हैदर : कश्मीर के कैनवास पर हैमलेट - जावेद अनीस
-जावेद अनीस
सियासत बेरहम हो सकती है,
कभी कभी यह ऐसा जख्म देती है कि वह नासूर बन जाता है, ऐसा नासूर जिसे कई पीढ़ियाँ ढ़ोने
को अभिशप्त होती हैं, आगे चलकर यही सियासत इस नासूर पर बार-बार चोट भी करती जाती है
ताकि यह भर ना सके और वे इसकी आंच पर अपनी रोटियां सेकते हुए सदियाँ बिता सकें।
1947 के बंटवारे ने इन उपमहादीप को कई ऐसे नासूर दिए हैं जिसने कई सभ्यताओं-संस्कृतियों
और पहचानों को बाँट कर अलग कर दिया है जैसे पंजाब, बंगाल और कश्मीर भी। इस दौरान कश्मीर भारत और पाकिस्तान
के लिए अपने-अपने राष्ट्रवाद के प्रदर्शन का अखाड़ा सा बन गया है।
पार्टिशन
से पहले एक रहे यह दोनों पड़ोसी मुल्क कश्मीर को लेकर दो जंग भी लड़ चुके हैं,
छिटपुट संघर्ष तो बहुत आम है। आज कश्मीरी फौजी सायों और
दहशत के संगिनियों में रहने को मजबूर कर दिए गये हैं। खुनी सियासत के इस खेल
में अब तो लहू भी जम चूका है। आखिर “जन्नत” जहन्नम कैसे
बन गया, वजह कुछ भी हो कश्मीर के जहन्नम बनने की सबसे ज्यादा कीमत कश्मीरियो ने ही
चुकाई है,सभी कश्मीरियों ने।
ऐसी कोई फिल्म याद नहीं
आती है जो कश्मीर को इतने संवदेनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हो लेकिन शेक्सपियर प्रेमी फ़िल्म डायरेक्टर विशाल
भारद्वाज अपनी नयी फिल्म 'हैदर' में कश्मीर और “जन्नत के बाशिंदों” के दर्द को
बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उकेरने में कामयाब रहे है।
इसी बात को लेकर आज
दोनों मुल्कों में हंगामा बरपा है, दरअसल भारत और पाकिस्तान
दोनों मुल्कों में कश्मीर पर खुल कर और अलग नजरिये से बात करना “टैबू” माना जाता है। पाकिस्तान में तो 'हैदर'
रिलीज़ ही नहीं हो पायी क्योंकि वहां के सेंसर बोर्ड का मानना है कि फिल्म में कश्मीर को लेकर कुछ विवादास्पद बातें हैं और उन्हें इसके कहानी के कुछ हिस्सों पर एतराज़ है।
इधर भारत में भी ‘हैदर’ को
तारीफ के साथ साथ विरोध का भी सामना करना पड़ रहा है,सोशल मीडिया में इसको लेकर काफी विरोध हो रहा है।
लेकिन 'हैदर' कोई कश्मीर पर बनी फिल्म नहीं है और ना ही
इसके मेकर ऐसा कोई दावा करते हैं,यह तो शेक्सपियर के मशहूर नाटक “हैमलेट” पर आधारित
हैं, विशाल खुद कहते हैं कि ‘मैं 'हैमलेट' को कश्मीर में बनाना चाहता था लेकिन मेरी फिल्म में एक तरह से कश्मीर ही 'हैमलेट' बन गया है’। इससे पहले भी विशाल भारद्वाज “मैकबेथ” और “ओथेले” जैसी शेक्सपियर की रचनाओं
पर 'मक़बूल'
और 'ओंकारा' जैसी
फिल्में बना चुके हैं। लेकिन इस बार उन्होंने “हैमलेट” को 'हैदर' बनाने के लिए ज्यादा यथार्थवादी और संवदेनशील कैनवास को चुना। एक
फिल्मकार के लिए 'हैमलेट' और कश्मीर को
एक साथ चुनना दो नावों की सवारी की तरह है, लेकिन फिल्म मेकिंग भी रचनाकर्म होता
हैं और फिल्म मेकिंग जैसे बाजार पर निर्भर एरिया में दो नावों पर सवारी के लिए
हिम्मत और काबलियत दोनों की जरूरत पड़ती है।
“हैदर” इंसानी फितरतों-मोहब्बत,फरेब,नफरत,बदला,पछतावा और “जन्नत के
बाशिंदों” की कहानी है। यह 1990
दशक
के कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म है, मुख़्तसर कहानी यू है कि अलीगढ़ में पढ़ रहे हैदर मीर
यानी शाहिद कपूर को अपने घर कश्मीर लौटना पड़ता है
क्योंकि उसके पिता डॉक्टर हिलाल मीर (नरेंद्र झा) द्वारा एक आतंकवादी का अपने घर
में ऑपरेशन करने की वजह से उन्हें आर्मी अपनी गिरफ्त में ले लेती है। इसके बाद से ही डॉक्टर हिलाल लापता हो जाते हैं। हैदर उन्हें
ढूढने के लिए निकल पड़ता हैं। इस दौरान हैदर पर पहाड़ टूट पड़ता है जब उसे
अपने पिता के मौत के असली वजह का पता चलता है, उसका दुख और क्रोध तब और बढ़ जाता है
जब उसे मालूम होता है कि उसकी मां ग़जाला मीर (तब्बू) और उसके चाचा खुर्रम मीर (केके
मेनन) के बीच संबंध है। प्रतिशोध की आग में “हैदर” कवि
से हत्यारा बन जाता है।
सभी कलाकारों का अभिनय लाजवाब
है, तब्बू ने ग़जाला के किरदार को शिद्दत से जिया है, वे अपने
किरदार में आये उतार चढाव में बहुत आसानी से उतर जाती हैं इस दौरान उनके चेहरे का
भाव देखते ही बनता है। वही शाहिद कपूर ने अभी तक का अपना बेस्ट दिया है,
“बिस्मिल” गाने मे वो
बेमिसाल रहे हैं, इरफान खान थोड़े से समय के लिए परदे पर आते हैं और महफ़िल लूट ले
जाते हैं, एक–आध दृश्यों में उनकी भावप्रणय आंखे और संवाद अदायगी जादू सा जगा देती
है। विशाल भारद्वाज निर्देशक
के रूप में बेहतरीन रहे हैं। उन्होंने दो नावों की सवारी बखूबी निभाई है, उनकी देखरेख में
सिनेमा का मिलन जब शेक्सपियर और कश्मीर के साथ होता है
तो इस माध्यम की ताकत
देखते ही बनती है।
फिल्म के
स्क्रिप्टराइटर बशरत पीर हैं जो कि खुद एक कश्मीरी हैं, उन्होंने कश्मीर के दर्द
पर “कफ्र्यू नाइट” जैसी किताब लिखी है, शायद उन्हीं की वजह से फिल्म इतनी संवदेनशील बन पड़ी है।
हैदर
में ख़ामोशी का भी बहुत ही ख़ूबसूरती से उपयोग किया गया है, यहाँ तक कि बेक ग्राउंड
म्यूजिक भी बहुत धीमा है।
गुलजार और विशाल की जोड़ी ने उर्दू के नामी शायर “फैज अहमद फैज” की
"हम देखेंगे",“कफस (पिंजरा)उदास है यारो”और "आज के नाम" जैसी नज्मों की पंक्तियों को भी फिल्म का हिस्सा बनाया है, फैज़ यहाँ
भी रेलेवेंट है और फिल्म में इसका खास असर भी होता
है।
फिल्म में कश्मीर की
खूबसरत और बर्फीली वादियाँ भी हैं लेकिन इन्हें खून से सनी और आतंक व खौफ के साए में
देख कर हमारे दिलो दिमाग पर अजीब सी सिहरन तारी हो जाती है, दर्द और दहशत भी खूबसूरती
का लिबास ओढ़े हुए मालूम पड़ते हैं। खूबसरत कश्मीर “क़ैदख़ाना"
सा लगता है।ऐसे लगता है कि इसकी खूबसूरती ही
इसके गले का फंदा बन गयी है। फिल्म हमें कश्मीर की रुह तक ले जाती है, इसमें खूबसूरती
और शोकगीत एक साथ हैं।
फिल्म में झेलम भी है लेकिन वो भी गायब कश्मीरियों को ढूढती हुई उदास दिखाई पड़ती है।
फिल्म में झेलम भी है लेकिन वो भी गायब कश्मीरियों को ढूढती हुई उदास दिखाई पड़ती है।
हैदर अपने शुरुआत में ही एलान कर देती है कि वह "जिंदगी की तरफ" है। केवल एक परिवार की कहानी होने के बावजूद, यह कश्मीर से लापता और विस्थापित हुए लोगों की बात करती है। फिल्म में ‘अफस्पा’ (आर्मड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट) भी सवाल उठाया गया है और व्यंग्य में इसे “चुस्पा’, कहा गया गया है।
फिल्म का बयान है कि कश्मीर
हाथियों (भारत और पाकिस्तान) की लड़ाई में पिस रही घास है। एक दृश्य में एक जवान लड़का अपने घर के अन्दर तब
तक नही घुसता है जब तक कि उसकी तलाशी न हो जाये। अस्तित्व की इसी लड़ाई में
कश्मीरी युवाओ का प्रतीक हैदर सवाल पूछता फिरता है कि “मैं हू या
मैं नहीं हू”। अंत में ‘हैदर’ अपने चाचा खुर्रम
की “नजरों के फरेब” का बदला लेने के लिए रिवॉल्वर
उठाता तो है मगर गोली नहीं चलाता, वह माँ के पक्ष को चुनता है जो कहती है कि “इन्तक़ाम से सिर्फ़
इन्तक़ाम पैदा होता है”।
देश के बाकी हिस्सों में
कश्मीरियों को किस नज़र से देखा जाता यह याद दिलाने कि जरूरत नहीं है, पिछले ही
दिनों मध्य प्रदेश के उज्जैन में विक्रम विश्वविद्यालय के परिसर और वी.सी.
कार्यालय में विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हंगामा और
तोड़फोड़ किया है, विश्वविद्यालय के कुलपति का बस इतना ही दोष था कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर
में आयी प्राकृतिक आपदा के मद्देनजर विश्वविद्यालय में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों की
मदद की अपील की थी। वी.सी. जवाहरलाल कौल जो कि खुद “कश्मीरी पंडित” हैं इस
बदसलूकी से इतना आहत हुए कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा,वे कुछ दिनों तक आईसीयू में भी रहे, यह है
कश्मीरियों को लेकर हमारी संवदेना जो विकराल प्राकृतिक आपदा के समय भी नहीं पसीजती। डंडे के बल और अविश्वास के छाए में राष्ट्र निर्माण
नहीं होता है, राष्ट्रनिर्माण तो आपसी हितों के सांझा होने से होता है, शेष भारत
को अपने गिरेबान में भी झांकना होगा, क्या हमने “कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगें” के
नारे लगाने के अलावा ऐसी कोई गंभीर कोशिश की है जिससे कश्मीर और कश्मीरियों के विश्वास
और कुर्बत को जीता जा सके और हमारे हित साँझा हो सकें।
उलटे हम में से कुछ तो अलगाववादियों की तरह उन्हें पंडित और मुसलमान कश्मीरियों में
बाँटने की कोशिश में नज़र आते हैं।
मैं ना तो कभी कश्मीर गया हूँ और ना ही
शेक्सपियर का “हैमलेट”
पढ़ा है, लेकिन इस फिल्म ने जहां इन दोनों से मेरा तआरुफ़ बहुत करीब से कराया है
वहीँ हमारे वक्त में कश्मीरी होने के दर्द से भी मुड भेड़ कराया है, अपने सौ-दो सौ करोड़
क्लब की अनाप–सनाप फिल्मों पर इतराते वाले बालीवुड में हैदर बनाना बड़े हिम्मत का
काम है।
हमारी फिल्म इंडस्ट्री और दर्शकों को ऐसे फिल्मों पर भी इतराने के लिए समय निकलना
चाहिए।
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