खानाबदोश अभिनेता आदिल हुसैन
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने आदिल हुसैन को सबसे पहले अभिषेक चौबे की फिल्म ‘इश्किया’ में देखा था। अभिषेक चौबे ने उनका नाटक ओथेलो देख रखा था। उन्हें विद्याधर शर्मा की भूमिका के लिए आदिल हुसैन जैसा ही इंटेंस एक्टर चाहिए था। आरंभिक झिझक के बाद आदिल हुसैन मान गए थे। उसके बाद वे ‘इंग्लिश विंग्लिश’ के सतीश गोडबोले, ‘लुटेरा’ के केएन सिंह और ‘एक्सपोज’ के किरदारों में दिखे। उन सभी किरदारों में वे ग्रे शेड की डार्क भूमिकाओं में थे। अपनी बन रही इमेज से अलग भूमिका में वे डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की ‘जेड प्लस’ में दिखेंगे। इस फिल्म में उन्होंने असलम खान की भूमिका निभाई है, जो फतेहपुर कस्बे में पंक्चर की दुकान चलाता है। इसी शहर में पीपल वाले पीर की दरगाह है। दरगाह में जिस दिन का वह खादिम है, उसी दिन प्रधानमंत्री का आगमन होता है। दोनों की मुलाकात में भाषा की दिक्कत से गफलत पैदा होती है। असलम को प्रधानमंत्री की जेड प्लस सुरक्षा मिल जाती है। उनके रहम से असलम की जिंदगी की दिनचर्या बदल जाती है।
इन दिनों आदिल हुसैन ज्यादातर समय ‘जेड प्लस’ से संबंधित इंटरव्यू और प्रचार में निकल रहा है। ‘जेड प्लस’ से पहले उन्हें इस जिम्मेदारी का एहसास नहीं हुआ था। लगातार फिल्में करने के बावजूद उन्होंने अभी तक अपना ठिकाना दिल्ली रखा है। मुंबई शिफ्ट करने की जरुरत वे महसूस नहीं करते। आदिल कहते हैं, ‘मुंबई पहुंचने में दो घंटे ही लगते हैं। और फिर दिल्ली की सड़कें खुली हुईं हैं। दोस्त-परिचित हैं। सबसे बड़ी बात की घर में मेरी खिड़कियां खुलती हैं तो सामने जंगल दिखता है। वैसा माहौल मुंबई में नहीं मिल सकता। मैं मुंबई आता हूं, काम करता हूं और लौट जाता हूं।’ आदिल हुसैन को अपनी खानाबदोश जिंदगी पसंद है। आरंभ से ही इस जीवनशैली ने उन्हें देश-दुनिया से वाकिफ कराने के साथ जमीनी सच्चाई से रूबरू करा दिया है कि अनुभव, जानकारी और आत्मोत्थान की यात्रा कभी खत्म नहीं होती।
शिक्षक पिता के घर पैदा हुए आदिल हुसैन अपने परिवार से इंग्लिश मीडियम से शिक्षा हासिल करने वाले पहले सदस्य थे। असम के ग्वालपाड़ा में उन्हें दूसरों की नकल और मिमिक्री करने में मजा आता था। घर के आगे मौजूद मैदान में मेला लगता था। वहां स्थानीय कलाकारों का मजमा लगता था। बालक आदिल जो कुछ मेले से देख कर लौटते थे, उसकी नकल दोस्तों और परिजनों को दिखाया करते थे। हाई स्कूल की परीक्षा में अपेक्षा से बेहतर रिजल्ट हुआ तो उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई के लिए पिता से गुवाहाटी जाने की अनुमति मांगी। रिजल्ट से खुश पिता ने अनुमति दे दी। उन्हें कहां मालूम था कि वे अनजाने ही अपने बेटे को प्रदर्शन और अभिनय की दुनिया में भेज रहे हैं। गुवाहाटी आते ही आदिल के तो पंख लग गए। बचपन बंगाली और असमी साहित्य एवं भाषा के बीच बीता था। स्कूल में अंग्रेजी की सोहबत हो गई थी। स्कूल में ही पहली बार नाटक में काम करने का मौका मिला। प्रदर्शन अच्छा रहा तो वे स्कूल में पॉपुलर हो गए। आठवीं कक्षा तक आते-आते आदिल ने मन बना लिया था कि उन्हें एक्टर ही बनना है। मनाही और पिटाई के बावजूद वे नहीं माने और गुपचुप तरीके से अपनी ख्वाहिशें पूरी करते रहे। शिक्षक पिता की चाहत थी बेटा प्रोफेसर हो जाए,लेकिन बेटे को तो तो दुनिया में असर छोड़ना था।
1983 में गुवाहाटी आने के बाद आदिल स्टैंडअप कॉमेडी के एक ग्रुप में शामिल हो गए। चार सदस्यों के इस ग्रुप के युवतम सदस्य थे आदिल। उनका स्टैंडअप कॉमडी ग्रुप इतना पॉपुलर रहा कि उन्होंने अपने ऊपर वीडियो फिल्म बना ली। असमी की वह पहली वीडियो फिल्म थी। ट्रैडिशनल ‘ ओजा पाली’ के पारंपरिक फॉर्म में शासक और सिस्टम पर व्यंग्य किए जाते थे। उस लहजे में प्रदर्शन से आदिल को दुनिया को देखने का सूक्ष्म नजरिया दिया। उसी दौरान उन्हें टीवी, फिल्में और डॉक्युमेंट्री में मौके मिले और ये सारी गतिविधियां परिवार को बगैर बताए चल रही थीं। फिर किसी ने एनएसडी के बारे में बताया तो आदिल अनुभवों का पुंज लेकर दिल्ली पहुंच गए। 1990-93 बैच के छात्र रहे। आदिल के सहपाठियों में अनूप सोनी और रोहिताश्व गौड़ थे। एनएसडी से ग्रेजुएट होते ही उन्हें लंदन से स्कॉलरशिप मिल गई। आदिल इंग्लैंड गए, लेकिन अपनी पढ़ाई से नाखुश रहे। वहां से लौट कर दिल्ली आ गए। दिल्ली में एनएसडी के शिक्षक खालिद तैय्यब से फिर से मुलाकात हुई। आदिल ने उनकी संगत करनी चाही तो उन्होंने कहा कि पहले एक मोटरसायकिल खरीदो और अपने खर्चे के लिए एक लाख रुपए का इंतजाम कर लो।
आदिल के लिए एक लाख रुपए का का इंतजाम एक चुनौती थी। घर से मदद मिल नहीं सकती थी। एक रास्ता निकला। उन्होंने असम लौटकर मोबाइल थिएटर ज्वॉइन कर लिया। दो महीने के रिहर्सल बाद सात महीनों तक रोजाना परफॉर्म करने के लिए 1 लाख 60 हजार रुपए का करार हुआ। खालिद तैयब की संगत और पढ़ाई के लिए यह जरूरी था। पैसे और मोटरसायकिल खरीदने के बाद वे अभिनय गुरू खालिद तैय्यब से मिलने लौटे तो वे बस्तर जा चुके थे। उन्होंने वहीं बुलाया। बस्तर की उस जिंदगी ने आदिल को हमेशा के लिए जमीन से जोड़ दिया। हालांकि उसके बाद विदेश की यात्राएं, अध्यापन, रंगकर्म के मौके मिले। लौटने पर टीवी, थिएटर और फिल्में मिलीं, लेकिन आदिल आज भी उन दिनों के अनुभव से ही सिंचित होते हैं। अपरिग्रह जीवन की प्रेरणा वहीं से मिली। यही कारण है कि ग्लमैर जगत का हिस्सा होने के बावजूद वे यहां की चकाचौंध से भ्रमित नहीं हैं। उन्हें ऐसा कोई अफसोस भी नहीं है कि विशाल अनुभव और ज्ञान के बावजूद वे फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाओं में रमे हुए हैं। आदिल कहते हैं, ‘मुझे अपनी हकीकत और जरूरत मालूम है। मैंने फिल्मों को कुछ वक्त दिया है। अगर संतुष्ट रहा तो सब कुछ यों ही चलता रहेगा। मन नहीं लगा और बेचैनी बढ़ी तो फिर से थिएटर और अध्यापन में लौटने में मुझे हिचक नहीं होगी।’
आदिल हुसैन ने अभी तक फिल्मों में सहयोगी भूमिकाएं ही निभाई हैं। फिर भी उनकी एक पहचान है। पर्दे पर उनकी मौजूदगी नजरअंदाज नहीं हो सकती। वजह पूछने पर वे मुस्कुराते और कहते हैं, ‘अभिनय जल की तरह होता है। पारदर्शी, तरल और प्यास बुझाना ही हमारा स्वभाव है। किरदारों में ढलना और उसे जीते हुए अपने शरीर की सीमाओं से निकल दर्शकों को प्रभावित और आनंदित करना ही तो काम है। ओथेलो करते समय मुझे एहसास हुआ था कि निगेटिव और पॉजिटिव सारे भाव हमारे अंदर हैं। शब्द और दृश्य हमारे उन भावों को जगाते और दर्शकों तक पहुंचाते हैं।’
आदिल हुसैन डॉ. द्विवेद्वी की पारखी नजर की कद्र करते हैं। वे बताते हैं, ‘डॉक्टर साहब मुझ से मिले। उन्होंने मुझे असलम पंचरवाला की भूमिका के लायक समझा। मेरी छवि तो निगेटिव और ग्रे शेड के किरदारों की रही है। वे परिस्थितियों में फंसे ऐसे साधारण व्यक्ति को मुझ में देख सके। मैंने कोशिश की है कि असलम को शिद्दत से निभा सकूं। फिल्मों में ऐसे किरदार अभी कहां दिखते हंै। असलम हमारे गांव-कस्बे का आम किरदार है। वर्तमान सिस्टम उसकी परवाह नहीं करता। इस फिल्म में मिली सरकारी सुविधाओं से असलम की जिंदगी तबाह होती है।’
हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने आदिल हुसैन को सबसे पहले अभिषेक चौबे की फिल्म ‘इश्किया’ में देखा था। अभिषेक चौबे ने उनका नाटक ओथेलो देख रखा था। उन्हें विद्याधर शर्मा की भूमिका के लिए आदिल हुसैन जैसा ही इंटेंस एक्टर चाहिए था। आरंभिक झिझक के बाद आदिल हुसैन मान गए थे। उसके बाद वे ‘इंग्लिश विंग्लिश’ के सतीश गोडबोले, ‘लुटेरा’ के केएन सिंह और ‘एक्सपोज’ के किरदारों में दिखे। उन सभी किरदारों में वे ग्रे शेड की डार्क भूमिकाओं में थे। अपनी बन रही इमेज से अलग भूमिका में वे डॉ.चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की ‘जेड प्लस’ में दिखेंगे। इस फिल्म में उन्होंने असलम खान की भूमिका निभाई है, जो फतेहपुर कस्बे में पंक्चर की दुकान चलाता है। इसी शहर में पीपल वाले पीर की दरगाह है। दरगाह में जिस दिन का वह खादिम है, उसी दिन प्रधानमंत्री का आगमन होता है। दोनों की मुलाकात में भाषा की दिक्कत से गफलत पैदा होती है। असलम को प्रधानमंत्री की जेड प्लस सुरक्षा मिल जाती है। उनके रहम से असलम की जिंदगी की दिनचर्या बदल जाती है।
इन दिनों आदिल हुसैन ज्यादातर समय ‘जेड प्लस’ से संबंधित इंटरव्यू और प्रचार में निकल रहा है। ‘जेड प्लस’ से पहले उन्हें इस जिम्मेदारी का एहसास नहीं हुआ था। लगातार फिल्में करने के बावजूद उन्होंने अभी तक अपना ठिकाना दिल्ली रखा है। मुंबई शिफ्ट करने की जरुरत वे महसूस नहीं करते। आदिल कहते हैं, ‘मुंबई पहुंचने में दो घंटे ही लगते हैं। और फिर दिल्ली की सड़कें खुली हुईं हैं। दोस्त-परिचित हैं। सबसे बड़ी बात की घर में मेरी खिड़कियां खुलती हैं तो सामने जंगल दिखता है। वैसा माहौल मुंबई में नहीं मिल सकता। मैं मुंबई आता हूं, काम करता हूं और लौट जाता हूं।’ आदिल हुसैन को अपनी खानाबदोश जिंदगी पसंद है। आरंभ से ही इस जीवनशैली ने उन्हें देश-दुनिया से वाकिफ कराने के साथ जमीनी सच्चाई से रूबरू करा दिया है कि अनुभव, जानकारी और आत्मोत्थान की यात्रा कभी खत्म नहीं होती।
शिक्षक पिता के घर पैदा हुए आदिल हुसैन अपने परिवार से इंग्लिश मीडियम से शिक्षा हासिल करने वाले पहले सदस्य थे। असम के ग्वालपाड़ा में उन्हें दूसरों की नकल और मिमिक्री करने में मजा आता था। घर के आगे मौजूद मैदान में मेला लगता था। वहां स्थानीय कलाकारों का मजमा लगता था। बालक आदिल जो कुछ मेले से देख कर लौटते थे, उसकी नकल दोस्तों और परिजनों को दिखाया करते थे। हाई स्कूल की परीक्षा में अपेक्षा से बेहतर रिजल्ट हुआ तो उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई के लिए पिता से गुवाहाटी जाने की अनुमति मांगी। रिजल्ट से खुश पिता ने अनुमति दे दी। उन्हें कहां मालूम था कि वे अनजाने ही अपने बेटे को प्रदर्शन और अभिनय की दुनिया में भेज रहे हैं। गुवाहाटी आते ही आदिल के तो पंख लग गए। बचपन बंगाली और असमी साहित्य एवं भाषा के बीच बीता था। स्कूल में अंग्रेजी की सोहबत हो गई थी। स्कूल में ही पहली बार नाटक में काम करने का मौका मिला। प्रदर्शन अच्छा रहा तो वे स्कूल में पॉपुलर हो गए। आठवीं कक्षा तक आते-आते आदिल ने मन बना लिया था कि उन्हें एक्टर ही बनना है। मनाही और पिटाई के बावजूद वे नहीं माने और गुपचुप तरीके से अपनी ख्वाहिशें पूरी करते रहे। शिक्षक पिता की चाहत थी बेटा प्रोफेसर हो जाए,लेकिन बेटे को तो तो दुनिया में असर छोड़ना था।
1983 में गुवाहाटी आने के बाद आदिल स्टैंडअप कॉमेडी के एक ग्रुप में शामिल हो गए। चार सदस्यों के इस ग्रुप के युवतम सदस्य थे आदिल। उनका स्टैंडअप कॉमडी ग्रुप इतना पॉपुलर रहा कि उन्होंने अपने ऊपर वीडियो फिल्म बना ली। असमी की वह पहली वीडियो फिल्म थी। ट्रैडिशनल ‘ ओजा पाली’ के पारंपरिक फॉर्म में शासक और सिस्टम पर व्यंग्य किए जाते थे। उस लहजे में प्रदर्शन से आदिल को दुनिया को देखने का सूक्ष्म नजरिया दिया। उसी दौरान उन्हें टीवी, फिल्में और डॉक्युमेंट्री में मौके मिले और ये सारी गतिविधियां परिवार को बगैर बताए चल रही थीं। फिर किसी ने एनएसडी के बारे में बताया तो आदिल अनुभवों का पुंज लेकर दिल्ली पहुंच गए। 1990-93 बैच के छात्र रहे। आदिल के सहपाठियों में अनूप सोनी और रोहिताश्व गौड़ थे। एनएसडी से ग्रेजुएट होते ही उन्हें लंदन से स्कॉलरशिप मिल गई। आदिल इंग्लैंड गए, लेकिन अपनी पढ़ाई से नाखुश रहे। वहां से लौट कर दिल्ली आ गए। दिल्ली में एनएसडी के शिक्षक खालिद तैय्यब से फिर से मुलाकात हुई। आदिल ने उनकी संगत करनी चाही तो उन्होंने कहा कि पहले एक मोटरसायकिल खरीदो और अपने खर्चे के लिए एक लाख रुपए का इंतजाम कर लो।
आदिल के लिए एक लाख रुपए का का इंतजाम एक चुनौती थी। घर से मदद मिल नहीं सकती थी। एक रास्ता निकला। उन्होंने असम लौटकर मोबाइल थिएटर ज्वॉइन कर लिया। दो महीने के रिहर्सल बाद सात महीनों तक रोजाना परफॉर्म करने के लिए 1 लाख 60 हजार रुपए का करार हुआ। खालिद तैयब की संगत और पढ़ाई के लिए यह जरूरी था। पैसे और मोटरसायकिल खरीदने के बाद वे अभिनय गुरू खालिद तैय्यब से मिलने लौटे तो वे बस्तर जा चुके थे। उन्होंने वहीं बुलाया। बस्तर की उस जिंदगी ने आदिल को हमेशा के लिए जमीन से जोड़ दिया। हालांकि उसके बाद विदेश की यात्राएं, अध्यापन, रंगकर्म के मौके मिले। लौटने पर टीवी, थिएटर और फिल्में मिलीं, लेकिन आदिल आज भी उन दिनों के अनुभव से ही सिंचित होते हैं। अपरिग्रह जीवन की प्रेरणा वहीं से मिली। यही कारण है कि ग्लमैर जगत का हिस्सा होने के बावजूद वे यहां की चकाचौंध से भ्रमित नहीं हैं। उन्हें ऐसा कोई अफसोस भी नहीं है कि विशाल अनुभव और ज्ञान के बावजूद वे फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाओं में रमे हुए हैं। आदिल कहते हैं, ‘मुझे अपनी हकीकत और जरूरत मालूम है। मैंने फिल्मों को कुछ वक्त दिया है। अगर संतुष्ट रहा तो सब कुछ यों ही चलता रहेगा। मन नहीं लगा और बेचैनी बढ़ी तो फिर से थिएटर और अध्यापन में लौटने में मुझे हिचक नहीं होगी।’
आदिल हुसैन ने अभी तक फिल्मों में सहयोगी भूमिकाएं ही निभाई हैं। फिर भी उनकी एक पहचान है। पर्दे पर उनकी मौजूदगी नजरअंदाज नहीं हो सकती। वजह पूछने पर वे मुस्कुराते और कहते हैं, ‘अभिनय जल की तरह होता है। पारदर्शी, तरल और प्यास बुझाना ही हमारा स्वभाव है। किरदारों में ढलना और उसे जीते हुए अपने शरीर की सीमाओं से निकल दर्शकों को प्रभावित और आनंदित करना ही तो काम है। ओथेलो करते समय मुझे एहसास हुआ था कि निगेटिव और पॉजिटिव सारे भाव हमारे अंदर हैं। शब्द और दृश्य हमारे उन भावों को जगाते और दर्शकों तक पहुंचाते हैं।’
आदिल हुसैन डॉ. द्विवेद्वी की पारखी नजर की कद्र करते हैं। वे बताते हैं, ‘डॉक्टर साहब मुझ से मिले। उन्होंने मुझे असलम पंचरवाला की भूमिका के लायक समझा। मेरी छवि तो निगेटिव और ग्रे शेड के किरदारों की रही है। वे परिस्थितियों में फंसे ऐसे साधारण व्यक्ति को मुझ में देख सके। मैंने कोशिश की है कि असलम को शिद्दत से निभा सकूं। फिल्मों में ऐसे किरदार अभी कहां दिखते हंै। असलम हमारे गांव-कस्बे का आम किरदार है। वर्तमान सिस्टम उसकी परवाह नहीं करता। इस फिल्म में मिली सरकारी सुविधाओं से असलम की जिंदगी तबाह होती है।’
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