हमने भी ‘हैदर’ देखी है - मृत्युंजय प्रभाकर


-मृत्युंजय प्रभाकर 



बचपन से मुझे एक स्वप्न परेशान करता रहा है. मैं कहीं जा रहा हूँ और अचानक से मेरे पीछे कोई भूत पड़ जाता है. मैं जान बचाने के लिए बदहवास होकर भागता हूँ. जाने कितने पहाड़-नदियाँ-जंगल लांघता दौड़ता-भागता एक दलदल में गिर जाता हूँ. उससे निकलने के लिए बेतरह हाथ-पाँव मारता हूँ. उससे निकलने की जितनी कोशिश करता हूँ उतना ही उस दलदल में धंसता जाता हूँ. भूत मेरे पीछे दौड़ता हुआ आ रहा है. मैं बचने की आखिर कोशिश करता हूँ पर वह मुझ पर झपट्टा मारता है और तभी मेरी आँखें खुल जाती हैं.  
आँखें खुलने पर एक बंद कमरा है. घुटती हुई सांसें हैं. पसीने से भीगा बदन है. अपनी बेकसी है. भाग न पाने की पीड़ा है. पकड़ लिए जाने का डर है. उससे निकल जाने की तड़प है. एक अजब सी बेचारगी है. फिर भी बच निकलने का संतोष है. जिंदा बच जाने का सुखद एहसास है जबकि जानता हूँ यह मात्र एक स्वप्न है. ‘हैदर’ फिल्म में वह बच्चा जब लाशों से भरे ट्रक में आँखें खोलता है और ट्रक से कूदकर अपने जिंदा होने का जश्न मनाता है तब मैं अपने बचपन के उस डरावने सपने को एक बार फिर जीता हूँ. उसके जिंदा निकल आने पर वैसे ही राहत की सांस लेता हूँ जैसे उस भयावह सपने के टूटने के बाद अपने जिंदा बच जाने पर लेता था. मौत के चंगुल से जिंदा बच जाने की यह ख़ुशी चाहे फिल्म की हो या सपने की, वह निश्चय ही सुकून देने वाली होती है. ‘हैदर’ एक फिल्म होते हुए भी मेरे सपने की ही तरह ‘कश्मीर’ की वह वास्तविकता है जो मुझे भीतर तक परेशान करती है और डराती है. फिल्म के उस मोड़ पर आकर डॉक्टर हिलाल मीर (जिसे नरेन्द्र झा ने कमाल की संजीदगी से निभाया है) का वह संवाद मुझे भीतर तक वेध देता है जब उसकी पत्नी उससे पूछती है, ‘किस तरफ हैं आप?’ और जवाब में डॉक्टर कहता है, ‘ज़िन्दगी के.’ डॉक्टर हिलाल मीर द्वारा एक दहशतगर्द की ज़िन्दगी बचाने की तड़प से शुरू हुई यह फिल्म उसके शायर बेटे हैदर द्वारा एक सरकारी दहशतगर्द की ज़िन्दगी बक्श देने तक कश्मीर का ऐसा रूपक रचती है जो आपको भीतर तक डराती ही नहीं बल्कि खाली कर जाती है.    
  हैदर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इतना कि अगर उन सारी समीक्षायों को इकठ्ठा कर छपवा दिया जाए तो एक बेहद ही मोटी पुस्तक का रूप ले ले. इस पर लिखना कोई कार्यकारी या व्यावसायिक मजबूरी भी नहीं है क्यूंकि फिल्म समीक्षा लिखने का पेशा छोड़े भी दो साल हो चुके हैं जब हर हफ्ते दो-तीन फिल्मों पर ३००-३५० शब्दों में पूरे फिल्म को उतार देने की अखबारी जरूरत को पूरा करता था. और अपने इस काम से इतना ऊब चुका था कि उसके बाद आज तक किसी फिल्म पर लिखने की इतनी तीव्र इच्छा नहीं हुई. लेकिन यह फिल्म पहली बार देखे जाने के बाद से ही मुझे लगातार परेशान करती रही. खींचती रही. भीतर तक मथती रही. मेरे उस स्वप्न की ही तरह जिसे मैं कब का भूल चुका था. अमूमन कोई फिल्म अच्छी लग जाए तो उसे दुबारा-तिवारा देखता ही देखता हूँ. क्यूंकि बचपन से ही फिल्म देखना मेरे लिए शौक नहीं बल्कि पेशे की तरह रहा है. हैदर ने भी मुझे अपनी तरफ बार-बार लौटने को विवश किया है.
फिल्म और सपनों के रिश्ते पर पता नहीं कोई बात हुई है या नहीं यह मैं नहीं जानता. संभव हो हुई हो पर मेरी जानकारी में नहीं है. मेरे लिए सपने फिल्म की आदिम अनुभूति की तरह हैं. हम सपने में ज्यादातर अपनी फिल्म ही देख रहे होते हैं. यही कारण है कि फ़िल्में भी हमें हमारे सपनों की तरफ ले जाती हैं. दरअसल ज्यादातर दर्शक फिल्म को भी सपने की ही तरह देख रहे होते हैं. जिसमें नायक की छवि में खुद को देखने की अनुभूति भी शामिल है. पर फिल्म को सपनों में बदल मनुष्य के सबसे सान्द्र अनुभव में तब्दील कर देने की क्षमता बहुत ही कम निर्देशकों में होती है. उस पर भी ऐसी फ़िल्में बहुत कम होती हैं जो उस सपने को हकीक़त से भी ज्यादा करीब ले आती हैं. ‘हैदर’ फिल्म उस सपने की तरह है जो अपनी हकीक़त से भी ज्यादा मानीखेज है. 
यह फिल्म कश्मीर की उस स्याह हकीक़त को सामने लाती है जो आम भारतीय जन-मानस के लोकप्रिय बिम्ब में कहीं से भी शामिल नहीं है. आम भारतीय जन-मानस में आज भी कश्मीर की छवि डल लेक की खूबसूरती और बर्फ से ढंके पहाड़ी चोटियों वाली छवि है जहाँ वह पर्यटन और हनीमून के लिए जाना चाहता है या कि भक्त जनता के लिए हाल के सालों में गढ़ी गई बैष्णो देवी के धार्मिक पर्यटन वाली छवि है. सिनेमा घरों से निकलते ज्यादातर दर्शकों के मन में बसी कश्मीर की उस छवि पर यह फिल्म कुठाराघात करती है इसलिए वह सिनेमा घर से निकलते हुए नकार की मुद्रा में निकलता है क्यूंकि यह फिल्म उसके स्थापित छवि को तोड़ती और उसके बंधे-बंधाए ज्ञान पर हमले बोलती है. यहीं ‘हैदर’ अपने को उन ‘पोपकोर्न’ टाइप फिल्मों से खुद को अलग करती है जो दर्शकों के सपने को ‘खेल’ में बदलकर उनसे भारी मुनाफा तो कमाती हैं लेकिन बदले में उन्हें खाली झुनझुना थमा देती हैं जबकि ‘हैदर’ उन्हें उस हकीक़त से रूबरू कराने की कोशिश करती है जो उन्हें मंजूर नहीं है. ‘कश्मीर’ के इस रूप को स्वीकार करना उनके बने-बनाए छवि का तो नकार है ही, उनके ‘पोपकोर्न’ रूपी ‘राष्ट्रभक्ति’ की भी इतिश्री है जिसे वह ‘लगान’ ‘चक दे इंडिया’ या ‘मैरी कॉम’ जैसी फिल्मों देखते हुए महसूस करता है और उसे ‘पेप्सी’ या ‘कोक’ के साथ ख़ुशी-ख़ुशी डकार लेता है. ‘हैदर’ के खिलाफ आम दर्शकों और चलताऊ समीक्षकों की इतनी तीव्र प्रतिक्रिया के पीछे की वजहों में उनकी खोखली ‘राष्ट्रभक्ति’ है जिसे यह फिल्म खेल कर लौटते हुए बच्चे की तरह रास्ते पर ‘खाली’ पड़े ‘कोक’ के बोतल को एक जोरदार लात लगा देती है.            
हमारा दर्शक जो ५० के दशक के फिल्मों के बिना जातिसूचक नामों वाले नायकों को देखकर बड़ा हुआ और पनपा है वह फिल्मों से उसी मुगालते की मांग करता है जहाँ नायक का पहले से तय कोई जातिसूचक उपनाम न हो. ताकि वह फिल्म देखते हुए अपने उपनाम को उस नायक के नाम में वैसे ही जोड़ दे जैसे वह खुद की छवि को नायक की छवि के ऊपर आरोपित कर देता है और फिल्म रुपी सपने में कभी ‘कैटरीना’ तो कभी ‘दीपिका’ तो कभी ‘सनी लेओनी’ की बाँहों में झूमता है. ‘हैदर’ उस बॉलीवुडीअन सिनेमा का नकार है जो जीवन को लेकर एक तरह का नकली रोमांटिसिज्म दर्शकों के सामने परोसता है. वह सिनेमा जो उनके जीवन, उनके समाज, उनके परिवेश की बात नहीं करता बल्कि एक नकली जीवन, नकली समाज और नकली परिवेश रचता है. सलमान खान उसी बॉलीवुडीअन सिनेमा के प्रतिनिधि स्टार हैं जिसका मजाक इस फिल्म में बनाया गया है. फिल्म में ‘सलमान खान’ एक व्यक्ति या स्टार की तरह नहीं बल्कि एक रूपक की तरह आते हैं जो उसी समुदाय से आया हुआ नायक होकर भी अपने ही समुदाय और देश के लोगों के जीवन की हकीक़त से न सिर्फ मीलों दूर है बल्कि उन्हें एक नकली समाज और परिवेश का स्वप्न भी बेचता है जिसमें वह अपने नकली दबंगई में बार-बार पूछता है ‘दूँ क्या? दूँ क्या?’ जबकि वास्तव में वह उस समाज को कुछ भी देने की स्थिति में नहीं है सिवा ‘चंद’ नकली सपनों के, जो उनके किसी काम के नहीं हैं. इसलिए विशाल भारद्वाज जब हैदर के हाथों सलमानों की हत्या का रूपक रचते हैं तब उनका आशय सलमान या उनके जैसे स्टार नहीं बल्कि उस बॉलीवुड सिनेमा से है जो अपने आवरण और विषयवस्तु में पूरी तरह समय, समाज और अपने परिवेश से कटा हुआ है. जो दर्शकों को नकली सपने दिखाकर गंजों को कंघी बेचने का काम करती है. 
‘हैदर’ फिल्म बॉलीवुड फिल्मों के नकार का रूपक ही नहीं रचती बल्कि उसका सही-सही विकल्प भी देती है. यहाँ फिल्म का परिवेश नायक-नायिकायों के नृत्य के पीछे बदलते बैकड्राप तक ही सीमित नहीं है बल्कि उनके जीवन का हिस्सा है और उन्हें सिर्फ प्रभावित ही नहीं करती बल्कि उनके जीवन की दिशा भी तय करती है. परिवेश ही वह शय है जो हमारा जीवन तय करती है. हम उससे लाख भागने की कोशिश करें या भगा दिए जाएँ लेकिन वह अपनी त्रासदी में हमें खींच ही लेता है जैसे वह हैदर को ‘अलीगढ’ और उसकी प्रेमिका के भाई को ‘बंगलौर’ से खींच लाता है. संभव है हमारे स्टार सलमान खान सोमालिया के परिवेश में पैदा हुए होते तो ‘बन्दूक’ उठाकर कब के शहीद हो गए होते या ‘कालाहांडी’ में आदिवासी बनकर पैदा होते तो ‘भूख’ से लड़ते हुए हड्डियों का ढांचा लिए जीते या अब तक दफन हो गए होते.  कश्मीर का परिदृश्य आज के दौर में सिर्फ ‘हैदर’, ‘लियाकत’, ‘परवेज’ ‘खुर्रम’, ‘जहूर’, ‘रूह्दार’ ‘अर्शिया’ और ‘गजाला’ जैसे लोग पैदा कर सकते हैं क्यूंकि वहां ‘हुसैन मीर’ जैसे लोग रहे नहीं और ‘हिलाल मीर’ को कंसंट्रेशन कैम्पों में डालकर खत्म कर दिया गया है. अब जो बच गया है वो जानता है कि उसे उस आग में कूदना ही है जिसे उसके इर्द-गिर्द घेरे की तरह बना दिया गया है यह जानते हुए की ज़िन्दगी उसके लिए ‘फानी’ है और ‘लाफ़ानी’ होने का एक ही रास्ता है ‘कुर्बानी’. रूह्दार (इरफ़ान ने जिस किरदार को बड़ी शिद्दत से जिया है) फिल्म में सिर्फ डॉक्टर हिलाल मीर की रूह बनकर नहीं आता बल्कि कश्मीर के परिवेश की रूह बनकर आता है जो लोगों को अपने सांचे में ढालता है. उन्हें जाने-अनजाने अपनी ओर खींचता है और हिंसा की उस आग में धकेल देता है जो उसके चारों ओर पसरी हुई है.          
‘रूह्दार’ अगर कश्मीर की रूह है तो ‘गज़ाला’ ‘कश्मीर’ का रूपक पेश करती है. दो व्यक्तियों के बीच चुनाव के मानसिक जाल में औरत के रूप में ‘गज़ाला’ वैसे ही पिसती है जैसे दो हाथियों (हिंदुस्तान और पाकिस्तान) के बीच युद्ध में घास की तरह ‘कश्मीर’ पिस रहा है. और ‘गज़ाला’ के इस दोहरी मानसिकता में ‘हैदर’ ठीक वैसे ही पिसता है जैसे ‘कश्मीर’ में उसके ही बच्चे पिस रहे हैं. ‘गज़ाला’ यहाँ एक औरत और एक सरज़मीन की पीड़ा को एक साथ प्रतिबिंबित करती है. वैसे भी तमाम भारतीय रूपकों में औरत को ज़मीन के तौर पर ही देखा गया है जिसे सींचना पुरुष (आसमान) की ज़िम्मेदारी होती है और वह कभी प्रेम की अनावृष्टि (हिलाल) तो कभी अतिवृष्टि (खुर्रम) की शिकार होती है.       एक स्त्री के रूप में अपने आप को पूरा करने के लिए उठाया गया उसका कोई भी कदम सीधे-सीधे उसके समाज और परिवेश को उप्लावित कर जाता है जिसका शिकार उसकी फसल (उसके बच्चे) होते हैं. यहाँ ‘गजाला’ की आज़ादी ‘कश्मीर’ की आज़ादी के सवाल से एक बार फिर जुड़ जाता है जहाँ दोनों को ‘खुदमुख्तारी’ की दरकार है जिसमें वह अपने को पूर्ण करने का निर्णय खुद ले सके और उसके निजी निर्णय से समाज और परिवेश उप्लावित न हो, न ही उसके बच्चे ‘हैदर’ को इसकी कीमत चुकानी पड़े. ‘गज़ाला’ यहाँ एक साथ एक स्त्री और एक सरज़मीन ‘कश्मीर’ की मह्त्व्कांक्षायों स्वर देती है. वह स्वर जो उस समाज और परिवेश को भी पसंद नहीं है न ही उसके बच्चे को जो उसे किसी भी सूरत में बांटने को तैयार नहीं है. यहाँ पर आकर विशाल थोड़ा चूकते हैं जब वो ‘गज़ाला’ को एक स्त्री से अधिक एक ‘सरज़मीन’ के बिम्ब में गुम्फित कर देते हैं जिससे स्त्री के चुनाव का प्रश्न गौण हो जाता है. फिल्म के अंत में ‘गज़ाला’ द्वारा मानव बम बनकर खुद को उड़ा लेना भी जलते हुए ‘कश्मीर’ का ही रूपक गढ़ता है जहाँ पसरी बर्फ की ख़ामोशी के पीछे जलते हुए लोथड़े हैं, स्टेनगन थामे कटे हुए हाथ हैं, बिना पैरों के चलते ‘खुर्रम’ हैं और हजारों लोगों का खून पसरा है जिसके बीच से होकर ‘हैदर’ को अपना रास्ता तय करना है. अपना समाज बनाना है और अपने परिवेश को रहने लायक, सांस लेने लायक बनाना है ताकि वहां एक बार फिर ‘ज़िन्दगी’ शब्द अपना मायने पा सके.
‘हैदर’ का किरदार अपने होने या न होने, कुछ करने और न करने, पक्ष लेने या न लेने के विभ्रम के बीच जूझते हुए एक व्यक्ति का रूपक है जो सही और गलत के बीच त्रिशंकु सा अटक गया है. वह पिता की हत्या का बदला लेने और न लेने के द्वन्द से कहीं अधिक इस द्वन्द से गुजरता है कि दरअसल उसके और उसके परिवार के साथ हुआ क्या है. कौन से तत्व हैं जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. एक अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति वाले इलाके में फंसे एक दिशाहीन युवा का प्रतिनिधि पात्र है ‘हैदर’ जिस पर एक साथ कई तरह के सत्तायों की निगरानी है और वे उसे अपने तरीके से संचालित करना चाहते हैं. मतलब की उसे अपनी ज़िन्दगी किसी और के बनाए खेल में उलझाकर जीना है जहाँ उसकी हैसियत एक खिलोने या कठपुतली भर की हो जाती है जिसकी डोर किसी और के हाथ में होती है. वह अपनी डोर किसी और के हाथ में दे या न दे यह भी उसके द्वंदों में शामिल है और अंत में वह अपनी मां को ‘खुर्रम’ से बचाने और बाप की हत्या का बदला लेने की लड़ाई लड़ता हुआ मां को खो देने के बाद खून से लथ-पथ बर्फीले परिवेश को पीछे छोड़ (जिसमें उसकी मौजी गज़ाला और प्रेमिका अर्शिया की लाश पड़ी है) ‘ज़िन्दगी’ की तलाश में आगे की ओर देखता है (वह भी तब जब कुछ देर पहले ही अर्शिया की लाश को वह कब्र से निकाल अपनी बांहों में समेटे बैठा रहता है) निकल लेता है. यह अतीत से निवृति नहीं बल्कि उससे हासिल सबक से ली हुई सीख है जो उसे उसकी मां ‘गज़ाला’ उसके दादा ‘हुसैन मीर’ के शब्दों में उसे समझाती है कि ‘इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होती है’. हैदर यहाँ ‘कश्मीर’ के बच्चों के लिए या ऐसे किसी भी परिवेश के बच्चे के लिए यह सबक छोड़ जाती है कि हिंसा से उसका कुल हासिल अपनों के जान-माल का नुकसान ही है. 
फिल्म में कश्मीर के हालात की भयावहता कई-कई दृश्यों में सामने आती है, वह चाहे फिल्म के अंत में कब्र खोदने और अपनी ही कब्र खोदकर खुद ही लेटने का झकझोर देने वाला दृश्य हो या एक व्यक्ति के बिना तलाशी खुद के घर में न घुसने की हिम्मत वाला दृश्य हो या सिर्फ इस्लामाबाद कहने मात्र से सेना द्वारा ‘हैदर’ को रोक लेने वाला दृश्य हो, या कदम कदम पर लाइन लगाकर उनकी तलाशी और पहचान पत्र की मांग वाला दृश्य हो, या आधी विधवा हुई लोगों की त्रासदी सामने लाने वाला दृश्य हो, या गायब हुए लोगों की तलाश में लगे परिजन वाला दृश्य हो, या हैदर द्वारा लाल चौक पर ‘हम हैं कि हम नहीं’ सवाल उठाने वाला दृश्य हो. ऐसा लगता है ‘कश्मीर’ कोई स्वतंत्र इलाका न होकर कोई कंसंट्रेशन कैंप में बदल दिया गया है. ‘हैदर’ का संवाद कि ‘पूरा कश्मीर ही एक कंसंट्रेशन कैंप है’ इसे और भी मजबूती देता है. 
‘हैदर’ यूँ तो ‘शेक्सपियर’ के नाटक प्रसिद्ध त्रासदी नाटक ‘हैमलेट’ पर आधारित है. लेकिन इसका रूपान्तरण कमाल का है. इस नाटक को विशाल भारद्वाज और बशारत पीर की जोड़ी ने इस कदर कश्मीर की पृष्ठभूमि में ढाला है कि कहीं से भी यह अनुवाद या रूपांतरण प्रतीत नहीं होता है. ‘शेक्सपियर’ का नाटक ‘हैमलेट’ जहाँ एक शाही परिवार की त्रासदी और बदले की कहानी होकर रह जाती है वहीँ ’हैदर’ एक मध्यवर्गीय परिवार की कहानी की पृष्ठभूमि में ‘कश्मीर’ की भयावहता का राजनीतिक आख्यान बन जाता है. फिल्म का सर्वाधिक राजनीतिक और चमत्कृत कर देने वाला दृश्य वह है जिसमे फ़िल्मकार अफ्प्सा को चुत्स्पा में तब्दील कर उसके निहितार्थ को एक ही झटके में खोलकर रख देता है. हमारे समय में बड़े से बड़े राजनीतिक कलाकार भी इतनी हिम्मत कहाँ कर पाते हैं!                
फिल्म में अभिनेताओं के काम पर अलग से बात करने की जरूरत के बाजवूद उनपर विस्तार में नहीं जायूँगा. फिल्म में सिर्फ शाहिद और श्रद्धा कपूर जैसी व्यावसायिक मजबूरियों को छोड़ दें तो ज्यादातर कलाकार अपने पात्र में पूरी तरह डूबे हुए नजर आते हैं और सबने उत्कृष्ट अभिनय का मुजाहिरा किआ है. तब्बू, इरफ़ान, नरेन्द्र झा, के.के. मेनन, ललित परिमू, अश्वत भट्ट और कुलभूषण खरबंदा जैसे अभिनेताओं ने अपने काम से अभिनय का वह वितान रचा है जो फिल्म को और उसके किरदारों को हमारे भीतर गहरे तक उतरने में मददगार बनते हैं और मेरे ख्याल से एक अच्छे अभिनेता का काम भी यही है. अभिनेता का काम अपने अभिनय से चमत्कृत करना नहीं है जैसा कि आम तौर पर माना जाता है बल्कि उसका काम अपने किरदार को स्क्रिप्ट की रौशनी में पेश करना है और अच्छे अभिनेता वही होते हैं जो ऐसा कर गुजरते हैं. इस फिल्म में अच्छे अभिनेताओं की खान है. हर कोई अपनी भूमिका में फिट और चाक-चौबंद. यही इस फिल्म की ताकत भी है.
फिल्म का असली नायक इसकी कसी हुई स्क्रिप्ट, गीत-संगीत और उससे भी कसे हुए संवाद हैं. पूरी फिल्म में एक या दो जगहों को छोड़कर कहीं भी चलताऊ संवादों का इस्तेमाल नहीं किया गया है. फिल्म में संवाद के रूप में इस्तेमाल किआ गया एक-एक शब्द बोलता हुआ और अपनी पूरी तासीर के साथ उपस्थित होता है. २० वीं शताब्दी के अज़ीम शायर फैज़ अहमद फैज़ की शायरी का बेहद ही सधा हुआ इस्तेमाल इसमें किया गया है. गानों में गुलजार के बोल और विशाल भारद्वाज का संगीत बोलता हुआ प्रतीति होता है और प्रसंगानुकूल है.
एक फिल्म के तौर पर तो यह फिल्म वहां जाकर खड़ी होती है जहाँ इसके इर्द-गिर्द कोई दूसरी फिल्म नहीं ठहरती. फिल्म के तमाम तकनीकी और गैर-तकनीकी पक्षों का ऐसा जादुई कोलाज देखने का मौका बॉलीवुड की फिल्मों में देखने की उम्मीद शायद ही कोई रखता है. सिनेमेटोग्राफी, कला निर्देशन, गीत-संगीत, अभिनय, कहानी और परिदृश्य आदि कई चीज़ों को गुम्फित करती यह फिल्म किसी महाकाव्य की तरह है जिसके दृश्यों का जादू सिनेमा हाल के पर्दों से पसरकर हमें हमेशा के लिए घेर लेते हैं. यह हमें उन सच्चाइयों से जादुई रूप में सपनों की तरह रूबरू करवाते हैं जिनका सामना हम दिन की रौशनी में करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. यह फिल्म पर्दे से उतरकर हमारे भीतर तक पसरती है और हमारे भीतर भी बहुत कुछ पिघला देती है. इसे महसूस करने के लिए हमें कश्मीरी होने की आवश्यकता नहीं है बल्कि महज एक इंसान होना ही काफी है. एक फिल्म या किसी भी कलाकृति की सबसे बड़ी ताकत भी यही होती है कि वह अपना एक परिवेश रचते हुए भी दुनिया के सभी लोगों के लिए होती है. ‘हैदर’ उसकी जीती-जागती मिसाल है.       

Comments

sanjeev5 said…
अफ़सोस की हैदर में लोग वो भी देख रहे हैं जो की विशाल ने भी नहीं देखा है.....रजत कपूर की फिल्म "आंखों देखी" देख लीजिये आप हैदर को भूल जायेंगे....

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