हैदर: हसीन वादियों में खूंरेज़ी की दास्तान - व्यालोक
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हैदर नाम की इस फिल्म को अगर आप
कश्मीर-समस्या के बरक्स देखेंगे, तो कई तरह की गलतफहमी पैदा होने के अंदेशे हैं।
यह मुख्यतः और मूलतः एक व्यक्तिगत बदले की कहानी है, जिसके इर्द-गिर्द विशाल
भारद्वाज ने कश्मीर की हिंसा और उसकी समस्या को उकेरने की कोशिश की है। चूंकि,
विशाल एक बड़ा नाम हैं, तो उनके साथ इस फिल्म को इस कदर नत्थी कर दिया गया है,
जैसे उन्होंने कश्मीर पर अपनी राय का अनुवाद इस फिल्म के माध्यम से करने का किया
है।
‘हैदर’ देखते हुए आपका कई बार ट्रांस में जाना एक आमफहम बात है। यह फिल्म दरअसल
एक Absurd पेंटिंग की तरह का इफेक्ट पैदा करती है, जिसमें कई
तरह के रंगो-बू बिखरे हैं, कई तरह के भावों और ‘रसों’ (सब्जी नहीं, साहित्य वाला) की कीमियागरी है और है- गीत, संगीत और
सिनेमेटोग्राफी का एक ऐसा कैनवस, जिस पर फिल्म केवल फिल्म नहीं रह जाती, वह बन
जाती है-एक पेंटिंग, एक कविता।
फिल्म के कई दृश्य ऐसे हैं, जो विशाल
भारद्वाज के ‘स्पेशल इफेक्ट्स’ हैं, उनकी ही बपौती हैं। जैसे,
कब्रों को खोदते हुए गानेवाले तीन बूढ़ों की बातचीत, या कब्र खोद कर उसी में लेट
जानेवाले बूढ़े और हैदर (यानी शाहिद) रूहदार और डॉकसाब के बीच की बातचीत, हैदर औऱ
गज़ाला के बीच की नाटकीय समक्षता- ये सभी इस फिल्म को Noire का दर्जा देते हैं।
फिल्म की जान इसकी सधी हुई स्क्रिप्ट
है, और इसका निर्देशन भी। इस फिल्म की थोड़ी सी सुस्ती भी इन्हीं दोनों के खाते
जाएगी। फिल्म के सह-लेखक बशारत पीर मूल तौर पर कश्मीर के ही हैं। उनके पिता भी
कश्मीर के प्रशासनिक अमले का हिस्सा ही थे (या हैं, पता नहीं)। पत्रकारिता के अपने
अनुभव का फायदा भी ज़ाहिर तौर पर उन्होंने किस्सागोई के अपने अंदाज़ में उठाया है,
और ज़ाहिर तौर पर पिता और घर का अनुभव भी उनके काम आय़ा ही होगा। उनका बचपन कहने की
बात नहीं कि काफी Disturbed
रहा होगा, और क्या हम यही वजह मान लें कि फिल्म बाज़ दफा ‘भारत’ की तरफ ऊंगली उठाती दिखती है, Indian
State को कसूरवार ठहराती है।
हालांकि, यह कहना सरलीकरण होगा, फिर
भी फिल्म के जितने भी खल या खल जैसे पात्र हैं, वे भारतीय सत्तातंत्र के हिस्सा
हैं। अलगाववादियों के अपने तर्क हैं, मसाइल हैं और जज्बात हैं। कश्मीर पर किसी भी ‘बाहरी’ का टिप्पणी करना उसी तरह का है, जैसे सात अंधे हाथी को छू कर उसका वर्णन
करते हैं और हरेक के लिए हाथी अलग वस्तु होता है। किसी के लिए रस्सी, तो किसी के
लिए सूप।
हैमलेट औऱ कश्मीर-समस्या के बीच की
पृष्ठभूमि में हैदर का पूरा ताना-बाना रचा गया है। यह ज़ाहिर तौर पर एक कसी हुई
रस्सी पर चलने जैसा ही है और इसे विशाल-बशारत की जोड़ी ने बखूबी निभाया भी है। अगर
यह लेखक ठीक तरह याद कर सका है, तो फिल्म के एक दृश्य में खुद बशारत पीर कैमरे के
सामने हैं। वह एक कश्मीरी युवक बने हैं, जो अपने घर के सामने ही ठिठक कर खड़ा है। वह
तब तक अंदर नहीं जाता जब तक कोई उसके आई कार्ड की जाँच करके और उसकी तलाशी लेकर
उसे अंदर जाने नहीं कहता। दर्शक की हालत ठीक उस आदमी की तरह होती है, जब बहुत ऊंचे
झूले से आप अचानक नीचे आते हैं और आपका कलेजा धक् से रह जाता है।
इस फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं, कई आयाम हैं, जब
आप धक् से रह जाएंगे। कई रूपक, कई Metaphor ऐसे हैं कि
दर्शक एक अजीब सी असहजता से भर जाए। फ़िल्म की मुश्किल भी
यही है कि यह रूपकों में अधिक बातें कहने की कोशिश करती है। हालांकि, कश्मीर में
उस पीढ़ी की त्रासदी को समझने की केवल
कोशिस ही की जा सकती है, जिसे घर जाने के लिए कदम-कदम पर तलाशी देनी पड़ी है,
जिसके कई लोग Disappear ही रह गए, या कई साल बाद उनकी लाशें मिली, या जब
रात-दिन संगीनों के साए में जिंदगी तमाम हो रही हो।
बहरहाल, फिल्म में अगर आप खलनायक पर उंगली रखना चाहेंगे, तो शायद
ही रख पाएं। वह कौन है? भारतीय स्टेट- जिसका प्रतिनिधित्व आशीष
विद्यार्थी सहित कई अभिनेताओं ने किया है। वह खुर्रम, जो कश्मीरी नेताओं का
नुमाइंदा है, जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए, कश्मीर को शतरंज की बिसात में बदल
दिया? वह पुलिसवाला, जो कश्मीरी प्रशासन का रूपक पेश करता
है- भ्रष्ट, डरपोक और चालबाज? या, फिर सीमा पार से आनेवाला
आतंकवाद ? या, फिर वह आम कश्मीरी, जिसका प्रतिविधित्व हैदर
का बाप (नरेंद्र झा) करता है, जो अपनी बीवी के यह पूछने पर कि वह किसके साथ है,
कहता है- ज़िंदगी के साथ। कौन है, खलनायक? आप किसी एक पर
उंगली नहीं रख पाएंगे।
यही निर्देशक की ईमानदारी है। वह भटका नहीं है, न भटकाने की कोशिश
की है। फ़िल्म में छायांकन, पार्श्व संगीत और अभिनय तो कमाल का है।
कुछ दृश्यों में पहली बार शाहिद के अभिनय में उनके पिता की झलक दिखती है। के के
मेनन बहुत दिनों के बाद अपने पूरे रंग में दिखे। हैदर के पिता की भूमिका में
नागेन्द्र झा बेहतरीन हैं। उनका उच्चारण हर दृश्य में सबसे सटीक रहा। श्रद्धा कपूर
भी अपने अभिनय से छाप छोड़ती हैं। वैसे, महफिल लूट कर तो इऱफान ही ले जाते हैं।
इस फिल्म को देखने के बाद पता चल जाता है कि इरफान खान इस पीढ़ी के एकमात्र Stylish
अभिनेता हैं। सारे खान, कपूर...कोने मे हो
जाएं। इरफान की अदा, अंदाज़ और सलीका बेमिसाल है....असंभव है,
अद्वितीय है..सिनेमाहॉल में जब 'हैदर' चल रही होती है और इसमें इरफान धांसू एंट्री मारते हैं, तो हॉल में सीटियों और तालियों की आवाज़ बता देती है कि इस बेहद निराशाजनक
समय में भी, जब cliche ही paradigm
हो गया है,....Conformism ही Breakthrough
का पर्याय है... फिर भी, सुख और संतोष की तमाम
वजहें बची हैं। आज की वाहियात फिल्मों के दौर में एक गंभीर फिल्म में, एक चरित्र
अभिनेता का इतना गंभीर स्वागत सचमुच आनंद का सबब है।
लेखक पहले भी कह चुका है कि फिल्म व्यक्तिगत
बदले की कहानी है और सरलीकरण का फायदा उठाते हुए भी यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि
कश्मीर-समस्या भी मूल तौर पर पर्सनल ही है। जिन लोगों ने कुछ खोया है, वही तो
कश्मीर में एक पार्टी हैं। भले ही, ऐसे लोगों की संख्या लाखों में चली गयी है।
फिल्म हैदर और उसके बदले की, हैदर और उसके मां के रिश्ते की, हैदर और उसके बाप के
संबंधों की, हैदर और उसके चाचा के बीच के बदले की कहानी है।
पर्सनल कहानी को पॉलिटिकल मेटाफर देने के चक्कर
में ही विशाल और बशारत कई जगह फिसले भी हैं, जिससे कुछ जगह लगता है, कि वह मानों
अलगाववादियों की पैरवी करने के ख्याल से ही बैठे हैं। उदाहरण के लिए, कश्मीर में
भी अनंतनाग को इस्लामाबाद शायद ही कोई कहता होगा। इस दृश्य को परदे पर उतारने का
मकसद साफ नहीं हो पाता है। इसी तरह कब्रों में लेट जाने का रूपक भी स्पष्ट
नहीं, वह भी दर्शकों की समझदारी पर छोड़ दिया गया है। कश्मीरी पंडितों का सिरे से
जिक्र न होना भी फिल्म की बहुत बड़ी कमज़ोर कड़ी है औऱ भारतीय सेना पर कुछ अधिक ही
कठोर होना भी फिल्म के कुछ अंक तो कम करता ही है।
बहरहाल, कश्मीर पर बात करना जिस तरह से तीखी
तलवार की धार पर चलना है, उसे देखते हुए विशाल और बशारत की बड़ाई होनी चाहिए।
बैलेंस को जितना भी संभव हो, इन्होंने बनाए रखा है, पर शायद थोड़ा सा बशारत का
अपना पर्सनल उनके क्रिएटिव पक्ष पर हावी हुआ है। यह भी मेरा कयास मात्र है।
तब्बू अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ रोल में हैं और
आज की नायिकाओं को दिखाती हैं कि अभिनय का मतलब कपड़े उतारना नहीं होता है। कपड़े
पूरे पहनकर भी किस कदर आग भड़कायी जा सकती है, किस कदर passion
को हवा दी जा सकती है और किस तरह अभिनय के नए शिखर छुए जा सकते हैं।
गानों की कोई खास ज़रूरत फिल्म में नहीं थी और वे
फिल्म की रफ्तार को तोड़ते ही हैं। धीमा ही करते हैं। वैसे, बिस्मिल.... गाना
अच्छा बन पड़ा है। सिनेमेटोग्राफी की जितनी बड़ाई करें, कम है, जिसने कश्मीर को
भी, उसकी वादियो, झरनों को भी एक अभिनेता, एक पात्र बना दिया है।
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