फिल्‍म समीक्षा : तमंचे

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
हिंदी फिल्मों की रोमांचक अपराध कथाओं में अमूमन हीरो अपराध में संलग्न रहता है। हीरोइन किसी और पेशे या परिवार की सामान्य लड़की रहती है। फिर दोनों में प्रेम होता है। 'तमंचे' इस लिहाज से एक नई कथा रचती है। यहां मुन्ना (निखिल द्विवेद्वी) और बाबू (रिचा चड्ढा) दोनों अपराधी हैं। अचानक हुई मुलाकात के बाद वे हमसफर बने। दोनों अपराधियों के बीच प्यार पनपता है, जो शेर-ओ-शायरी के बजाय गालियों और गोलियों केसाथ परवान चढ़ता है। निर्देशक की नई कोशिश सराहनीय है।
मुन्ना और बाबू की यह प्रेम कहानी रोचक है। एक दुर्घटना के बाद पुलिस की गिरफ्त से भागे दोनों अपराधी शुरू में एक-दूसरे के प्रति आशंकित हैं। साथ रहते हुए अपनी निश्छलता से वे एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। मुन्ना कस्बाई किस्म का ठेठ देसी अपराधी है, जिसने वेशभूषा तो शहरी धारण कर ली है, लेकिन भाषा और व्यवहार में अभी तक भोलू है। इसके पलट बाबू शातिर और व्यवहार कुशल है। देह और शारीरिक संबंधों को लेकर वह किसी प्रकार की नैतिकता के द्वंद्व में नहीं है। हिंदी फिल्मों में आ रही यह नई सोच की लड़की है। मुन्ना भी इस मामले में कस्बाई नैतिकता से निकल चुका है। दोनों अपनी मजबूरियों और सीमाओं को जानते हुए हद पार करने की कोशिश करते हैं। दोनों के बीच प्रेम का मजबूत तार है।
प्रोडक्शन के पहलुओं से थोड़ी कमजोर यह फिल्म किरदारों और कलाकारों की वजह से उम्दा बनी रहती है। यों सारे किरदार कुछ जदा ही बोलते नजर आते हैं। लेखक-निर्देशकशब्दों और संवादों में संयम रख पाते तो निखिल और रिचा के परफॉर्मेंस को स्पेस मिलता। रिचा समर्थ अभिनेत्री हैं। वह बाबू के जटिल चरित्र को बारीकी से पेश करती है। उन्होंने विपरीत भावों को साथ-साथ निभाने में दक्षता दिखाई है। निखिल ने भी मुन्ना के किरदार को खास बना दिया है, लेकिन एक्सप्रेशन और परफॉरमेंस में उनका संकोच जाहिर होता है। ऐसा लगता है कि उन्हें और खुलने की जरूरत है। राणा के किरदार को निभा रहे दमनदीप सिद्धू को लेखक-निर्देशक ने पर्याप्त मौका दिया है। वे प्रभावित भी करते हैं, लेकिन याद नहीं रह पाते। वे किरदार की चारित्रिक विशेषता नहीं रच पाए हैं।
हिंदी में इस विधा की फिल्में नहीं के बराबर हैं। यह फिल्म थोड़ी अनगढ़ और अपरिपक्व लगती है। इसके बावजूद 'तमंचे' अपनी नवीनता के कारण उल्लेखनीय है। हम सभी जानते हैं कि निखिल द्विवेद्वी और रिचा चड्ढा हिंदी फिल्मों के पॉपुलर चेहरे नहीं हैं। उन्होंने अपनी अदाकारी और ईमानदारी से 'तमंचे' को मजबूती दी है। वे फिल्म की आंतरिक कमियों की भी भरपाई करते हैं।
अवधि: 113 मिनट
*** तीन स्‍टार

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को