'जेड प्लस' के लेखक रामकुमार सिंह से एक बातचीत
रामकुमार सिंह का यह इंटरव्यू चवन्नी के पाठकों के लिए जानकी पुल से लिया गया है।
21 नवम्बर की 'चाणक्य' और 'पिंजर' फेम निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म 'जेड प्लस' रिलीज हो रही है. यह फिल्म हिंदी लेखक रामकुमार सिंह
की मूल कहानी पर आधारित है. यह हमारे लिए ख़ुशी की बात है कि एक लेखक ने
फिल्म लेखन में दिलचस्पी दिखाई और एक कायदे का निर्देशक मिला जिसने उसकी
कहानी की संवेदनाओं को समझा. हम अपने इस प्यारे लेखक की कामयाबी को
सेलेब्रेट कर रहे हैं, एक ऐसा लेखक जो फिल्म लिखने को रोजी रोटी की मजबूरी
नहीं मानता है न ही फ़िल्मी लेखन को अपने पतन से जोड़ता है, बल्कि वह अपने
फ़िल्मी लेखन को सेलेब्रेट कर रहा है. आइये हम भी इस लेखक की कामयाबी को
सेलेब्रेट करते हैं. लेखक रामकुमार सिंह से जानकी पुल की एक बातचीत-
मॉडरेटर.
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आपकी नजर में जेड प्लस की कहानी क्या है?
यह एक आम आदमी और प्रधानमंत्री के मिलने की
कहानी है। सबसे मामूली आदमी के देश के सबसे महत्त्वपूर्ण आदमी से मिलने की
कहानी। असल में प्रधानमंत्री से हमारी व्यवस्था में आम आदमी कहां मिल सकता है।
हर वीआइपी मूवमेंट के समय उसको जेड प्लस सिक्योरिटी में रहने वाले प्रधानमंत्री
के काफिले से दूर ही रोक दिया जाता है। जिस आदमी के वोट से प्रधानमंत्री यह रूतबा
और ताकत हासिल करता है, उसी आम आदमी को यह मान लिया जाता है कि
वह उसकी हत्या कर सकता है। मुझे इस निरीह आम आदमी से सहानुभूति है। लिहाजा मुझे
लगा कि इसकी मुलाकात प्रधानमंत्री से होनी चाहिए। वह कौन होगा, तब मुझे खयाल आया कि यह एक पंचर वाला
होना चाहिए। असलम पंचरवाला। लिहाजा कहानी में वह प्रधानमंत्री से मिलता है और
प्रधानमंत्री से जो कहता है, उसके
एवज में उसे जेड सुरक्षा मिल जाती है। आप सोचिए, वह अब भी स्कूटर पर चलता है। पंचर बनाता है। अपने शहर फतेहपुर में
घूमता है लेकिन उसे जेड सिक्योरिटी मिली हुई है। आप हंसते हुए लोट पोट हो जाएंगे
और जब तक फिल्म पूरी होगी तो आपको पता चलेगा कि यार, यह असलम पंचर वाला तो मैं ही था, और इतनी देर से मैं खुद पर ही हंस रहा
था।
यह कहानी दिमाग में कैसे आई?
यह एक कॉमेडी फिल्म है या उससे भी आगे व्यंग्य
फिल्म है। यह दर्शक के लिए है। मेरे लिए यह गुस्से की कहानी है। मुझे रोक दिया
जाता है, किसी भी चौराहे पर कि आप तब तक इस
सर्दी, गर्मी, बारिश में रुके रहिए जब तक कि वह आदमी गुजर नहीं जाता है जिसको सिक्योरिटी
मिली हुई है। यह मेरे मूल अधिकार का हनन है। आप मुझे मेरे ही देश में, मेरी ही जमीन पर सिर्फ इसलिए रोक रहे
हैं कि वीआइपी गुजरेगा? क्यों भाई? यह कैसी डेमोक्रेसी है? कौन मारेगा इन लोगों को और क्या सिक्योरिटी
के बीच भी हमारे एक प्रधानमंत्री को नहीं मार दिया गया? एक मुख्यमंत्री की हत्या हो गई। तो
यह जेड प्लस एक छलावा है। जिसने आपको मारना तय कर लिया है तो आपको कैसे छोड़ेगा?
लिहाजा
मैं उसे चौराहे पर खड़े आदमी की तरफ था। मेरे भीतर गुस्सा था और इसी गुस्से से
यह व्यंग्य निकला। मैं शुक्रगुजार हूं, डॉ
द्विवेदी का कि उन्होंने इस बात को समझा। हास्य के पीछे छिपे मेरे मंतव्य को
समझा और कहा कि मैं यह फिल्म बनाउंगा।
कहानी डॉ चंद्रप्रकाश द्विेवेदी तक कैसे पहुंची?
मैं फिल्म समीक्षक रहा हूं और कहानियां लिखता
रहा हूं। राजस्थानी में भी मेरी एक कहानी पर फिल्म बनी और हमारा एक मित्रों का
नया सर्कल बना। मेरे मित्र हैं अजय ब्रह्मात्मज और अविनाश दास। इन लोगों में
दिल्ली में सिनेमा पर बहसतलब के आयोजन में मुझे बुलाया। मेरी डॉ साहब से वहीं पहली
मुलाकात हुई। वे एक बौद्धिक आदमी है और उनका अब तक का काम ऐसा है कि आपको हमेशा एक
छवि से ही डर लगता है। एक संकोच होता है कि आप इतने समझदार आदमी के साथ चुटकुले
बाजी में बातचीत नहीं कर सकते। मैं उनसे डरते डरते खुला उन्होंने जयपुर के अपने
दो चार मित्रों के बारे में पूछा मैं संयोग से उन सबको जानता था। देखते ही देखते
उन दो दिनों में हममें सहज आत्मीयता विकसित हो गई। मेरा मुंबई आना जाना रहता ही
है। मैं हर बार जाते ही उनको एसएमएस करता और उनका तुरंत फोन आता कि शाम को खाना
साथ खाएंगे। यूं मानिए कि यह ऐसी ही शाम थी मुंबई की और मैंने कहानी लिख ली थी।
कहानी फिल्मी थी लेकिन मैं पहले इसे उपन्यास बनाना चाहता था और फिर सोचता था कि
किसी को फिल्म के लिए अप्रोच करूंगा। लेकिन ज्योंही कहानी सुनानी शुरू की, डॉ साहब जैसे गंभीर आदमी हंसते हुए
बोले, अब ठहर जा। पूरी कहानी मेल करो और अगर
मुझे अच्छी लगी तो मैं फिल्म बनाउंगा वरना तुम्हें स्वतंत्र कर दूंगा और समय
भी नहीं लूंगा। मैंने कहानी भेजी और आज नतीजा आपके सामने है।
आपको क्या यह नहीं लगा कि आपके प्रशंसक हिंदी
पाठकों तक इस कहानी को पहले जाना चाहिए था?
मुझे तो यह भी नहीं पता कि हिंदी पाठकों में
मेरे प्रशंसक भी हैं। अगर हैं तो मैं बहुत खुश हूं और वे इस फिल्म को देखकर बेहद
खुश होंगे। मूल कहानी अभी मेरे पास ही है और कोई प्रकाशक दिलचस्पी दिखाएगा तो
इंशाअल्लाह वो भी पाठकों तक पहुंचेगा।
हिंदी कथाकार और फिल्म लेखक रामकुमार सिंह में
क्या अंतर है?
मन के भीतर मुझे कोई अंतर महसूस नहीं होता
लेकिन हां, व्यावहारिक रूप से दोनों चीजें अलग
है। पटकथा मैंने डॉ साब के साथ मिलकर लिखी है और वहां आपका कहानी कहने का क्राफ्ट
एकदम बदल जाता है। आपको पर्दे के लिए विजुअल में सोचना है। डॉ. साहब निष्णात
पटकथा लेखक हैं और वे सोचते ही विजुअली हैं। यहां तक कि वे लिखते हुए अभिनय करते
हुए दृश्य रचते हैं कि यह पर्दे पर कैसा लगेगा। उनके साथ काम करने का मेरा यह
विलक्षण अनुभव था। कहानी की आत्मा को बचाते हुए दृश्य रचना एक पटकथा लेखक के लिए
बड़ी चुनौती लगती हैं। कम से कम शब्दों में आपको सबसे असरदार दृश्य रचने होते
हैं।
हिन्दी साहित्य के लेखक सिनेमा को छूआछूत की
नज़र से देखते है, जैसे फिल्मों के लिए लिखना लेखक का पतन
है!
हिंदी के कई नए कथाकार इस समय सिनेमा को एक नई
संभावना की तरह देख रहे हैं। वे सब मेरे हम्उम्र हैं और कुछ दोस्त भी। सिनेमा के
उस दौर को याद करिए जब हमारे उम्दा किस्म के शायर फिल्मों के गीतकार हुए और
बेहतरीन अमर गाने रचे। यह नए दौर का सिनेमा हैं इसमें सौ दो सौ करोड़ का मसाला
सिनेमा तो है लेकिन बहुत से उम्दा विचारों पर फिल्में बन रही हैं। वापस कहानी की
मांग होने लगी है और अगर हिंदी का नया लेखक वहां संभावना ढूंढ रहा है तो इसे पतन
कैसे कह सकते हैं।
हिन्दी
कथाकार की संवेदना और सरोकारों को जेड प्लस में बचा पाए हैं?
मैं
तो फिल्म देख चुका हूं। अपनी ही फिल्म की तारीफ करूंगा तो लोग इसे प्रचार
समझेंगे लेकिन मैं कह रहा हूं, 21
नवम्बर से हिंदी सिनेमा के दर्शकों के अच्छे दिन वाले हैं। यह फिल्म आपको
हंसाती है और आंखें भी नम करती है। यह एक दुर्लभ संयोग है। यह हम सबकी कहानी है।
इसलिए हमारी संवदेनाओं के सबसे करीब होगी। ऐसा नहीं है कि यह किसी डॉन, डकैत, माफिया, चोर की कहानी है जिसे हम नायक बनाकर
दिखा रहे हैं। इस कहानी के हीरो हम सब लोग हैं भारत के लोग।
मंजिलें अभी और भी हैं?
कुछ और कहानियों पर काम कर रहा हूं। ऐसे ही आम
लोगों की कहानियां, जिन सबमें नायकत्व कूट कूट कर भरा है।
खास लोगों की कहानियां हमेशा आसान होती हैं। उनके बारे में अखबार, टीवी, सेलेब्रिटी मैगजीन्स सब कुछ छापती हैं। आम लोग नायक होते हुए भी
उपेक्षित रह जाते हैं। मेरी नजर उन्हीं लोगों पर है और उम्मीद भी करता हूं कि यह
नजर फिरे नहीं।
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