दरअसल : शाह रुख खान की सोच


-अजय ब्रह्मात्मज   
    पिछले पांच सालों में हिंदी सिनेमा में विस्तार के साथ प्रगति हुई है। फिल्में बड़ी और विहविध हुई हैं। नई प्रतिभाओं को पहचान मिली है। एक जोश है,जो फिल्म निर्माण से लकर दर्शकों के बीच तक महसूस किया जा रहा है। कुछ लोग इस हलचल को समझते हुए अपनी फिल्मों की प्लानिंग कर रहे हैं तो कुछ अभी तक परंपरा में बेसुध पड़े हैं। उन्हें लगता है कि फिल्म इंडस्ट्री वैसे ही चलती रहेगी,जैसे चलती आ रही है। परिवत्र्तन का समान्य नियम है कि बदलती चीजें तत्काल प्रभाव से दूष्टिगोचर नहीं होतीं। सुबह से शाम होने तक में धरती घूम जाती है। कुछ निठल्ले सोए रहते हैं।
    हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आ रहे बदलाव को अच्छी तरह समझने वालों में एक शाह रुख खान हैं। उन्होंने हाल ही में एक टे्रड पत्रिका के पांच साल पूरे होने पर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का जायजा लेते हुए कुछ संकेत दिए हैं। उन्होंने बहुत सफाई से अपनी बात रखी है। संभावनाओं और खतरों की बातें करते हुए उन्होंने नई प्रतिभाओं से उम्मीद की है कि वे भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार रहेंगे। इस लेख में उन्होंने अपनी फिल्मों और फैसलों के साक्ष्य से समझाने की भी कोशिश की है। मल्टीप्लेक्स के साथ ही ए ,बी और सी सेंटर में फिल्में देखने की पसंद बदल रही है। शुद्ध मनोरंजन के साथ दर्शक नए भावों की भी फिल्में देख रहे हैं। अब तो निर्देशक भी बड़ी फिल्मों के साथ-साथ छोटी फिल्में भी बना रहे हैं। इम्तियाज अली ‘रॉकस्टार’ के बाद ‘हाईवे’ बनाने से नहीं हिचकते। अनुराग कश्यप ‘देव डी’ के ‘दैट गर्ल इन येलो बूट्स’ बनाते हैं और फिर ‘बांबे वेल्वेट’ की तैयारी कर बैठते हैं। पूरी उम्मीद है कि घोर कमर्शियल डायरेक्टर भी ऐसे प्रयोग करेंगे।
    शाह रुख कहते हैं कि फिल्मों की 100 करोड़ की कमाई बड़ी बात नहीं रह गई है। वे मानते हैं कि भविष्य में 100 करोड़ औसत कमाई रह जाएगी। इस कमाई के प्रभाव से फिल्में बड़ी,बेहतर और तकनीकी रूप से उन्नत हो जाएंगी। चूंकि हिंदी फिल्मों का बाजार अभी उतना बड़ा नहीं हुआ है,इसलिए कोई भी निर्माता बड़े इंवेस्टमेंंट से डरता है। पर्याप्त पैसे न हों तो प्रयोग की संभावनाएं कम हो जाती हैं। जैम्स कैमरून ‘अवतार’ इसलिए बना पाते हैं कि उनके पास निवेशक और दर्शक हैं। उनकी फिल्मों का ग्लोबल बाजार है। पिछले पांच सालों में हिंदी सिनेमा ने भी अपनी चौहद्दी तोड़ी है और नए बाजारों में प्रवेश किया है। अमेरिका और इंग्लैंड से निकल कर हिंदी फिल्में जर्मनी,फांस,कोरिया और जापान में भी पहुंच रही हैं। अकेले ‘द लंचबॉक्स’ ने सफल मिसाल पेश की है। हिंदी फिल्मों को विदेशों में नए और नेटिव दर्शक मिल रहे हैं। शाह रुख दुबई के वितरकों से हुई बातचीत का सार बताते हैं कि हिंदी फिल्मों का बाजार अब हालीवुड की फिल्मों से थोड़ा ही पीछे रह गया है।
    शाह रुख ने नई प्रतिभाओं पर विशेष जोर दिया है। वे मानते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री के बच्चे जरूर आए हैं,लेकिन उनकी तरह ही बाहर से आ रही प्रतिभाओं की भी कमी नहीं है। हर दौर में बाहर और भीतर की प्रतिभाओं का द्वंद्व रहा है। इस से फिल्म इंडस्ट्री का ही फायदा होता है। नई प्रतिभाओं के साथ नए विषय आते हैं। वे इस तथ्य से खुश हैं कि अनेक अभिनेता प्रोडक्शन में उतर रहे हैं। चूंकि फिल्म कारोबार अनिश्चय और संभावनाओं का मेल और खेल है। इसमें अभिनेताओं के शामिल होने से निर्माताओं का दांव कम होता है। सभी मिल कर जोखिम उठा लेते हैं। फिल्म चली और अतिरिक्त लाभ हुआ तो सभी हिस्सेदार होते हैं।
    शाह रुख फिल्म इंडस्ट्री में एकजुटता की कमी मानते हैं। उन्हें लगता है कि समूह में काम करने का समय आ गया है। इंटरनेशनल स्टूडियों के साथ हम समूह के तौर पर जुड़ें तो ग्लोबल बाजार में अपनी पहचान बना सकते हैं।  ठीक है कि अपने देश की आबादी एक अरब से अधिक है,लेकिन हम दुनिया के बाकी 3 अरब दर्शको को क्यों छोड़ें। हमें उन तक भी पहुंचना है।
   

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