फिल्‍म समीक्षा : सोनाली केबल

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
बड़ी मछलियां तालाब की छोटी मछलियों को निगल जाती हैं। अपना आहार बना लेती हैं। देश-दुनिया के आर्थिक विकास के इस दौर में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्थानीय उद्यमियों के व्यापार को निगलने के साथ नष्ट कर रही हैं। इस व्यापक कथा की एक उपकथा 'सोनाली केबल' में है। अपने इलाके में सोनाली केबल चला रही सोनाली ऐसी परिस्थितियों में फंसती है। फिल्म में सोनाली विजयी होती है। वास्तविकता में स्थितियां विपरीत और भयावह हैं।

निर्देशक चारूदत्त आचार्य ने अपनी सुविधा से किरदार गढ़े हैं। उन्होंने प्रसंगों और परिस्थितियों के चुनाव में भी छूट ली है। तर्क और कारण को किनारे कर दिया है। सिर्फ भावनाओं और संवेगो के आधार पर ही आर्थिक आक्रमण का मुकाबला किया गया है। हम अपने आसपास देख रहे हैं कि सभी प्रकार के उद्यमों में किस प्रकार रिटेल व्यापारी मल्टीनेशनल के शिकार हो रहे हैं। सोनाली का मुकाबला मल्टीनेशनल कंपनी से है। इस मल्टीनेशनल कंपनी की नीति और समझ में सारे मनुष्य उसके ग्राहक हैं। अपने उत्पादों को उनकी जरूरत बनाने के बाद वह उनसे लाभ कमाएगी। इसके लिए जरूरी है कि वह स्थानीय स्तर पर सक्रिय खुदरा उद्यमियों को खत्म कर दे। अपनी उपयोगिता बढ़ाए। लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ भी करे।
सोनाली का किरदार निभा रही रिया चक्रवर्ती मराठी युवती की भूमिका में मिसफिट लगती हैं। हालांकि भाषा और लहजे में मराठीपन लाने और डालने की कोशिश की गई है। स्मिता जयकर और स्वानंद किरकिरे ही अपने मराठी चरित्रों के साथ न्याय कर पाते हैं। अली फजल को विदेश से लौटने का बहाना मिल गया है, लेकिन रिया चक्रवर्ती न तो भाषा पकड़ पाती हैं और न बात-व्यवहार। अनुपम खेर के अभिनय का खास अंदाज यहां दोहराव पैदा करता है। उनका कैरेक्टर कैरीकेचर बन गया है।
निर्देशक चारूदत्त आचार्य ने इंटरनेशनल मुद्दे को स्थानीय स्तर पर दिखाने की सराहनीय कोशिश की है। इस कोशिश में चरित्र और स्थितियों की वास्तविकता पर ध्यान देना जरूरी था। इसके अभाव में फिल्म प्रभावहीन हो जाती है। ऐसी फिल्मों में प्रेम कहानी डालने की अनिवार्यता नहीं रहनी चाहिए। इससे कथ्य और अभिव्यक्ति में व्यवधान आता है।
अवधिः 127 मिनट
** दो स्‍टार 

Comments

sanjeev5 said…
फिल्म देखनी है तो रजत कपूर की "आँखों देखी" देखिये....आप ख़ुद को भूल जायेंगे.....

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को