फिल्म समीक्षा : किल दिल
-अजय ब्रह्मात्मज
भारतीय समाज और समाज शास्त्र में बताया जाता रहा है कि मनुष्य के स्वभाव और
सोच पर परवरिश और संगत का असर होता है। जन्म से कोई अच्छा-बुरा नहीं होता।
इस धारणा और विषय पर अनेक हिंदी फिल्में बन चुकी हैं। शाद अली ने इस मूल
धारणा का आज के माहौल में कुछ किरदारों के जरिए पेश किया है। शाद अली की
फिल्मों का संसार मुख्य रूप से उत्तर भारत होता है। वे वहां के ग्रे शेड के
किरदारों के साथ मनोरंजन रचते हैं। इस बार उन्होंने देव और टुटु को चुना
है। इन दोनों की भूमिकाओं में रणवीर सिंह और अली जफर हैं।
क्रिमिनल भैयाजी को देव और टुटु कचरे के डब्बे में मिलते हैं। कोई उन्हें
छोड़ गया है। भैयाजी उन्हें पालते हैं। आपराधिक माहौल में देव और टुटु का
पढ़ाई से ध्यान उचट जाता है। वे धीरे-धीरे अपराध की दुनिया में कदम रखते
हैं। भैयाजी के बाएं और दाएं हाथ बन चुके देव और टुटु की जिंदगी मुख्य रूप
से हत्यारों की हो गई है। वे भैयाजी के भरोसेमंद शूटर हैं। सब कुछ ठीक चल
रहा है। एक दिन उनकी मुलाकात दिशा से हो जाती है। साहसी दिशा पर देव का दिल
आ जाता है। किलर देव के दिल में प्रेम की घंटियां बजने लगती हैं। हालांकि
टुटु उसे भैयाजी के गुस्से और दिशा की स्थिति से आगाह करता है, लेकिन देव
पर तो प्रेम की धुन चढ़ चुकी है। अब वह किलर से दिलदार बनना चाह रहा है।
शरीफों की जिंदगी जीना चाह रहा है।
शाद अली ने अपनी पुरानी फिल्मों से अलग सरल राह चुनी है। उन्होंने कहानी दो
हिस्सों में बांटी है। पहले हिस्से में अपराधी बनने से लेकर शरीफ होने की
कहानी है। दूसरे हिस्से में शराफत से होने की दिक्कतों की दास्तान है।
फिल्म में उन्हें बेहतर इंसान होना ही था। वे मुश्किलों को सुलझा कर हो भी
जाते हैं। फिल्म अच्छा द्वंद्व रचती है, लेकिन उस अनुपात में नाटकीय नहीं
हो पाती। संभावना थी। देव और टुटु के साथ भैयाजी के संबंधों के टूटने पर
हाई वोल्टेज ड्रामा हो सकता था। फिल्म रणवीर सिंह और गोविंदा जैसे दो सशक्त
कलाकार थे। ऐसे अनेक दृश्य हैं, जिनमें इंटेनसिटी और ड्रामा को बढ़ाया
नहीं गया है। देव को मारने निकले भैयाजी के गुर्गे का सीक्वेंस प्रहसन बन
कर रह गया है।
शाद अली पटकथा में आसान रास्ते चुनते हैं। रणवीर सिंह की स्वाभाविक ऊर्जा
का सही इस्तेमाल नहीं हो पाया है। गोविंदा ने अपने किरदार को समझा और सही
ढंग से पेश किया हे। अगर वे कम नाचते और गाते तो अधिक प्रभावशाली लगते। अली
जफर रणवीर सिंह को बराबरी का साथ नहीं दे पाए हैं। किलर की भूमिका में वे
कमजोर हैं। बॉडी लैंग्वेज और आवाज में रफनेस लाने की उन्होंने कोशिश जरूर
की है, लेकिन बात बनी नहीं है। परिणीति चोपड़ा दिशा के किरदार में नहीं ढल
सकी हैं। देव और दिशा के बीच के भावनात्मक दृश्य कम हैं। दोनों ज्यादातर
चुहल ही करते रहते हैं। चुहलबाजी में वे ठीक लगते हैं। इश्कबाजी उनसे हो
नहीं सकी है। या फिर शाद अली ने उधर ध्यान ही नहीं दिया है।
'किल दिल' के गानों के शब्दों पर गौर करें तो गुलजार ने किरदारों के स्वभाव
और भाव का अभिव्यक्ति दी है। इन अभिव्यक्तियों को शाद अली पर्दे पर नहीं
दिखा सके हैं। देव और टुटु की कुचल चुकी जिंदगी की यह दास्तान हमदर्दी नहीं
पैदा कर पाती। गीत-संगीत ज्यादा भावपूर्ण और प्रभावकारी हो गया है। गुलजार
की आवाज में बोली गई पंक्तियां कानों में गूंजती और अर्थ घोलती हैं।
अवधिः 128 मिनट
*** तीन स्टार
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