'हैदर' वो है जिसने उम्मीद नहीं छोड़ी है -मिहिर पांड्या
ये
दिल्ली में सोलह दिसंबर के बाद के हंगामाख़ेज दिन थे। अकेलेपन के दड़बों
से निकल इक पूरी पीढ़ी सड़क पर थी। उम्मीद के धागे का अन्तिम सिरा था हमारे
हाथों में अौर एक-दूसरे का हाथ थामे हम खड़े थे, दिन भीड़ भरे चौराहों पर
अौर रातें शहर की सुनसान सड़कों पर निकल रही थीं। ऐसे ही एक गुनगुनी धूप
वाले दिन जब हमें लोहे की गाड़ी में भरकर अाये पुलिसिया जत्थे ने कनॉट
प्लेस से ठेल दिया था अौर हम ढपली की थाप पर जंतर-मंतर की अोर बढ़ रहे थे,
नेतृत्वकारी लड़कियों ने नारे छोड़ फिर वही अपनी पसन्द की टेक उठा ली थी…
बाप से लेंगे अाज़ादी, खाप से लेंगे अाज़ादी.. अरे हम क्या चाहते –
अाज़ादी… “अाज़ादी” की वो टेक जिसे कुछ समय पहले कश्मीर के नौजवान ने
ज़िन्दा किया था। वो नौजवान जिसने उसका घर घेरकर बैठी सशस्त्र सेना का
सामना हाथ में उठाए पत्थर से किया। वो ‘अाज़ादी’ जिसका हासिल जितना
सार्वजनिक पटल पर कठिन है, उससे कहीं ज़्यादा घर की चारदीवारी के भीतर
मुश्किल है। ‘अाज़ादी, क्यूंकि गुलामी की रात जितनी अंधेरी होती है
स्वतंत्रता का सपना उतना ही मारक तीख़ा होता है।
श्रीनगर के लाल चौक पर खड़े होकर जब उस रौंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य
में ‘हैदर’ (शाहिद कपूर) सैंकड़ों की भीड़ के सामने पुकारता है, “इस पार भी
लेंगे अाज़ादी, उस पार भी लेंगे अाज़ादी” तो यह हिन्दी के हालिया
मुख्यधारा सिनेमा में देखा गया सबसे निडर क्षण है। निडर इसलिए क्योंकि
फिल्म के कुछ अन्य हिस्सों की तरह, जहाँ फिल्म नाइंसाफियों की कथा दिखाते
हुए बार-बार संपादन में सेना के अधिकारी के संवादों को घुसाकर हिन्दी
सिनेमा का चिर-परिचित बैलेंसिंग एक्ट पूरा करने की कोशिश करती है, यह
हिस्सा सच्चाई दिखाते हुए कृत्रिम संतुलन बनाने की कोशिश नहीं करता। कथा के
मध्य लाल चौक है अौर लाल चौक के मध्य खड़ा है ‘हैदर’। हैदर, जिसने अपने
पिता की कब्र बस अभी-अभी देखी है। किसी गुमनाम तीन सौ अट्ठारहवें नम्बर की
कब्र में दफ़न पिता। हैदर ने उनके साथ अपना भोलापन, अपना बचपन, अपना घर बस
अभी-अभी खोया है। उसने गले में बड़ा सा रेडियो लटका रखा है अौर उसके गले
में फांसी का फंदा है जिससे वो माइक का काम ले रहा है। सिर्फ इस छवि भर में
बहुअायामी अर्थगर्भिता है। यह संचार माध्यमों को सत्ता द्वारा अपना भौंपू
बनाया जाना अौर इस तरह उनको दी गई प्रतीकात्मक फांसी भी है अौर स्वयं राज्य
संस्था द्वारा एक फांसी को समूचे कश्मीरी अवाम को दिया जाने वाला सबसे
स्पष्ट ‘संदेश’ बना देना भी है।
यहाँ यूएन रेज़ोल्यूशन भी है तो जिनेवा कंवेन्शन भी। यहाँ भारत भी है तो
पाकिस्तान भी। यहाँ अाज़ादी की मांग भी है तो अार्म्स फोर्सेस स्पेशल
पावर्स एक्ट भी। इस एक लम्बे मोनोलॉग में शाहिद कपूर ने संभवत: अपने जीवन
का सबसे बेहतरीन अभिनय करते हुए अकेले कांधों पर शेक्सपियर की जटिलता अौर
कश्मीर के दर्द दोनों को सम्भाला है। ‘हैदर’ में युद्ध अौर कविता दोनों है
अौर दोनों एक-दूसरे को ठीक एक सौ अस्सी डिग्री के कोण पर काटते हैं। युद्ध
जो कविता के तरल में घुल गया है। लाल चौक पर खड़ा हैदर गा रहा है ‘सारे
जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्ताँ
हमारा’… महादेश हिन्दुस्तान की यह स्वप्न पंक्तियाँ जिन्हें कभी अंतरिक्ष
में पहुँचे पहले भारतीय ने ज़मीन देखकर दोहराया था। वे स्वप्न पंक्तियाँ
जिन्हें लिखने वाला व्यक्तित्व खुद इस कविता में राजनीतिक युद्ध के घुल
जाने का जीता-जागता प्रतीक बन गया। यह नब्बे का कश्मीर है जहाँ कविता में
अाई बुलबुलों का भोलापन बदलकर ‘अॉपरेशन बुलबुल’ नामक छद्मयुद्ध हो गया है।
मध्यांतर से ठीक पहले अाये एक मानीखेज़ प्रसंग में, जो इरफ़ान के कथा में
प्रवेश का क्षण है अौर जहाँ नौजवान गूंगे कश्मीरी की भूमिका में खुद पटकथा
लेखक बशारत पीर अाते हैं, अाप घर की दीवार पर मक़बूल बट की अाधी फटी तस्वीर
देख सकते हैं। मकबूल बट की तस्वीर अौर अपने ही घर में घुसने में खुद को
असमर्थ पाता, मानसिक संतुलन खोता कश्मीर का नौजवान दोनों मिलकर यंत्रणा का
जो खौफ़नाक चेहरा प्रस्तुत करते हैं वो मेरे लिये मध्यांतर के बाद अाये
यथार्थ के किसी भी चेहरे से ज़्यादा भयावह है।
यह नब्बे के दशक का कश्मीर है। अलीगढ़ में रहकर अौपनिवेशिक काल के
क्रांतिकारी कवियों पर शोध लिखनेवाला हैदर वापस अपने घर लौट रहा है। घर,
जिसमें अब्बूजी हैं अौर मौजी हैं अौर दोनों के मध्य हैदर है। घर, जिसके
बारे में नायिका उसे रास्ते में कहती है कि तुम्हारे घर में अब ‘घर’ जैसा
कुछ बचा नहीं है। पिता गायब कर दिये गए हैं अौर माँ अब ‘अाधी बेवा’ कहलाती
हैं। लेकिन हैदर के पास ‘घर’ की स्मृति है। एक मुकम्मल स्मृति जिसे बचाने
के लिए वह लड़ रहा है। यह स्मृति महत्वपूर्ण है। ‘हैदर’ फिल्म का नायक शायद
कश्मीर की उस अंतिम पीढ़ी का प्रतिनिधि है किसके पास शांतिकाल की मौलिक
स्मृति मौजूद है। अौर मेरा मानना है कि विशाल भारद्वाज की यह फिल्म तभी
अपने सही अर्थों में समझी जा सकती है जब इसे एक पीरियड फिल्म मानकर पढ़ा
जाये। ‘हैदर’ वो है जो हमने अपने राष्ट्रवादी गौरव के अात्ममुग्ध मुगालते
में खो दिया। एक संवाद में जहाँ हैदर बोलता है, “ढूंढूगा अब्बूजी को” साथी
हैदर से सवाल पूछता है, “कहाँ? कैम्पों में? कैदखानों में?” अौर हैदर जवाब
में कहता है, “पूरा कश्मीर कैदखाना है मेरे दोस्त”। गौर कीजिए कि यहाँ
“पूरा कश्मीर कैदखाना है” की अगली ही पंक्ति है “हर जगह ढूंढूगा”। ‘हैदर’
वो है जिसने उम्मीद नहीं छोड़ी है। अौर ‘हैदर’ किसी भी हिन्दुस्तानी को
असुविधाजनक लगने की एकमात्र वजह ये होनी चाहिए कि यह कश्मीर की उस पीढ़ी के
बारे में है जिसके पास उम्मीद थी। अौर हमने उसके समूचे मुल्क को कैदखाना
बनाकर उस पूरी पीढ़ी को खो दिया, हिन्दुस्तान ने उस अंतिम उम्मीद को हमेशा
के लिए खो दिया।
हाँ, ‘हैदर’ की कथा संरचना ऊबड़-खाबड़ है। यह बाज़ मौकों पर किसी मैदान
में पहुँची नदी सा अौदात्य लिये है, तो लौट-लौटकर किसी पहाड़ी झरने को
देखने सा रोमांच भी अख्तियार करती है। कई बार यह भाव का परिवर्तन खटकता भी
है। यहाँ रौंगटे खड़े कर देने वाले दो भिन्न प्रसंगों के मध्य कथा के सबसे
मुलायम क्षण दबे पाँव चले अाते हैं। शायद ऐसा विशाल की कवितामय सिनेमाई
भाषा में फिल्म के दूसरे पटकथा लेखक चर्चित कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर के
प्रमाणिक अात्मकथ्य के जुड़ने से होता है। लेकिन इस उबड़-खाबड़ कथा संरचना
द्वारा फिल्म दर्शक को अपने मुख्य किरदार के मानसिक बियाबान से सीधे जोड़
देती है। विशाल भारद्वाज की पुरानी फिल्में, जिनमें किसी बच्चों की कविता
सी लयात्मक विरलता वाली फिल्में भी शामिल हैं अौर किसी विचारशील गद्य सी
सघन रचनाएं भी, यहाँ उन फिल्मों से निकलकर दोनों चरम ‘हैदर’ के किरदार में
दाखिल हो जाते हैं। शेक्सपियर की सबसे चर्चित त्रासदी का यह भोला नायक
स्वयं बालसुलभ बचपने अौर विचारों के जटिल कोलाहल से मिलकर बनी संरचना है,
लेकिन विशाल इस किरदार को जब कश्मीर घाटी में उतारते हैं तो वे इसके लिए
उन्नीस सौ पच्चानवे का साल चुनते हैं। पच्चानवे इसलिए क्योंकि यहाँ नायक की
स्मृतियों में शांत कश्मीर अब भी ज़िन्दा है। शेक्सपियर के भोले राजकुमार
की स्मृति में ‘घर’ की जो सुंदर सम्पूर्ण छवि है, वो यथार्थ के कठोर फर्श
से टकराकर टूट जाती है। ‘हैदर’ में यह ‘घर’ की स्मृति घर भी है अौर कश्मीर
का बीता इतिहास भी, जो नब्बे के दशक में जवान होती पीढ़ी ने अपनी अाँखों के
सामने नष्ट होते हुए देखा।
‘गज़ाला’ इस ़फिल्म का ध्रुव तारा हैं। वो दमकता केन्द्रक जिसके
इर्द-गिर्द कथा घूमती है, विपरीत ध्रुवों पर खड़े किरदार घूमते हैं। तब्बू
ने यहाँ किरदार को संवादों में कम अौर चेहरे के दमकते अौर उदास
प्रतिबिम्बों में ज़्यादा जिया है। वे ऐतिहासिक रूप से उथले नैतिक धरातल पर
खड़े किरदार में सिर्फ़ अपनी अाँखों के सहरा के माध्यम से गज़ब का अौदात्य
भरती हैं। लेकिन मैं यहाँ गज़ाला के किरदार को समूचे ‘कश्मीर’ का प्रतीक
मानकर पढ़े जाने के विचार से, जैसा फिल्म के बहुत सारे पाठों में लगातार
किया जा रहा है, कुछ असुविधा महसूस करता हूँ। क्यूँकि ऐसा करके फिर हम बहुत
ही सुविधाजनक तरीके से कश्मीर के जीते-जागते इंसानों को किसी अदृश्य
गैरमौजूद प्रतीक में बदल उन्हें सिर्फ़ उस प्रान्त के क्षेत्रफल में सीमित
कर देते हैं। यही हिन्दुस्तान के मुख्यधारा कश्मीर विमर्श का सबसे बड़ा
पेंच है, कि वो गर्व के साथ ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ कहते हुए सदा
उसके भूगोल को प्राथमिक अौर उसके नागरिकों को द्वितीयक भूमिका में फिट करने
की कोशिश करता है। अागे बढ़कर यह प्रतीकशोधक विमर्श पिता को भारत की अौर
चाचा को पाकिस्तान की भूमिकाएं दे देता है अौर बहुत ही सुविधाजनक तरीके से
फिल्म का सबसे नैतिक दिखता चरित्र जिसे फिल्म में भारतीय सेना द्वारा
यंत्रणाएं देकर मार डाला गया, इस व्याख्या में खुद भारत का प्रतीक बनकर
हमें नैतिकता की उच्च-भू प्रदान करता है।
एक निडर अौर कथ्य की जटिलता से तकरीबन कोई समझौता न करने वाली फिल्म को
हमसे व्याख्या के स्तर पर इससे ज़्यादा की उम्मीद है। इस प्रतीक गढ़ने वाली
व्याख्या की दिक्कत ये है कि यहाँ ‘हैदर’ जैसी फिल्म, जो शायद हिन्दी
सिनेमा के उन दुर्लभ अवसरों में से एक है जब अप परदे पर कश्मीर के नाम पर
नयनाभिरामी दृश्य अौर उन्हें देखते दिल्ली से अायातित किरदारों को नहीं देख
रहे हैं, में मौजूद असली कश्मीरी मध्यवर्गीय कामकाजी परिवार अौर उसकी गति
देखकर हम उन्हें भी अपनी सुविधानुसार उसी कश्मीर-भारत-पाकिस्तान की पहले से
निर्धारित भूमिकाअों में फिट करने की कोशिश करते हैं। इसके ऊपर वो बात भी
असुविधा का कारण है जो स्त्री को माँ की भूमिका में अौर फिर ‘माँ’ को देवी
के, राष्ट्र के, धरती के प्रतीक में बदलने से उपजती है। जैसा अाज के इंडियन
एक्सप्रेस में एक माँ ने प्रधानमंत्री को लिखे खुले खत में कहा, “कृपा
करके हमें बस माँ ही रहने दें अौर कभी देश, कभी धरती अौर कभी नदी होने का
भार हम पर ना डालें”।
सिनेमैटोग्राफर पंकज कुमार के लिए ‘शिप अॉफ थीसियस’ के बाद यह दूसरा
मास्टरस्ट्रोक है। कुमार का कैमरा यहाँ मुझे कई जगहों पर नूरी बिल्जे चेलान
की ‘वन्स अपॉन ए टाइम इन एनाटोलिया’ की याद दिलाता रहा। चेलान की फिल्मों
की तरह उनका कैमरा परदे पर उस बियाबान को रचता है जिसे शब्दों में
अभिव्यक्त किया जाना संभव नहीं। उनकी कैमरा कला में ‘सत्यम’ अौर ‘सुन्दरम’
का अद्भुत मिश्रण है। एक अोर वे अपनी कला में ठहराव के साथ कथा के
अन्तर्निहित गाम्भीर्य को परदे पर गढ़ते हैं, वहीं पटकथा के माकूल मोड़ों
पर वे हैन्डहैल्ड कैमरा शॉट्स के साथ किरदार की बदहवासी को जीवंत कर देते
हैं। साथ ही यहाँ ‘बिस्मिल’ गीत के नृत्य निर्देशक सुदेश अधाना का विशेष
उल्लेख भी ज़रूरी है। उनकी अग्निधर्मा नृत्य मुद्राएं गुलज़ार के लिखे गीत
की ज़हर बुझी पंक्तियों से जब मिलती हैं तो परदे पर साक्षात शिव के तांडव
को देखने सा अाध्यात्मिक अानंद हासिल होता है। एक अौर विशेष उल्लेख इस
फिल्म के पार्श्वसंगीतकार का। विशाल भारद्वाज का यह रूप उनके चर्चित
निर्देशक अौर संगीतकार रूपों के पीछे सदा दबकर रह जाता है, लेकिन यहाँ
इरफ़ान की बहुचर्चित छोटी सी भूमिका में छिपे चमत्कार को समझने के लिए
विशाल के उस प्रयोगात्मक पार्श्वसंगीत की धुन को पकड़ना ज़रूरी है जिसने
इरफ़ान की अद्भुत कलाकारी को चार चाँद लगाये हैं।
अन्त में मुश्किल सवाल – क्या ‘हैदर’ अपने अन्त तक पहुँचते-पहुँचते
कश्मीर की समस्या को हमारे मुल्क के मुख्यधारा कश्मीर विमर्श के अनुसार
अनुकूलित करने की कोशिश करती है? अौर जवाब है – हाँ करती है। ‘हैदर’ अन्त
की अोर बढ़ते हुए किसी अनुकूल निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश में यह दोहराती
है कि ‘इन्तक़ाम से सिर्फ़ इन्तक़ाम पैदा होता है’ अौर सिद्धान्त: इस
वाक्यांश से पूर्ण सहमति होते हुए भी यह वाक्यांश देखी गई फिल्म के संदर्भ
में मुझे व्यर्थ सा लगता है। कश्मीर के संदर्भ में कहीं ज़्यादा ज़रूरी हम
भारत के नागरिकों के लिए यह समझना है कि ‘बेइंसाफियों से सिर्फ़ अौर
ज़्यादा बेइंसाफ़ियाँ पैदा होती हैं’। लेकिन इस अन्तिम हिस्से का व्यर्थ सा
लगना कहीं बाक़ी फिल्म की ईमानदारी की प्रतिक्रिया में ही उपजा भाव है।
कथा कहने की वो सच्चाई बाक़ी फिल्म का प्रतिबिम्ब ही है जो इस कृत्रिम अन्त
की सीमित सोच को अाइने में साफ़ उजागर कर देती है। इसीलिए फिल्म के
निष्कर्ष की सीमित सोच को चिह्नित करने के बावजूद कहना होगा कि इस अन्त के
बावजूद ‘हैदर’ का होना मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा में एक दुर्लभ उपस्थिति है,
जिसे सहेजकर रखे जाने की ज़रूरत है।
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