दरअसल : बेहद जरूरी हैं किताबें
-अजय ब्रह्मात्मज
पिछले दिनों दिल्ली में एक कॉलेज के मीडिया छात्रों से बतियाने का मौका मिला। इन दिनों महाविद्यालयों में भी मीडिया भी एक विषय है। इसके अंतर्गत मीडिया के विभिन्न माध्यमों में से एक सिनेमा का भी पाठ्यक्रम शामिल कर लिया गया है। इस पाठ्यक्रम के तहत सिनेमा की मूलभूत जानकारियां दी जाती है। पाठ्यक्रम निर्धारण से लेकर उसके अध्यापन तक में शास्त्रीय और पारंपरिक अप्रोच अपनाने की वजह से छात्र सिनेमा की समझ बढ़ाने के बजाय दिग्भ्रमित हो रहे हैं। जिन कॉलेज के अध्यापक मीडिया के वर्तमान से परिचित हैं, वे पाठ्यक्रम की सीमाओं का अतिक्रमण कर छात्रों को व्यावहारिक जानकारी देते हैं। वर्ना ज्यादातर कॉलेज में अध्यापक अचेत रहते हैं।
गौर करें तो सिनेमा तेजी से फैल रहा है। यह हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। मैं इसे धर्म की संज्ञा देता हूं। मनोरंजन के इस धर्म ने तेजी से प्रभावित किया है। भारतीय समाज में मनोरंजन के अन्य साधनों के अभाव में सिनेमा की उपयोगिता बढ़ जाती है। बचपन से हम जाने-अनजाने सिनेमा से परिचित होते हैं। बगैर निर्देश और पाठ के अपनी समझ विकसित करते हैं। वास्तव में यह समझ लोकप्रिय फिल्मों के प्रचार-प्रसार से इस कदर प्रभावित होता है कि बड़े होने पर भी हम सिनेमा की समझ विकसित नहीं कर पाते। यहां तक कि फिल्म पत्रकारिता और इसके व्यापार, प्रचार और प्रसार से जुड़े व्यक्ति भी सिनेमा की समग्र एवं सम्यक समझ नहीं रखते।
सिनेमा निश्चित ही मनोरंजन का माध्यम है। मनोरंजन के व्यापक अर्थ को हम सभी ने स्टार, नाच-गाना और एक्शन जैस्ी स्थूल चीजों में बदल दिया है। वास्वत में मनोरंजन की कल्पना भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में ही कर ली गई थी। तब इसके लिए रस शब्द प्रयोग होता है। काव्यशास्त्र में नौ रसों की चर्चा की जाती है। सिनेमा का प्रभाव इन नौ रसों में समाहित है। फिल्म देखने से हमारे मानस में जो रस निष्पत्ति होती है, उसे ही इन दिनों मनोरंजन कहा जाता है-एंटरटेनमेंट। विद्या बालन ने ‘द डर्टी पिक्चर’ में ‘एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट एंटरटेनमेंट’ इस अंदाज में कहा कि सिनेमा का एंटरटेनमेंट कहीं न कहीं डर्टी पिक्चर का आभास देने लगा है।
छात्रों से बातचीत के क्रम में मैंने महसूस किया कि सिनेमा के पाठ और अध्ययन की समुचित व्यवस्था नहीं होने से अधिकांश युवा दर्शक सिनेमा के मामले में अशिक्षित रह जाते हैं। कभी परिवार के अग्रज अपने अनुजों को सिनेमा की बारीकियों की जानकारी नहीं देते, स्वंय उन्हें भी उसकी जानकारी नहीं रहती। नतीजा यह होता है कि पत्र-पत्रिकाओं में फिल्मों में सब कुछ स्टार केंद्रित होता है। फिल्मों की सारी चर्चा स्टारों की गतिविधियों और प्रतिक्रियाओं तक सीमित रहती हैं। अभी तक पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म निर्माण के सभी पक्षों पर बातें नहीं होती। दर्शकों को जागरुक करने पर जोर नहीं दिया जाता। सारी कोशिश मसालेदार मनोरंजन की सामग्रियां जुटाने पर रहती हैं।
इन छात्रों को फिल्म के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों और पारिभाषिक तर्क की सही जानकारी नहीं रहती। लेखों और समीक्षाओं में अगर कभी कोई टर्म आता है तो उसके अर्थ को समझे बगैर ही वे उसे अपना लेते हैं। अधिकांश पत्रकारों के लेखन में भी जानकारी की यह कमी दिखाई देती है। इस दिशा में संपादक और अध्यापक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। हमें ऐसे लेखकों और प्रकासकों की भी जरुरत है, जो सिनेमा की बुनियादी जानकारियों पर लेख और पुस्तकें लिखें। सिर्फ सितारों की जानकारी और जीवनी सिनेमा की समझ नहीं बढ़ा सकती। किताबें जरूरी हैं।
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