नकाब है मगर हम हैं कि हम नहीं: कश्मीर और सिनेमा -प्रशांत पांडे

Prashant Pandey
 प्रशांत पांडे
 विशाल भारद्वाज की हैदर के शुरुआती दृश्यों में एक डॉक्टर को दिखाया गया है जो अपने पेशे को धर्म मानकर उस आतंकवादी का भी इलाज करता है जिसे कश्मीर की सेना खोज रही है। फिर एक सीन है जिसमे लोग अपने हाथों में अपनी पहचान लिए घरों से निकले हैं और इस पहचान पंगत में डॉक्टर भी शुमार है। सेना कोई तस्दीक अभियान चलाती दिखती है और फौज की गाड़ी में एक शख्स बैठा है जो उस भीड़ में से पहचान कर रहा है।
गौरतलब है कि पहचान करने वाले व्यक्ति की पहचान एक मास्क से छुपाई गयी है। वो कई लोगों को नफ़रत के साथ चिन्हित करता है, उनमे डॉक्टर की पहचान भी होती है। इस प्रतीकात्मक सीन में ही विशाल ये बात कायम कर देते हैं कि वो फिल्म को किसी तरह का जजमेंटल जामा नहीं पहनायेंगे, बल्कि साहस से सब कुछ कहेंगे। बाद में हालांकि, हिम्मत की जगह इमोशन ले लेते हैं और ये व्यक्तिगत बदले की कहानी, मां बेटे के रिश्ते की कहानी भी बनती है।
कश्मीर की आत्मा को किसी ने इस तरह इससे पहले झकझोरा हो ये मुझे याद नहीं। हालांकि, कश्मीर को लेकर सिनेमा ही सबसे ज्यादा बहस छेड़ता रहा और एक्सप्लोर करने के सिवाय कुछ फिल्मों ने अलग अलग तरीके से कश्मीर की कशमकश को बयां किया।
मुझे लोकेशन दिखाने वाली फिल्मों से ज्यादा याद है रोज़ा, रोज़ा और हैदर एक दृष्टि से समान दिखते हैं मगर सिर्फ एक नज़रिए से क्योंकि रोज़ा में एक पत्नि आतंकियों की कैद में फंसे अपने पति को वापस लाने की लड़ाई लड़ रही है जबकि यहां हैदर अपने पिता को खोज रहा है जो डिसअपियर्ड हैं। हैदर में एक संवाद है कि डिसअपियर्ड लोगों की बीवीयां आधी बेवा (विधवा) कहलाती हैं। रोज़ा के अलावा कश्मीर को करीब से देखने की कोशिश विधु विनोद चोपड़ा ने भी कि गोया कि वो खुद कश्मीर से ताल्लुक रखते हैं उनके FTII पुणे के दिनों के साथी फुनशुक लद्दाखी से मेरी मुलाकात लद्दाख में हुई थी, गौरतलब है कि विधु विनोद चोपड़ा के निर्माण में बनी फिल्म थ्री इडियट्स के केंद्रीय पात्र का नाम फुनशुक वांगड़ु था, विधु के अवचेतन में शायद अपने साथी का नाम रह गया हो क्योंकि फिल्म का क्लाइमैक्स लद्दाख में ही शूट हुआ था।
खैर मिशन कश्मीरउस युवा की कहानी है जिसे कश्मीर की आज़ादी के नाम पर आंकत की राह पर धकेला गया है। ये भी व्यक्तिगत बदले की कहानी है, क्योंकि आतंकी के परिवार को नकाब में छुपे ऑफिसर संजय दत्त की गोलियों का शिकार होना पड़ा था, कसूर उस परिवार का बस इतना था कि उन्होने आतंकवादियों को अपने घर में खौफ की वजह से खाना खिलाया था। याद कीजिए हैदर यहां डॉक्टर कश्मीर का मर्ज़ बन चुके आतंक का इलाज करता है तो उसे मौत मिलती है। एक नकाब मिशन कश्मीर में भी था और एक नकाब हैदर में। क्या माने कि कश्मीर की कशमकश इन नकाबपोशों के कारण है। दरअसल हैदर में एक संवाद में कहा जाता है कि हमारे लिए तो उपर खुदा तो नीचे फौज जायें तो जायें कहां।
कुछ लोग कह रहे हैं कि फौज को ग़लत दिखाया गया है। मैं कहता हूं कि ज़रा सोच के देखिए कि क्योंकि आपको अच्छा लगेगा कि आप दिन रात फौज तो छोड़िए पुलिस से घिरे हों। कर्फ्यू लगता है तो आप बेचैन हो जाते हैं। कश्मीर में तो अघोषित कर्फ्यू जैसा आलम हमेशा रहता है। मैं कश्मीर को करीब से नहीं जानता लेकिन खबरों के बीच रहने की आदत में कश्मीर से जो भी खबर आती है वो सकारात्मक बहुत कम मौकों पर रही। या तो आतंकियों से मुठभेड़ की खबर या तो पाकिस्तान की तरफ से सीज़फायर का उल्लंघन।
एक हालिया फिल्म का ज़िक्र लाज़मी हो जाता है जिसका नाम है हारुद। हारुद के एक दृश्य में लोगों को बसों से उतरने को कहा जाता है, कश्मीर के डाउन टाउन इलाके से आने जाने वाले लोगों को रोज़ाना एक थका देने वाली चेकिंग प्रक्रिया से गुजरने वाले दृश्य को हारुद में हैदर से बेहतर फिल्माया गया है। हारुद को निर्देशित करने वाले आमिर बशीर हैदर में श्रद्धा कपूर के भाई के किरदार में है। गौरतलब है कि हैदर में भी एक ऐसा ही दृश्य बड़ी जल्दी में फिल्माया गया जबकि हैदर हौले हौले चलने वाली फिल्म है।
देखिए मसला वही है कि कश्मीर में तनाव है और रहेगा भी, कश्मीर को पेचीदगी में जीने की आदत, सरकारों, सेपरेटिस्ट ताकतों और यहां तक की समाचारों की भी दी हुई है। इसलिए अगर परदे पर हमारे फिल्मकार उस तनाव को ही दिखाते हों तो इसमे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। फैज़ की नज़्म उम्मीद जगाती है तो हैदर के पिता तनाव वाले दिनो में गुनगुनाते हैं….हम देखेंगे, हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन कि जिसका वादा है


Comments

sanjeev5 said…
अफ़सोस की हैदर में लोग वो भी देख रहे हैं जो की विशाल ने भी नहीं देखा है.....रजत कपूर की फिल्म "आंखों देखी" देख लीजिये आप हैदर को भूल जायेंगे....

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