सियासत और सेना की नजर से ना देखें कश्मीर -धर्मेन्द्र उपाध्याय
-धर्मेन्द्र उपाध्याय
मजबूर इंसानों की आंहे कभी खाली नहीं जाती हैं, चाहे इन आहों से कोई त्वरित क्रांति नहीं हो पर भविष्य में इन आहों का असर आवाम के बीच उनकी दबी सिसकियों को जरूर रखता है । अगर एक लाइन में कहूं तो हैदर के बारे में इतना ही कहना चाहूंगा ।
उत्तर भारत में रह रहे भारतीयों ने काश्मीर को हमेशा सेना और सियासत के नजरिए से देखा है । कश्मीर से उठने वाली अलगाव वादी आवाजों को एक ही झटके में आतंकवाद का नाम देकर हम हाशिये पर फेंक देते हैं पर किसी ने उन आवाजों में छुपे बेगुनाह मासूमों की तरफ नही देखा है जो चाहे अनचाहे आतंकवाद नहीं, जिंदगी के हक में खड़े हुए हैं।
हैदर भले ही अपने शीर्षक के कारण शाहिद कपूर स्टारर फिल्म नजर आती हो पर वह अंदर से तब्बू की फिल्म है । इस फिल्म मेंतब्बू के निभाए किरदार गजाला मीर के जरिए विशाल भारद्वाज उन औरतों की आत्मा में उतर जाते हैं जो अपने रूप सौंदर्य और अपने पारिवारिक लगाव के अंर्तद्वंद में घिरी रहती हैं । हर किशोरवय उम्र के बच्चे की मां को यह फिल्म देखनी चाहिए और महसूस करना चाहिए कि कहीं वह अपनी भावुक संतान के प्यार को बांट तो नहीं रही है। दरअसल भावुकता भी एक तरह का रोग है । यह कश्मीर मुद्दे के साथ रिश्तों की कहानी भी हैं। जहां ये मां बेटे के रसायन को प्रकट करती है वहीं युवा हैदर के पिता प्रेम को देख उदयप्रकाश की कहानी तिरिच का स्मरण हो जाता है।
इस फिल्म से शाहिद कपूर ने पंकज कपूर के बेटे होने का कलात्मक तमगा भी हासिल कर लिया है। लाल चौक पर युवाओं को संबोधित कर रहा गंजा हैदर अभिनय के मामले में भी चौंका देता हैं। इस दृष्य में शाहिद परिस्थितियों से नाराज हैदर से तादात्म स्थापित कर लेते हैं। शाहिद इस फिल्म में रॉकस्टार के रणवीर की याद दिलाते हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि विशाल भारद्वाज को महिलाओं के अंत:स्थल में पहुंचना बहुत अच्छी तरह से आता है । मध्यमवर्गीय संस्कारों में पले बढे वे विशाल ही थे , जिन्होंने एकता कपूर के साथ बनाई फिल्म एक थी डायन में विमाता के अंतर्मन में डायन को परिभाषित किया । बतौर फिल्मकार हैदर विशाल को एक कदम आगे खड़ा कर देती है, पर उन्हें अपनी आत्ममुगधता से बचना होगा । एक निर्देशक के लिए आत्मनिष्ठ होना जितना आवश्यक है उतना ही आत्ममुगधता से बचते हुए आत्म अवलोकन करना जरूरी होता है।
कोई निर्देशक अपने कंटेट से समझौता ना करे फिर भी मुखधारा में फिल्म बनाने पर दर्शकों के प्रति भी निर्देशक की जिममेदारी होती है। मुखयधारा के सिनेमा के लिए फिल्म निर्माण करने वाले निर्देशक को वाल्मीकि जैसी दुरूह बनने के बजाय तुलसी जैसा सरल होना चाहिए ।
बेशक, हैदर के पिता डॉ मीर के रूप में बॉलीवुड को एक बेहतरीन कलाकार मिला है। के के मेनन ने अपने किरदार के प्रति पूरी निष्ठा बरती है तो निर्देशक विशाल ने उन्हें खालिस खलनायक की बजाय दिल से मजबूर होकर भयावह भविष्य को जन्म देने वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है। जैसे जब हैदर उसे मारने के लिए होता है तो वह दुआ में अपने खुदा से गुनाहों की माफी मांग रहा होता है।
फिल्म देखते हुए मैंने महसूस किया कि इंटरवल के समय फिल्म मे रूहदार की इंट्री होते ही फिल्म के प्रति दर्शकों का क्रेज बढ़ा जाता है । लेकिन क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फिल्म बोझिल सी होने लगती है। फिल्म को थोड़े संपादन की जरूरत थी । कब्रिस्तान में कब्र खोदते समय हुआ गाना दशकों को बोझिल करता है , क्योंकि इन किरदारों के बारे में निर्देशक ने पहले दर्शकों को बताया नही है।
फिल्म की शुरुआत में संवादों के उच्चारण में घर को गर और भाई को बाई कहना विशाल और लेखक बशारत पीर की नेक खयाली है । यह बात दर्शकों को कश्मीर से जोड़ती है। पर बाद में वे इसे हास्य के अंदाज में प्रस्तुत कर देते हैं जिससे बात बिगड़ती हैं।
गंभीर फिल्म में हास्य इस तरह पिरोना थोड़ा भौंडा लगता है। नायक नायिका की आपसी बातचीत में तो ये हास्य लगता है पर जब एक कशमीरी युवा के घर में घुसने की बात पर भी सिनेमाहॉ़ल में बैठे दर्शक हंसते हैं तो एकबारगी फिल्म की सारी गंभीरता मिटती नजर आती है। खासकर ऐसी फिल्म में सलमान के फैन दो दोस्तों के किरदार चांद में दाग जैसे नजर आते हैं।
हैदर का संगीत भले ही औसत हो पर गाना बिस्मिल कथानक से जुड़े होने के कारण असर छोड़ता है। ये शब्द अदायगी के मामले में जब जब फूल खिले के गाने , एक था गुल और एक थी बुलबल और प्रस्तुतिकरण के लिहाज से साथ सुभाष घई की कर्ज की एक हसीना थी के फिल्मांकन की याद दिला देता है।
मजबूर इंसानों की आंहे कभी खाली नहीं जाती हैं, चाहे इन आहों से कोई त्वरित क्रांति नहीं हो पर भविष्य में इन आहों का असर आवाम के बीच उनकी दबी सिसकियों को जरूर रखता है । अगर एक लाइन में कहूं तो हैदर के बारे में इतना ही कहना चाहूंगा ।
उत्तर भारत में रह रहे भारतीयों ने काश्मीर को हमेशा सेना और सियासत के नजरिए से देखा है । कश्मीर से उठने वाली अलगाव वादी आवाजों को एक ही झटके में आतंकवाद का नाम देकर हम हाशिये पर फेंक देते हैं पर किसी ने उन आवाजों में छुपे बेगुनाह मासूमों की तरफ नही देखा है जो चाहे अनचाहे आतंकवाद नहीं, जिंदगी के हक में खड़े हुए हैं।
हैदर भले ही अपने शीर्षक के कारण शाहिद कपूर स्टारर फिल्म नजर आती हो पर वह अंदर से तब्बू की फिल्म है । इस फिल्म मेंतब्बू के निभाए किरदार गजाला मीर के जरिए विशाल भारद्वाज उन औरतों की आत्मा में उतर जाते हैं जो अपने रूप सौंदर्य और अपने पारिवारिक लगाव के अंर्तद्वंद में घिरी रहती हैं । हर किशोरवय उम्र के बच्चे की मां को यह फिल्म देखनी चाहिए और महसूस करना चाहिए कि कहीं वह अपनी भावुक संतान के प्यार को बांट तो नहीं रही है। दरअसल भावुकता भी एक तरह का रोग है । यह कश्मीर मुद्दे के साथ रिश्तों की कहानी भी हैं। जहां ये मां बेटे के रसायन को प्रकट करती है वहीं युवा हैदर के पिता प्रेम को देख उदयप्रकाश की कहानी तिरिच का स्मरण हो जाता है।
इस फिल्म से शाहिद कपूर ने पंकज कपूर के बेटे होने का कलात्मक तमगा भी हासिल कर लिया है। लाल चौक पर युवाओं को संबोधित कर रहा गंजा हैदर अभिनय के मामले में भी चौंका देता हैं। इस दृष्य में शाहिद परिस्थितियों से नाराज हैदर से तादात्म स्थापित कर लेते हैं। शाहिद इस फिल्म में रॉकस्टार के रणवीर की याद दिलाते हैं।
कहना गलत नहीं होगा कि विशाल भारद्वाज को महिलाओं के अंत:स्थल में पहुंचना बहुत अच्छी तरह से आता है । मध्यमवर्गीय संस्कारों में पले बढे वे विशाल ही थे , जिन्होंने एकता कपूर के साथ बनाई फिल्म एक थी डायन में विमाता के अंतर्मन में डायन को परिभाषित किया । बतौर फिल्मकार हैदर विशाल को एक कदम आगे खड़ा कर देती है, पर उन्हें अपनी आत्ममुगधता से बचना होगा । एक निर्देशक के लिए आत्मनिष्ठ होना जितना आवश्यक है उतना ही आत्ममुगधता से बचते हुए आत्म अवलोकन करना जरूरी होता है।
कोई निर्देशक अपने कंटेट से समझौता ना करे फिर भी मुखधारा में फिल्म बनाने पर दर्शकों के प्रति भी निर्देशक की जिममेदारी होती है। मुखयधारा के सिनेमा के लिए फिल्म निर्माण करने वाले निर्देशक को वाल्मीकि जैसी दुरूह बनने के बजाय तुलसी जैसा सरल होना चाहिए ।
बेशक, हैदर के पिता डॉ मीर के रूप में बॉलीवुड को एक बेहतरीन कलाकार मिला है। के के मेनन ने अपने किरदार के प्रति पूरी निष्ठा बरती है तो निर्देशक विशाल ने उन्हें खालिस खलनायक की बजाय दिल से मजबूर होकर भयावह भविष्य को जन्म देने वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है। जैसे जब हैदर उसे मारने के लिए होता है तो वह दुआ में अपने खुदा से गुनाहों की माफी मांग रहा होता है।
फिल्म देखते हुए मैंने महसूस किया कि इंटरवल के समय फिल्म मे रूहदार की इंट्री होते ही फिल्म के प्रति दर्शकों का क्रेज बढ़ा जाता है । लेकिन क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते फिल्म बोझिल सी होने लगती है। फिल्म को थोड़े संपादन की जरूरत थी । कब्रिस्तान में कब्र खोदते समय हुआ गाना दशकों को बोझिल करता है , क्योंकि इन किरदारों के बारे में निर्देशक ने पहले दर्शकों को बताया नही है।
फिल्म की शुरुआत में संवादों के उच्चारण में घर को गर और भाई को बाई कहना विशाल और लेखक बशारत पीर की नेक खयाली है । यह बात दर्शकों को कश्मीर से जोड़ती है। पर बाद में वे इसे हास्य के अंदाज में प्रस्तुत कर देते हैं जिससे बात बिगड़ती हैं।
गंभीर फिल्म में हास्य इस तरह पिरोना थोड़ा भौंडा लगता है। नायक नायिका की आपसी बातचीत में तो ये हास्य लगता है पर जब एक कशमीरी युवा के घर में घुसने की बात पर भी सिनेमाहॉ़ल में बैठे दर्शक हंसते हैं तो एकबारगी फिल्म की सारी गंभीरता मिटती नजर आती है। खासकर ऐसी फिल्म में सलमान के फैन दो दोस्तों के किरदार चांद में दाग जैसे नजर आते हैं।
हैदर का संगीत भले ही औसत हो पर गाना बिस्मिल कथानक से जुड़े होने के कारण असर छोड़ता है। ये शब्द अदायगी के मामले में जब जब फूल खिले के गाने , एक था गुल और एक थी बुलबल और प्रस्तुतिकरण के लिहाज से साथ सुभाष घई की कर्ज की एक हसीना थी के फिल्मांकन की याद दिला देता है।
Comments