म) की प्लेसिंग के लिए जरूरी बताएंगे। फिल्में क्रिएटिव पैशन से अधिक
प्रोपोजल और प्रोडक्ट हो चुकी हैं। बाजार के दबाव और प्रभुत्व में सफल
प्रोडक्शन हाउस और कारपोरेट ग्रुप पहले दिन से ही सोची-समझी रणनीति के तहत
हर काम करते हैं। उनकी इस पहल में निर्माता,निर्देशक और कलाकारों को शामिल
होना पड़ता है। उनके इगो और अहंकार को बाजार अपने कलपुर्जे के तौर पर
इस्तेमाल करता है। पिछले दिनों सुभाष घई की फिल्म 'रामलखन' की घोषणा हुई
थी। इस घोषणा में अखबार के पूरे पृष्ठ पर सिर्फ तीन नाम थे- रोहित
शेट्टी,करण जौहर और सुभाष घई। बड़े अक्षरों में इन तीन नामों के अलावा और
कोई जानकारी नहीं दी गई थी। फिल्मों के पुराने प्रेमी बता सकते हैं कि पहले
फिल्मों की घोषणाओं में फिल्म का कथ्य और विषय भी जाहिर होता था। फिल्में
बड़ी होती थीं। फिल्ममेकर,कलाकार और तकनीशियन फिल्म से बड़े नहीं होते थे।
अभी वक्त बदल गया है। फिल्में छोटी हो गई हैं,क्योंकि उन्हें महज प्रोडक्ट
के तौर पर पेश किया जा रहा है। बाजार का यह दबाव सिर्फ फिल्म जगत में हावी
नहीं है। दूसरे क्षेत्र भी संकट में हैं।
करण जौहर अपनी पहली फिल्म 'कुछ कुछ होता है' की रिलीज के बाद से ही सफल
निर्देशक-निर्माता की अगली कतार में आ गए थे। दनके साथ पिता यश
जौहर,पितातुल्य यश चोपड़ा, गाइड और मेंटोर आदित्य चोपड़ा और अभिभावक एवं
संरक्षक शाह रुख खान का वरदहस्त था। अब वे स्वयं अपनी फिल्मों को खारिज कर
वाहवाही लूटते हैं। गोवा के इंटरनेशनल फिल्म फस्टिवल में राजीव मसंद के साथ
अपनी खुली बातचीत में उन्होंने स्वीकार किया कि एक 'माई नेम इज खान' और
कुछ हद तक 'कभी अलविदा ना कहना' बाकी तीन फिल्में 'कुछ कुछ होता है', 'कभी
खुशी कभी गम' और 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' साधारण और बचकानी फिल्में हैं। दरअसल,
अनुराग कश्यप के संसर्ग में आने और विश्व सिनेमा से परिचित होने के बाद
करण जौहर की सोच-समझ में भरी बदलाव आया है। देखना रोचक होगा कि इस बदलाव के
आ उनकी फिल्मों में क्या परिवर्तन आता है। पति, पत्नी और बेटी की 'ऐ दिल
है मुश्किल' उनकी पिछली फिल्मों से लेखन और निर्देशन से अलग भी होगी कि
नहीं?
करण जौहर समेत सभी फिल्मकारों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि
फिल्में उनसे बड़ी होंगी तभी कालजयी और क्लासिक होगी। अन्यथा पांच सालों के
बाद वे फिर से यही कहते सुनाई पड़ेंगे कि 'ऐ दिल है मुश्किल' मेरी एक और
साधारण फिल्म है।
chavannichap@gmail.com
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