फिल्‍म समीक्षा : रंग रसिया

- अजय ब्रह्मात्‍मज 
अगर केतन केहता की 'रंग रसिया' समय से रिलीज हो गई होती तो बॉयोपिक के दौर की आरंभिक फिल्म होती। सन् 2008 में बन चुकी यह फिल्म अब दर्शकों के बीच पहुंची है। इस फिल्म को लेकर विवाद भी रहे। कहा गया कि यह उनके जीवन का प्रामाणिक चित्रण नहीं है। हिंदी फिल्मों की यह बड़ी समस्या है। रिलीज के समय आपत्ति उठाने के लिए अनेक चेहरे और समूह सामने आ जाते हैं। यही कारण है कि फिल्मकार बॉयोपिक या सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्मों को अधिक प्रश्रय नहीं देते। केतन मेहता ने रंजीत देसाई के उपन्यास पर इसे आधारित किया है। मुमकिन है इस फिल्म और उनके जीवन में पर्याप्त सामंजस्य नहीं हो,लेकिन केतन मेहता ने राजा रवि वर्मा के जीवन और कार्य को सामयिक संदर्भ दे दिया है। यह फिल्म कुछ जरूरी सवाल उठाती है।
राजा रवि वर्मा केरल के चित्रकार थे। उन्होंने मुंबई आकर कला के क्षेत्र में काफी काम किया। विदेशों की कलाकृतियों से प्रेरित होकर उन्होंने भारतीय मिथक के चरित्रों को चित्रांकित करने का प्रशंसनीय कार्य किया। रामायण और महाभारत समेत पौराणिक "गाथाओं और किंवदंतियों को उन्होंने चित्रों में आकार दिया। सचमुच उनका काम कितना मुश्किल और कठिन रहा होगा? उनकी प्रेरणा थी सुगंधा। उन्होंने सुगंधा के अप्रतिम रूप को ही चित्रों में ढाला। धर्म की ओट में तब उन पर आक्रमण और मुकदमे किए गए। कोर्ट में कला और उसकी मर्यादा और स्वतंत्रता पर चली बहस अभी तक प्रासंगिक और जरूरी बने हुए हैं। नैतिकता के नाम पर पुरातनपंथियों का दुराग्रह आज भी जारी है। फिल्म के आरंभ में आज और अतीत की इस समानता को केतन मेहता ने कोलाज के जरिए दिखाया है। गौर करें तो समय और शासन बदलने के बावजूद समाज की सोच में अधिक बदलाव नहीं आया है। 'रंग रसिया' सेंसरशिप के सवालों से जूझती है। पृष्ठभूमि में राजा रवि वर्मा का जीवन है। आधुनिक सोच और तकनीक को स्वीकार करने के लिए सहज रूप से तैयार राजा रवि वर्मा ने आधुनिक कला की नींव रखी। दादा साहेब फालके ने उनकी संगत की थी। फिल्म के मुताबिक राजा रवि वर्मा की आर्थिक मदद से ही फालके फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए थे।
केतन मेहता ने पीरियड फिल्म की जरूरत के मुताबिक परिवेश तैयार किया है। सेट और लोकेशन से उन्नीसवीं सदी के माहौल को पर्दे पर उतारा है। चित्रकार के जीवन पर आधारित इस फिल्म में उन्होंने रंगों का आकर्षक संयोजन किया है। राजा रवि वर्मा और सुगंधा के अंतरंग पलों को रचने में उन्हें रंगों से बड़ी मदद मिली है। वे दर्शकों को अपने साथ अतीत की गलियों में ले जाते हैं। अतीत के ये चरित्र करवट ले रही सदी की आहट समेटे हुए हैं। विदेशों में निश्चित ही अधिक प्रामाणिक बॉयोपिक बने होंगें, लेकिन इस आधार पर हम अपने फिल्मकारों की सीमा और सामर्थ्य में चल रही कोशिशों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। निर्माण के छह साल के बाद 'रंग रसिया' का रिलीज हो पाना ही सच बयान कर देता है। केतन मेहता की यह फिल्म छह सालों के अंतराल के बावजूद पुरानी और बासी नहीं लगती।
कई फिल्मों को देखते हुए स्पष्ट पता चलता है कि कुछ कलाकार अपने किरदारों को लेकर अधिक आश्वस्त नहीं रहते। कुछ दिनों की शूटिंग के बाद उनकी संलग्नता बढ़ती है। इस फिल्म में रणदीप हुडा ऐसा ही एहसास देते हैं। उनके परफारमेंस में एकरुपता और चढ़ाव नहीं है। इस फिल्म में सुगंधा की भूमिका में नंदना सेन अचंभित करती हैं। हिंदी फिल्मों की अधिकांश अभिनेत्रियां अपनी देह के प्रति सहज नहीं होतीं। अंग प्रदर्शन के दृश्यों में उनका संकोच निर्देशक की कल्पना को जकड़ता है। नंदना सेन में यह संकोच नहीं है। फिल्म कुछ दृश्यों में उनकी सहजता प्रभावित करती है। उन्होंने फिल्म की जरूरत को ध्यान में रखा है।
इस फिल्म में गीत-संगीत की अधिक आवश्यकता नहीं थी। पार्श्व संगीत में कथ्य और विषय के समय और ध्वनि का ध्यान रखना चाहिए था। फिल्म का संगीत कमजोर है। फोटोग्राफी नयनाभिरामी है। शीर्षक "गीत रंगरसिया का फीलर के तौर पर किया गया इस्तेमाल अखरता है।
अवधि-125 मिनट 
*** तीन स्‍टार 

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