दरअसल : देश का इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल


 

-अजय ब्रह्मात्मज
    गोवा में इस साल भी 20 नवंबर से 30 नवंबर के बीच फिल्मपे्रमियों का जमावड़ा होगा। सन् 2004 से गोवा ही इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का स्थायी ठिकाना है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सोच-समझ कर ही गोवा ठिकाना सुनिश्चित किया। उद्देश्य था कि दुनिया के मशहूर फिल्म समारोहों की तरह भारत में भी किसी ऐसे शहर में फिल्म फस्टिवल का आयेजन हो,जो पर्यटन के लिहाज से भी मनोरम हो। मौसम ठीक हो ताकि फिल्मप्रेमी फिल्मों का भरपूर आनंद उठा सकें। गोवा में आरंभ में संसाधनों की कमी रही। प्रशासन के ढीलेपन और नौकरशाही की नकेल की वजह से ये कमियां अभी भी पूरी तरह से दूर नहीं हो सकी हैं। पिछले दस सालों में फेस्टिवल की प्रासंगिकता बदली है। अब गोवा के वार्षिक आयोजन का आकर्षण कम हुआ है। इस बीच देश के अनेक शहरों में छोटे-बड़े फिल्म फेस्टिवल के आयोजन होने लगे हैं। इनमें मुबई में आयोजित फिल्म फेस्टिवल अग्रणी है। इस साल तो मूल स्पांसर के न होने पर भी इस फेस्टिवल का आयोजन हुआ। पहली बार स्थानीय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सितारों ने इसमें रुचि दिखाई। संख्या और स्थान बढऩे के बावजूद देश के प्रतिनिधि इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का महत्व कम नहीं हुआ है।
    हर साल की तरह इस साल भी इंडियन पैनोरमा में भारतीय भाषाओं में बनी फिल्में दिखाई जाएंगी। इस साल 26 फिल्में चुनी गई हैं। इसमें हिंदी की दो फिल्में हैं। सबसे ज्यादा मराठी और मलयालम की 7-7 फिल्में हैं। परेश मोकाशी की फिल्म एलिजाबेथ एकादशी पैनोरमा की ओपनिंग फिल्म होगी। गैरफीचर श्रेणी में 12 फिल्में चुनी गई हैं। इसकी शुरुआत शबनम सुखदेव की फिल्म द लास्ट आदियु से होगी। शबनम ने अपने पिता सुखदेव पर यह फिल्म बनाई है। सुखदेव विख्यात डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर थे। इस साल उद्घाटन समारोह के मेहमान मोहसिन मखमलबाफ हैं। उनकी फिल्म प्रेसिडेंट उद्घाटन फिल्म है। 45 वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन भी रखा गया है। फेस्टिवल के समापन समारोह में ओंग कार वाई आएंगे। उनके साथ उनकी फिल्म के अभिनेता टोनी च्युंग भी होंगे। समापन समारोह में ओंग कार वाई की द ग्रैंडमाटर दिखाई जाएगी। क्रिस्तोफ किजलोवस्की की फिल्मों का पुनरावलोकन फेस्टिवल का खास आकर्षण होगा। गोवा में इस बार फिल्मप्रेमी गुलजार की अप्रदर्शित फिल्म लिबास भी देख सकेंगे। इसे उनके शिष्य विशाल भारद्वाज पेश करेंगे। बाद में उनके साथ सवाल-जवाब भी होंगे। इनके अलावा मास्टरक्लास,पैनल डिस्कशन और व्याख्यान भी होंगे। दस दिनों तक फिल्मों और कार्यक्रमों की बहार रहेगी।
    इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल फिल्में देखने और फिल्मकारों से मिलने और उनकी बातें सुनने का खास मौका देता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की कोशिश से 1952 में आरंभ हुआ फिल्म फेस्टिवल का सिलसिला अत्यंत कारगर रहा है। सत्यजित राय से लेकर चैतन्य तम्हाणे तक अनेक फिल्मकारों ने फेस्टिवल से ही प्रेरित और प्रभावित होकर फिल्म निर्देशन का रुख किया। हिंदी के चर्चित फिल्मकार अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज ने बार-बार यह बात कही है कि दिल्ली में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फस्टिवल ने उनके करिअर में उत्प्रेरक का काम किया। अभी फिल्में देखने के पचास तरीके हो गए हैं। संचार माध्यमों की सुविधा से दुनिया के किसी भी कोने की फिल्म अपने घर में देखी जा सकती है,लेकिन फेस्टिवल का माहौल सोच और संवेदना को गति प्रदान करता है। वहां अलग सी ऊर्जा मिलती है।
    फिल्म फेस्टिवल फिल्म पत्रकारों के लिए भी आवश्यक हैं। हालांकि इधर फिल्म पत्रकारिता के नाम पर जीवन शैली और गॉसिप पर अधिक सामग्रियां लिखी-लिखाई जा रही हैं,लेकिन सिनेमा अध्ययन का प्रिय विषय है। हर देश का सिनेमा अपनी संस्कूति के प्रवाह को दृश्यों और संवादों के माध्यम से दर्शकों के समक्ष ले आता है। फिल्में देखना किसी भी देश और संस्कृति से परिचित होना है। एक प्रकार का क्रैश कोर्स है। सिर्फ 2-3 घंटे में हम विचार,विषय,व्यक्ति और चरित्रों के माध्यम से गतिशील भाव जगत में भ्रमण करते हैं। सिनूमा महज मनोरंजन ही नहीं करता। यह हमारा प्रबोधन करता है। सरल शब्दों में ज्ञानवद्र्धन भी करता है।

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