हम सब असलम : डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी
‘जेड प्लस’ के निर्देशक से बातचीत
-अजय ब्रह्मात्मज
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की अलग पहचान है। सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक विषयों के प्रति उनकी चिंताएं धारावाहिकों और फिल्मों के माध्यम से दर्शकों के समक्ष आती रही हैं। ‘पिंजर’ के निर्देशन के बाद उनकी कुछ कोशिशें सामने नहीं आ सक ीं। एक अंतराल के बाद वे ‘जेड प्लस’ लेकर आ रहे हैं। सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की यह फिल्म उनकी प्रचलित छवि से भिन्न है। ‘जेड प्लस’ के प्रोमो और लुक देखकर उनके प्रशंसक चकित हैं।
-‘पिंजर’ के बाद इतना लंबा अंतराल क्यों?
‘पिंजर’ की रिलीज के बाद मैंने कुछ फिल्में लिखीं और उन्हें निर्देशित करने की योजना बनाई। अमिताभ बच्चन के साथ ‘दि लिजेंड ऑफ कुणाल’ की आरंभिक तैयारियां हो चुकी थीं। तभी मंदी का दौर आरंभ हुआ और वह फिल्म रुक गई। उसके बाद काशीनाथ सिंह की ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित ‘मोहल्ला अस्सी’ का निर्देशन किया। यह फिल्म पूरी हो चुकी है। सनी देओल अपनी डबिंग भी कर रहे हैं। अब ‘मोहल्ला अस्सी’ के निर्माता पर निर्भर करता है कि वे फिल्म कब रिलीज करेंगे। मैंने अपना काम कर दिया है। हां, इस बीच मैंने चिन्मय मिशन के लिए ‘उपनिषद गंगा’ धारावाहिक का लेखन-निर्देशन किया। इस शोधपरक काम में काफी वक्त लगा। इस सांस्कृतिक धारावाहिक का दूरदर्शन से प्रसारण हुआ था।
-‘जेड प्लस’ क्या है? क्या यह मौलिक कहानी पर बनी फिल्म है?
यह जयपुर के लेखक राम कुमार सिंह की कहानी पर आधारित है। वे इसे उपन्यास के तौर पर लिख रहे थे। उन्होंने मुंबई प्रवास के दौरान एक शाम मुझे यह कहानी सुनाई। मुझे लगा कि इस पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती है। मैंने उनसे आग्रह किया कि अभी उपन्यास का प्रकाशन स्थगित कर दें। अपनी इस कहानी को स्क्रिप्ट का रूप दें। उनकी इस मौलिक कहानी को ही मैंने उनके साथ मिलकर फिल्म का अंतिम रूप दे दिया। ‘जेड प्लस’ हमारे समय पर एक सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य है। इस फिल्म का नायक देश का एक साधारण नागरिक है। उसके बहाने हम देश की वर्तमान राजनीति और लोकतंत्र के नृत्य पर कटाक्ष करते हैं। हां, यह मौलिक कहानी पर बनी फिल्म है।
-‘जेड प्लस’ जैसी फिल्म क्यों? आप सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषयों की पीरियड फिल्म और धारावाहिक के लिए विख्यात हैं?
वैसी फिल्मों और धारावाहिकों की संभावना कम हो गई है। बाजार उसका समर्थन नहीं करता। कहा जाता है कि पीरियड फिल्मों की लागत अधिक होती है और दर्शक कम मिलते हैं। अवसर मिले तो मैं सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषयों के बाहर ही न आऊं। वहां मेरा मन रमता है। यह भी लगता है कि आज के संदर्भ में उन विषयों पर फिल्में बनाने की जरुरत है। इधर मैं अपने समय के समाज पर अच्छे विषय की तलाश में था। संयोग से रामकुमार सिंह की कहानी में मुझे वह समकालीन संभावना दिखी। रामकुमार सजग लेखक और पत्रकार हैं। विनोदी स्वभाव के रामकुमार सिंह की टिप्पणियां मारक होती हैं। उन्होंने भारतीय समाज पर तीखा और करारा व्यंग्य किया है।
-क्या ‘जेड प्लस’ की कहानी बता सकते हैं?
भारतीय परिदृश्य में ऐसी फिल्मों की कहानी पहले से बता दी जाए तो दर्शकों का मजा किरकिरा हो जाता है। अभी यही कह सकता हूं कि यह देश के एक साधारण नागरिक की असाधारण कहानी है। देश के प्रधानमंत्री की संयुक्त सरकार गिरने वाली है। उन्हें कोई सलाह देता है कि वे अगर राजस्थान के फतेहपुर की ‘पीपल वाले पीर’ की दरगाह पर मत्था टेकें तो उनकी सरकार बच सकती है। सरकार बच जाती है। खुश होकर प्रधानमंत्री उस साधारण नागरिक का भला करना चाहते हैं। विचित्र स्थिति में देश के साधारण नागरिक और प्रधानमंत्री की इस मुलाकात में कुछ यों होता है कि सब कुछ बदल जाता है। असलम पंक्चर वाला को जेड प्लस की सिक्युरिटी मिल जाती है। सुरक्षा कवच में आने के बाद असलम पंक्चर वाला की बेचारगी और विडंबना पर ही पूरी फिल्म है। जेड प्लस सेक्युरिटी मिलने के बाद असलम पंक्चर वाला अपने शहर में मशहूर तो हो जाता है, लेकिन उसकी मुश्किलें चहुंदिशा बढ़ जाती है।
-क्या साधारण नागरिक को फिल्म का नायक बनाने का साहसी फैसला लेने में कोई असमंजस नहीं रहा?
इधर हिंदी फिल्मों के हीरो या तो सुपरहीरो होते हैं या चोर। हम लगातार डॉन, अपराधी, आतंकवादी, पॉकेटमार आदि फिल्मों के नायक के रूप में दिखा रहे हैं। छिटपुट रूप से पुलिस अधिकारी भी होते हैं, लेकिन उन्हें भी सुपरहीरो की तरह पेश किया जाता है। हिंदी फिल्मों का नायक आम नागरिक नहीं रहा। कुछ दशकों पहले तक आम आदमी फिल्मों का नायक होता था या उसकी कहानियां निर्देशक कहते थे। अभी आम आदमी को कला फिल्मों से जोडक़र किनारे कर दिया गया है। मुझे असलम पंक्चर वाला कम हीरोइक नहीं लगता। वह साहसी और मजबूत व्यक्ति है। वह अपने इरादों का पक्का है।
-असलम पंक्चर वाला के बारे में बताएं?
वह राजस्थान के फतेहपुर का आम नागरिक है। पंक्चर बनाना उसकी आजीविका है। इस फिल्म को देखते समय आप महसूस करेंगे कि हम सबमें असलम है। वह मेहनत-मजदूरी कर अपना परिवार चलाता है। उसकी जिंदगी में अचानक तब्दीली आती है। प्रधानमंत्री से हुई मुलाकात के बाद उसे जेड प्लस की सेक्युरिटी मिलती है और उसकी साधारण जिंदगी में भूचाल आ जाता है।
-इस फिल्म की शूटिंग राजस्थान के रियल लोकेशन पर करने की खास जरूरत थी क्या?
रामकुमार सिंह राजस्थान के हैं। वे वहां की भाषा, संस्कृति और सलीके से परिचित हैं। मैं भी राजस्थान से हूं। हमें असलम की कहानी के लिए राजस्थान का मंडावा शहर सही लगा। हमें फिल्म के दृश्यों के लिए जरूरी सारे लोकेशन एक ही शहर में मिल गए। पहली बार मैंने सेट वहीं लगाया है। वास्तविक लोकेशन और नैचुरल लाइट में ज्यादातर शूटिंग की है। हमें स्थानीय नागरिकों का भरपूर सहयोग मिला।
-कलाकारों के चुनाव की पसंद और प्रक्रिया क्या रही? आप की फिल्म में लोकप्रिय स्टार नहीं हैं?
हम सभी स्टार केंद्रित होते जा रहे हैं। फिल्म के कथ्य, कहानी और विषय से हमारा ध्यान हट गया है। असलम पंक्चर वाला के किरदार के लिए मुझे आदिल हुसैन से बेहतर और कोई नहीं लगा। पहले मुझे भी आशंका थी, लेकिन मिलने और बातचीत के बाद मैं आश्वस्त हो गया था कि वे असलम को निभा ले जाएंगे। उनके साथ टीवी की मशहूर अभिनेत्री मोना सिंह हैं। पहली बार मुकेश तिवारी को आप भिन्न रूप-रंग में देखेंगे। संजय मिश्र भी अनोखे किरदार में हैं। कुलभूषण खरबंदा और केके रैना के साथ मैं पहले भी काम कर चुका हूं।
-फिल्म के गीत-संगीत के बारे में क्या कहेंगे?
पहले मैंने सोचा था कि फिल्म में कोई गीत नहीं रहेगा। उसकी संभावना नहीं थी। बाद में सभी ने कहा कि फिल्म के प्रचार के लिए गीतों की जरूरत पड़ेगी। फिर सुखविंदर सिंह आ गए। उनके संगीत में एक अलग जोश और जमीनी टच रहता है। फिल्म के गीत मनोज मुंतशिर ने लिखे हैं।
-अजय ब्रह्मात्मज
डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की अलग पहचान है। सांस्कृतिक, सामाजिक और साहित्यिक विषयों के प्रति उनकी चिंताएं धारावाहिकों और फिल्मों के माध्यम से दर्शकों के समक्ष आती रही हैं। ‘पिंजर’ के निर्देशन के बाद उनकी कुछ कोशिशें सामने नहीं आ सक ीं। एक अंतराल के बाद वे ‘जेड प्लस’ लेकर आ रहे हैं। सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की यह फिल्म उनकी प्रचलित छवि से भिन्न है। ‘जेड प्लस’ के प्रोमो और लुक देखकर उनके प्रशंसक चकित हैं।
-‘पिंजर’ के बाद इतना लंबा अंतराल क्यों?
‘पिंजर’ की रिलीज के बाद मैंने कुछ फिल्में लिखीं और उन्हें निर्देशित करने की योजना बनाई। अमिताभ बच्चन के साथ ‘दि लिजेंड ऑफ कुणाल’ की आरंभिक तैयारियां हो चुकी थीं। तभी मंदी का दौर आरंभ हुआ और वह फिल्म रुक गई। उसके बाद काशीनाथ सिंह की ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित ‘मोहल्ला अस्सी’ का निर्देशन किया। यह फिल्म पूरी हो चुकी है। सनी देओल अपनी डबिंग भी कर रहे हैं। अब ‘मोहल्ला अस्सी’ के निर्माता पर निर्भर करता है कि वे फिल्म कब रिलीज करेंगे। मैंने अपना काम कर दिया है। हां, इस बीच मैंने चिन्मय मिशन के लिए ‘उपनिषद गंगा’ धारावाहिक का लेखन-निर्देशन किया। इस शोधपरक काम में काफी वक्त लगा। इस सांस्कृतिक धारावाहिक का दूरदर्शन से प्रसारण हुआ था।
-‘जेड प्लस’ क्या है? क्या यह मौलिक कहानी पर बनी फिल्म है?
यह जयपुर के लेखक राम कुमार सिंह की कहानी पर आधारित है। वे इसे उपन्यास के तौर पर लिख रहे थे। उन्होंने मुंबई प्रवास के दौरान एक शाम मुझे यह कहानी सुनाई। मुझे लगा कि इस पर एक बेहतरीन फिल्म बन सकती है। मैंने उनसे आग्रह किया कि अभी उपन्यास का प्रकाशन स्थगित कर दें। अपनी इस कहानी को स्क्रिप्ट का रूप दें। उनकी इस मौलिक कहानी को ही मैंने उनके साथ मिलकर फिल्म का अंतिम रूप दे दिया। ‘जेड प्लस’ हमारे समय पर एक सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य है। इस फिल्म का नायक देश का एक साधारण नागरिक है। उसके बहाने हम देश की वर्तमान राजनीति और लोकतंत्र के नृत्य पर कटाक्ष करते हैं। हां, यह मौलिक कहानी पर बनी फिल्म है।
-‘जेड प्लस’ जैसी फिल्म क्यों? आप सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषयों की पीरियड फिल्म और धारावाहिक के लिए विख्यात हैं?
वैसी फिल्मों और धारावाहिकों की संभावना कम हो गई है। बाजार उसका समर्थन नहीं करता। कहा जाता है कि पीरियड फिल्मों की लागत अधिक होती है और दर्शक कम मिलते हैं। अवसर मिले तो मैं सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषयों के बाहर ही न आऊं। वहां मेरा मन रमता है। यह भी लगता है कि आज के संदर्भ में उन विषयों पर फिल्में बनाने की जरुरत है। इधर मैं अपने समय के समाज पर अच्छे विषय की तलाश में था। संयोग से रामकुमार सिंह की कहानी में मुझे वह समकालीन संभावना दिखी। रामकुमार सजग लेखक और पत्रकार हैं। विनोदी स्वभाव के रामकुमार सिंह की टिप्पणियां मारक होती हैं। उन्होंने भारतीय समाज पर तीखा और करारा व्यंग्य किया है।
-क्या ‘जेड प्लस’ की कहानी बता सकते हैं?
भारतीय परिदृश्य में ऐसी फिल्मों की कहानी पहले से बता दी जाए तो दर्शकों का मजा किरकिरा हो जाता है। अभी यही कह सकता हूं कि यह देश के एक साधारण नागरिक की असाधारण कहानी है। देश के प्रधानमंत्री की संयुक्त सरकार गिरने वाली है। उन्हें कोई सलाह देता है कि वे अगर राजस्थान के फतेहपुर की ‘पीपल वाले पीर’ की दरगाह पर मत्था टेकें तो उनकी सरकार बच सकती है। सरकार बच जाती है। खुश होकर प्रधानमंत्री उस साधारण नागरिक का भला करना चाहते हैं। विचित्र स्थिति में देश के साधारण नागरिक और प्रधानमंत्री की इस मुलाकात में कुछ यों होता है कि सब कुछ बदल जाता है। असलम पंक्चर वाला को जेड प्लस की सिक्युरिटी मिल जाती है। सुरक्षा कवच में आने के बाद असलम पंक्चर वाला की बेचारगी और विडंबना पर ही पूरी फिल्म है। जेड प्लस सेक्युरिटी मिलने के बाद असलम पंक्चर वाला अपने शहर में मशहूर तो हो जाता है, लेकिन उसकी मुश्किलें चहुंदिशा बढ़ जाती है।
-क्या साधारण नागरिक को फिल्म का नायक बनाने का साहसी फैसला लेने में कोई असमंजस नहीं रहा?
इधर हिंदी फिल्मों के हीरो या तो सुपरहीरो होते हैं या चोर। हम लगातार डॉन, अपराधी, आतंकवादी, पॉकेटमार आदि फिल्मों के नायक के रूप में दिखा रहे हैं। छिटपुट रूप से पुलिस अधिकारी भी होते हैं, लेकिन उन्हें भी सुपरहीरो की तरह पेश किया जाता है। हिंदी फिल्मों का नायक आम नागरिक नहीं रहा। कुछ दशकों पहले तक आम आदमी फिल्मों का नायक होता था या उसकी कहानियां निर्देशक कहते थे। अभी आम आदमी को कला फिल्मों से जोडक़र किनारे कर दिया गया है। मुझे असलम पंक्चर वाला कम हीरोइक नहीं लगता। वह साहसी और मजबूत व्यक्ति है। वह अपने इरादों का पक्का है।
-असलम पंक्चर वाला के बारे में बताएं?
वह राजस्थान के फतेहपुर का आम नागरिक है। पंक्चर बनाना उसकी आजीविका है। इस फिल्म को देखते समय आप महसूस करेंगे कि हम सबमें असलम है। वह मेहनत-मजदूरी कर अपना परिवार चलाता है। उसकी जिंदगी में अचानक तब्दीली आती है। प्रधानमंत्री से हुई मुलाकात के बाद उसे जेड प्लस की सेक्युरिटी मिलती है और उसकी साधारण जिंदगी में भूचाल आ जाता है।
-इस फिल्म की शूटिंग राजस्थान के रियल लोकेशन पर करने की खास जरूरत थी क्या?
रामकुमार सिंह राजस्थान के हैं। वे वहां की भाषा, संस्कृति और सलीके से परिचित हैं। मैं भी राजस्थान से हूं। हमें असलम की कहानी के लिए राजस्थान का मंडावा शहर सही लगा। हमें फिल्म के दृश्यों के लिए जरूरी सारे लोकेशन एक ही शहर में मिल गए। पहली बार मैंने सेट वहीं लगाया है। वास्तविक लोकेशन और नैचुरल लाइट में ज्यादातर शूटिंग की है। हमें स्थानीय नागरिकों का भरपूर सहयोग मिला।
-कलाकारों के चुनाव की पसंद और प्रक्रिया क्या रही? आप की फिल्म में लोकप्रिय स्टार नहीं हैं?
हम सभी स्टार केंद्रित होते जा रहे हैं। फिल्म के कथ्य, कहानी और विषय से हमारा ध्यान हट गया है। असलम पंक्चर वाला के किरदार के लिए मुझे आदिल हुसैन से बेहतर और कोई नहीं लगा। पहले मुझे भी आशंका थी, लेकिन मिलने और बातचीत के बाद मैं आश्वस्त हो गया था कि वे असलम को निभा ले जाएंगे। उनके साथ टीवी की मशहूर अभिनेत्री मोना सिंह हैं। पहली बार मुकेश तिवारी को आप भिन्न रूप-रंग में देखेंगे। संजय मिश्र भी अनोखे किरदार में हैं। कुलभूषण खरबंदा और केके रैना के साथ मैं पहले भी काम कर चुका हूं।
-फिल्म के गीत-संगीत के बारे में क्या कहेंगे?
पहले मैंने सोचा था कि फिल्म में कोई गीत नहीं रहेगा। उसकी संभावना नहीं थी। बाद में सभी ने कहा कि फिल्म के प्रचार के लिए गीतों की जरूरत पड़ेगी। फिर सुखविंदर सिंह आ गए। उनके संगीत में एक अलग जोश और जमीनी टच रहता है। फिल्म के गीत मनोज मुंतशिर ने लिखे हैं।
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