कश्मीर के आज़ाद भविष्य से इत्तेफ़ाक रखती है हैदर - मेहेर वान
मेहेर वान का यह रिव्यू 'हैदर' को एक अलग नजरिए से देखता है। मेरी इच्छा है कि 'हैदर' पर अलग दृष्टिकोण और सोच से दूसरे मित्र भी लिखें। 'हैदर' अपने समय की खास पिफल्म है। इस प आम चर्चा होनी चाहिए।
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मेहेर वान
प्राथमिक रूप से “हैदर” कश्मीर के एक गाँव में बसे एक
परिवार की कहानी है, जिसमें एक ईमानदार और अपने उसूलों पर विश्वास करने वाला पिता है,
सुन्दर और उपेक्षित माँ है, कुटिल चाचा है, और एक लड़का है जिसके इर्द-गिर्द कहानी घूमती
है। कहानी मूल रूप से भावनाओं और संवेदनाओं का एक कोलाज़ है जिसमें हर पात्र अपनी-अपनी
इच्छाओं, भावनाओं और संवेदनाओं के कारण या तो षणयंत्रों का शिकार होकर दुख सहता है
या षणयंत्रों का कर्त्ता-धर्त्ता होकर अपने-अपने सुख भोगता है। चूँकि फ़िल्म प्रसिद्ध
अंग्रेज़ी साहित्यकार विलियम शेक्सपियर के नाटक ’हेमलेट’ पर आधारित है, अतः फ़िल्म भी मूल नाटक की तरह ट्रेज़ेडी
के रूप में अंत होती है। सिर्फ़ हैदर को छोड़कर कहानी के अधिकतम मुख्य पात्र मार दिये
जाते हैं। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफ़ी और लोकेशंश का चयन अच्छा है। हालाँकि विशाल भारद्वाज
की अन्य फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म के संगीत ने उतना प्रभावित नहीं किया। फ़िल्म का बैकग्राउँड
स्कोर और ध्वनि संयोजन, कहानी और मानवीय भावनाओं को साथ लेकर दर्शकों तक पहुंचाने में
कामयाब हुआ है। देवजीत चेंगमाई की सराउंड साउंड मिक्सिंग ने अभिव्यक्ति में चार-चाँद
लगाये हैं, वे मानवीय संवेदनाओं को ध्वनियों से और सशक्त बनाते हैं। फ़िल्म में गोलियों-बमों
के अलावा फ़ावड़ा, पत्थर और लकड़ी के साथ लड़ाइयों के दृश्य आक्रामक हैं, जिन्हें देखते
हुये दर्शकों में या तो जोश आता है या चीख आती है। फ़िल्म में मनोरंजन के तमाम तत्व
मौजूद हैं, जैसे- माँ समान भाभी के साथ देवर का प्रेम-प्रसंग और जवान बेटे की इस प्रेम
के प्रति नापसंदगी, लड़ाइयाँ, कुटिल और जटील षणयंत्रों के जाल, प्यार, मज़ाक और मानवीय
संवेदनायें। कलाकारों का बेजोड़ अभिनय, निर्देशक विशाल भारद्वाज और बशारत पीर का नायाब
स्क्रीनप्ले और कसी हुई कहानी और प्रभावशाली संवादों से मिलकर फ़िल्म “हैदर” का ताना-बाना
बुना जाता है। इतना सब होने के बावजूद हैदर में वह सरलता और सहजता नहीं है कि वह अपनी
बात आम दर्शक तक सीधे और सरल तरीके से पहुंचा सके। रुपकात्मक अभिव्यक्ति की यह जटिलता
भी होती है कि वह अपने अर्थों में बहुत विस्तृत होती है।
सवाल यह है कि
क्या “हैदर” १९९५ के कश्मीर की कठिन परिस्थितियों में कुछ मानवीय संवेदनाओं, रिश्तों
की मर्यादाओं के उल्लंघन की कहानी मात्र है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले विशाल
भारद्वाज की लेखकीय और निर्देशकीय क्षमताओं और कहानी में रूपक प्रधान काव्यात्मक अभिव्यक्ति
को समझना ज़रूरी हो जाता है। हालाँकि फ़िल्म “हैदर” में १९९५ के आस-पास हुई कई राजनीतिक
घटनाओं का कोई जिक्र नहीं मिलता, मगर रुपक प्रधान अभिव्यक्तियों में घटनाओं के ज़िक्र
होना ज़रूरी भी नहीं होता। यह फ़िल्म की रूपक प्रधान काव्यात्मक अभिव्यक्ति ही है जिसके
कारण फ़िल्म एक परिवार की कहानी होने के बावजूद, “हैदर” एक परिवार मात्र की कहानी नहीं
रह जाती। दो पात्रों के बीच हुयी सामान्य घटनायें और संवाद अपने अर्थों में विस्तार
तलाशने लगते हैं, जिनका सम्बन्ध दशकों पुरानी कश्मीर समस्या से होता है। यही रूपक प्रधान
काव्यात्मक अभिव्यक्ति “हैदर” को एक ऐसी गहन राजनैतिक फिल्म के रूप में स्थापित भी
करती है, जो कश्मीर के भूत, वर्तमान और भविष्य का एक कलात्मक स्केच दर्शकों के समक्ष
खींचती है।
“हैदर” पात्र दो हाथियों यानि भारत और पाकिस्तान की लड़ाई
में घिस रही घास यानि कश्मीर की जवान पीढ़ी का प्रतीक है। हैदर की माँ यानि गज़ाला को
पूरी फ़िल्म का केन्द्रीय बिन्दु होने के बावजूद फ़िल्म के प्रमुख पात्र के रूप में हैदर
को प्रदर्शित किया गया, जिससे स्पष्ट है कि निर्देशक का फ़ोकस बिखरे हुये व्यथित प्रदेश
के भविष्य अर्थात कश्मीर की जवान पीढ़ी पर है। उस जवान पीढ़ी पर जिसे चरम स्तर तक भ्रमित
करने की कोशिश की गई है। चरम अकेलेपन में जी रही इस जवान पीढ़ी के पास विश्वास करने
के लिये न दोस्त, चाचा और माँ जैसे पवित्र रिश्ते हैं और न ही इस पीढ़ी के पास यह पीढ़ी
किसी पर विश्वास करना चाहती है। यह घुटन पैदा करने वाली परिस्थिति किसी के लिये भी
घातक होती है। एक दृश्य में, जब पिता की गिरफ़्तारी और उनके अचानक गायब होने के बाद
हैदर तबाह और जला हुये घर देखता है, तो परेशान हो उठता है। उसकी प्रेमिका अर्शिया उसे
खुद को सम्हालने के लिये कहती है, “रो लो हैदर, रो लो..खुद से लड़ना बन्द करो...” मगर
अपनी प्रेयसी के सामने खड़े होने पर भी वह रोने के लिये एक कंधा तलाशता रह जाता है,
हालाँकि अर्शिया रोने के लि्ये अपना कंधा उसे सोंपती है मगर वह स्वीकार करने की मुद्रा
में प्रतीत नहीं होता। यह दृश्य फ़िल्म का प्रमुख प्रस्थान बिन्दु है। इस दृश्य के आने
के बाद याद आता है कि फ़िल्म के शुरु में, गाँव में हो रहे ब्रेकडाउन के समय गज़ाला जब
डॉक्टर साब से पूछती है, “हैदर का क्या होगा?” तो डॉ. साब बोलते हैं, “खुदा है उसका....”।
बाद में घटनाओं से स्पष्ट होता जाता है कि भावुक लड़के को ख़ुदा के भरोसे ही छोड़ा गया
था। क्या कश्मीर की युवा पीढ़ी के साथ भी यही हुआ है? इसी विचार को दो अन्य वीभत्स और
ह्र्दय-विदारक दृश्य सशक्त बनाकर स्थापित भी करते हैं। एक दृश्य में जब हैदर अपने पिता
को खोजते हुये मृत लोगों से भरे एक ट्रक में चढ़ता है तब अचानक खून से लथपत एक बच्चा
अपनी आँखे खोलता है और ट्रक से बाहर कूदकर नाचने लगता है, वह खुशी से अपनी भाषा में
चिल्लाता है, “मैं बच गया रे, मैं तो बच गया..” यहाँ बच्चे लाशों के ढेर से उठकर अपने
ज़िंदा बच जाने की खुशी मना रहे हैं। दूसरे दृश्य में एक जवान लड़का है जो अपने ही घर
के अन्दर तब तक नहीं जाता, जब तक कि उसकी तलाशी न हो जाये। कैदखानों की आवो-हवा का
मानसिक रोग की स्थिति तक पहुँच जाने की परवाह किसे हुई, न कश्मीर को, न अहम की लड़ाई
लड़ रहे कश्मीर के बड़े भाई और छोटे भाई को। कश्मीर की समझदार युवा पीढ़ी का प्रतीक हैदर
जानता है कि उन लोगों के साथ चुत्ज़्पा हुआ है, दूसरे लड़के आफ़्स्पा और चुत्ज़्पा में
समानतायें पाते हैं। अलबत्ता कुछ लोग जो कश्मीर और उसके भविष्य से प्यार करते थे, वे
ज़रूर बेबसी और मानसिक उथल-पुथल का शिकार होकर आत्महत्या कर लेते हैं, अर्शिया इन्हीं
लोगों का प्रतीक है।
डॉक्टर साहब अपनी ईमानदारी, उसूलों और ज़िंदगी की तरफ़दारी
करने वालों के प्रतीक हैं। हमारे भारत की आत्मा भी इन मूल्यों की तरफ़दारी करती है।
देश में आज़ादी के लिये हम ख़ुद लड़े थे, बरसों..। अपने हक़ों के लिये लड़ने वालों को सम्मान
देना हमारी रूह में था और हम इस पर गर्व करते रहे और अब भी करते हैं। मगर इसी बीच उसूल,
ज़िंदगी और आज़ादी की तरफ़दारी के मूल्य कहीं खो गये, या उन्हें एक प्रक्रिया के तहत लापता
कर दिया गया। फिर कहानी की कमान आती है, छोटे भाई यानि चचाजान, आर्मी और आज़ादी चाहने
वाले कुछ लोगों के हाथ में। विशाल भारद्वाज छोटे भाई यानि चचा जान के पात्र को कुटिलता,
लालसा, कुर्सी और धन की भूखों अदि के प्रतीक के रूप में दिखाते हैं। वह अपने फ़ायदे
के लिये कुछ भी कर सकता है। छोटे भाई यानि चचा जान हमेशा जनता और हैदर को बार-बार कहते
हैं कि सब ठीक हो जायेगा। मैं तन-मन-धन से कुर्बानी देते हुये तुम सबके लिये संघर्ष
कर रहा हूँ। इस तरह न चाहते हुये भी चचाजान कश्मीर में हो रही घुसपैठ और आतंकवाद की
याद दिलाते हैं। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं होना चाहिये कि चचाजान के बॉडीगार्ड का नाम
“लियाक़त” है। माँ यानि गज़ाला कश्मीर का प्रतीक मालूम होती है, बेबस, उपेक्षित मगर बेइंतेहा
सुन्दर। ईमानदारी, उसूलों और ज़िंदगी की तरफ़दारी करने वाले जाने-अनजाने देश के निर्माण
की व्यस्तताओं में कश्मीर को भी भूल ही गये थे। तब कश्मीर को दूसरों ने यह एहसास दिलाया
कि वे उसके अपने हैं और कश्मीर के लिये कुछ भी करेंगे। कश्मीर की स्थिति भी एक सुंदर
महिला जैसी थी एक समय जब उसे कोई ऐसा चाहिये था जो उसकी ओर ध्यान दे सके, उसे प्यार
कर सके। वह हैदर के रूप में अपनी जवान पीढ़ी को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करती है
कि उसने ईमानदार, उसूलों और ज़िंदगी की तरफ़दारी करने वालों के साथ बेवफ़ाई नहीं की, वह
तो बस प्यार तलाश रही थी जो कि उसे हमेशा व्यस्त डॉ.साब में नहीं बल्कि चचाजान में
मिला। आज वह हाफ़-विडो यानि आधी विधवा है, जिसका पति लापता है, वह आधी दुलहन भी है जिसे
कि चचाजान आधा पागल कहते हैं। हैदर गज़ाला पर कठोर कटाक्ष करने का कोई मौका नहीं चूकता।
उसे अपनी माँ से बहुत प्यार ज़रूर करता था मगर उसे माँ पर कभी विश्वास नहीं हुआ। क्या
कश्मीर की समझदार युवा पीढ़ी अपने पैदा करने वालों पर विश्वास कर पा रही है? हैदर लम्बे
समय तक यह भी तय नहीं कर पा रहा है कि सही चचाजान हैं या रुहदार। फिर वह खुद को रुहदार
के पक्ष में खड़ा पाता है जो कि आज़ादी के लिये लड़ने वालों का प्रतीक कहा जा सकता है।
कहानी के अंत में उसे अपनी सुंदर माँ की राख हाथ लगती है, उस सुंदर माँ की, जिसे वह
किसी को छूने भी नहीं देता था। वह राख पर रोता है। पास ही चचाजान अधमरे कराह रहे होते
हैं जिनसे बदला लेने के लिये वह रिवॉल्वर उठाता तो है मगर गोली नहीं चलाता। वह माँ
के पक्ष को चुनता है कि इंतेकाम का बदला सिर्फ़ इंतेकाम से नहीं लेते हुये चचाजान को
अपने हाल पर छोड़ देता है। कहानी के अंत में तीन प्रमुख पात्र बचते हैं- हैदर, रूहदार
और कश्मीर की आज़ादी के लिये लड़ने वाले एखलाक का जूनियर। वह डॉक्टर साब की रूह यानि
रूहदार ही है जो गज़ाला को हैदर के बचाव के लिये ख़ुद की कुर्बानी के लिये राज़ी करता
है, और उसे मानव बम बनाकर चचाजान की ओर भेजता है।
हैदर के रुप में विशाल भारद्वाज कश्मीर की युवा पीढ़ी को ईमानदारी, उसूलों और
ज़िंदगी की तरफ़दारी करने वालों के लिये लड़ता हुआ दिखाते हैं। कहानी के अंत में खून ने
लथ-पथ हैदर अनाथ बचता है मगर अब उसके सिर पर कोई बोझ नहीं है और उसके चेहरे पर मज़बूती
और आत्मविश्वास के निशान हैं। वह अब अनाथ सही मगर आज़ाद है। इस तरह हम विशाल भारद्वाज
को कश्मीर की आज़ादी की तरफ़ खड़ा पाते हैं। यही कश्मीर का वो भविष्य है जिससे विशाल भारद्वाज
की फ़िल्म “हैदर” इत्तेफ़ाक रखती मालूम होती है।
Comments
Bohat badhiya lekh he meher vaan. ati oomda. padhkar sukun mila.
abhishek rishi
Simply great!!!!