‘हेमलेट’ का प्रतिआख्यान रचती ‘हैदर’ - डाॅ. विभावरी.
-डाॅ. विभावरी.
पिछले दिनों में 'हैदर' पर
काफी कुछ लिखा गया...लेकिन कुछ छूटा रह गया शायद!
एक ऐसे समय में जब विशाल भारद्वाज यह घोषित करते हैं कि वामपंथी हुए बिना वे कलाकार नहीं हो सकते, ‘हैदर’ का स्त्रीवादी-पाठ एक महत्त्वपूर्ण नुक्ता बन जाता है| अपनी फिल्म में कश्मीर को ‘हेमलेट’ का प्रतीक बताने वाले भारद्वाज दरअसल अपने हर पात्र में कश्मीर को टुकड़ों-टुकड़ों में अभिव्यक्त कर रहे हैं| ऐसे में गज़ाला और अर्शी की ‘कश्मीरियत’ न सिर्फ महत्त्वपूर्ण बन जाती है बल्कि प्रतीकात्मकता के एक स्तर पर वह कश्मीर समस्या की ‘मैग्निफाइंग इमेज’ के तौर पर सामने आती है|
एक ऐसे समय में जब विशाल भारद्वाज यह घोषित करते हैं कि वामपंथी हुए बिना वे कलाकार नहीं हो सकते, ‘हैदर’ का स्त्रीवादी-पाठ एक महत्त्वपूर्ण नुक्ता बन जाता है| अपनी फिल्म में कश्मीर को ‘हेमलेट’ का प्रतीक बताने वाले भारद्वाज दरअसल अपने हर पात्र में कश्मीर को टुकड़ों-टुकड़ों में अभिव्यक्त कर रहे हैं| ऐसे में गज़ाला और अर्शी की ‘कश्मीरियत’ न सिर्फ महत्त्वपूर्ण बन जाती है बल्कि प्रतीकात्मकता के एक स्तर पर वह कश्मीर समस्या की ‘मैग्निफाइंग इमेज’ के तौर पर सामने आती है|
'डिसअपीयरेड
(disappeared) लोगों की बीवियां, आधी बेवा कहलाती हैं! उन्हें इंतज़ार
करना होता है...पति के मिल जाने का...या उसके शरीर का...' फिल्म
में गज़ाला का यह संवाद दरअसल इस सामाजिक व्यवस्था में समूची औरत जाति के रिसते हुए
घावों को उघाड़ कर रख देता है| वहीँ अपनी माँ को शक की नज़र से देखते
हैदर का यह संवाद कि 'मुझे यकीन है कि आप खुद को नहीं मारतीं|' इस बात को रेखांकित करता है कि एक औरत को ही पितृसत्ता के समक्ष, खुद
को साबित करना पड़ता है...और फिल्म के अंत में अपने बेटे के प्रति प्रेम को गज़ाला साबित
भी करती है!!! वास्तव में ये दोनों ही संवाद स्त्री की ज़िन्दगी के दो ध्रुव हैं, जिनके
बीच उसका जीवन आकार लेता है| पितृसत्ता पर इस हद तक निर्भरता कि स्त्री की अपनी कोई
सोच जन्म ही न ले सके- एक ऐसी सच्चाई है जिससे समाज न सिर्फ शर्मसार होता है बल्कि
स्त्री के रूप में अपने विकास के सहभागी को लगातार खोता भी रहा है| यहीं पर यह स्पष्ट
करना ज़रूरी है कि न सिर्फ स्त्री विषयक नज़रिए से बल्कि अपनी पूरी संवेदना में यह फिल्म
'हैमलेट' का प्रतिआख्यान रचती है|
ठीक वैसे ही जैसे अनुराग कश्यप ‘देवदास’
का प्रतिआख्यान ‘डेव
डी’ में रचते हैं| यह एक महत्त्वपूर्ण
कारण है कि ये फिल्में स्त्री-दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं| ‘हेमलेट’ में जहाँ ‘गरट्रयूड'
एक गुमनाम से किरदार के रूप में मौजूद है वहीँ ‘हैदर’ की ‘गज़ाला’ फिल्म का केन्द्रीय चरित्र है| जिसकी
न सिर्फ अपनी शख्सियत है बल्कि अपनी एक सोच भी है| हेमलेट के बिल्कुल उलट हैदर की गज़ाला
एक नकारात्मक किरदार के तौर पर नहीं खुलती बल्कि फिल्म के मध्यांतर से ही उसके प्रति
दर्शकों के नज़रिए में फर्क आना शुरू हो जाता है| लिहाज़ा हैदर की माँ 'गज़ाला', हैमलेट की माँ 'गरट्रयूड' नहीं
है| 'गज़ाला' अपनी इयत्ता में उस 'मानवी' का
प्रतिनिधित्व करती है जो हमारे पुरुषवादी समाज को सहज स्वीकार्य नहीं है|
दूसरा स्त्री-चरित्र अर्शी है जो हैदर
की प्रेमिका है जिसका उसके अपने ही पिता द्वारा प्रशासनिक हितों के लिए उपयोग किया
जाता है| लेकिन एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने पिता द्वारा छली गयी वही अर्शी अपने पिता की हत्या के बाद खुद के जीवन को ख़त्म कर लेना
बेहतर रास्ता मानती है|
यहाँ एक बड़ा सवाल यह है कि स्त्री
की ये विवशता कि उसे अपने आप को प्रमाणित करने के लिए खुद के अस्तित्व को ही ख़त्म करना
पड़े- जिन मजबूरियों में जन्म लेती हैं उनके निहितार्थ क्या है?
साहित्यिक कृतियों के अडैप्टेशन से
बनने वाले मुख्यधारा सिनेमा में सामान्यतः ऐसे परिवर्तन कर दिए जाते हैं जो ज़्यादातर
दर्शकों को पसंद आये दूसरे शब्दों में कहें तो पितृसत्ता सम्बन्धी सोच को तुष्ट करते
हों अथवा सामाजिक आदर्शो का निर्वहन सकारात्मक तरीके से करते हों| ‘आंधी’, ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी फ़िल्में इसका प्रमाण हैं| यहाँ
पर ध्यान देने वाली बात यह भी है कि ज़्यादातर मुख्यधारा सिनेमा स्त्री को ‘देवी’(नायिका) या ‘दानवी’(वैम्प) के खांचे में फिट करती रहीं
हैं| लेकिन आज के बदलते मुख्यधारा सिनेमा ने इन दोनों ही छवियों से इतर स्त्री के ‘मानवी’ रूप पर खुद को केन्द्रित किया है|
पिछले दिनों में आई फ़िल्में ‘लंच बॉक्स’,
‘हाइवे’, ‘क्वीन’ जैसी तमाम फ़िल्में इसका प्रमाण हैं|
ठीक इसी तर्ज पर ‘हैदर’ के सन्दर्भ में यह देखना रोचक है कि विशाल भारद्वाज ‘हेमलेट’ की ‘दानवी’ गरट्रयूड को ‘हैदर’ की ‘मानवी’ गज़ाला में कैसे परिणत करते हैं!!!
और यहीं पर फिल्म यह सवाल भी उठाती
है कि फिल्मांतरण के लिहाज़ से एक फिल्मकार साहित्य में कितने परिवर्तन की छूट ले सकता
है? इस सन्दर्भ में विशाल, सत्यजित रे की दृष्टि के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं| जो मानती
है कि साहित्य पर आधारित सिनेमा फिल्मकार कि पुनर्रचना है| इस लिहाज़ से ‘हैदर’ विशाल भारद्वाज की ‘पुनर्रचना’ है| और कई मायनों में यह हेमलेट के
बिल्कुल उलट निष्कर्षों पर पहुंचती है| अतः उनकी रचनात्मकता
का सम्मान करते हुए यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि ‘हैदर’ की पृष्ठभूमि भले ही हेमलेट पर आधारित
हो पर अंततः यह विशाल भरद्वाज की अपनी रचना है| जिसमें उनकी विशिष्ट शैली के साथ ही
साथ उनका अपना दर्शन भी जुड़ा है|
तमाम विमर्शों के साथ ही साथ फिल्म
माँ और बेटे के रिश्तों को भी नए सिरे से व्याख्यायित करती है| ठीक वैसे ही जैसे एक
ज़माने में महबूब खान ने ‘मदर
इंडिया’ में किया था|
गज़ाला का अपने बेटे से कहा गया यह
संवाद कि ‘तेरे पिता की ज़िन्दगी में मेरी कोई
अहमियत नहीं थी|’
दरअसल औरत की अपनी पहचान की तलाश है| इस लिहाज़ से शाहिद कपूर पर फिल्माया गया मोनोलॉग
‘दिल की गर सुनू तो हूँ, दिमाग की तो
हूँ नहीं| जान लूं कि जान दूं, मैं रहूँ कि मैं नहीं’ अपने विस्तार में स्त्री सवालों से
भी जुड़ता है| संभवतः इसी सवाल से जूझते हुए अंततः इस फिल्म की स्त्री दिल और दिमाग
दोनों की ही सुनकर अपने शरीर को भले ख़त्म कर देती है लेकिन उसका वजूद बाकी रह जाता
है...फिल्म ख़त्म होने के बाद भी!
हेमलेट के बिल्कुल उलट फिल्म इंतकाम
के विरोध में आवाज़ उठाती है| ‘इंतकाम से सिर्फ इंतकाम पैदा होता है| अपने भीतर के इस इंतकाम से आज़ाद
हुए बगैर हम सही मायनों में आज़ाद नहीं हो सकते|’ फिल्म का सूत्र यही है| यद्यपि यह ज़रूर है कि फिल्म के नायक
‘हैदर’ को इंतकाम की इस आग से निकालने के
लिए उसकी माँ ‘गज़ाला’ को ‘अग्नि-परीक्षा’ देनी पड़ती है|
देश में ‘आफ्सपा' जैसे
क़ानून, न जाने कितने 'हैदर' और
'गज़ाला' पैदा कर रहें हैं इसका हिसाब या तो
लिया नहीं जाता या फिर लिया जाना ज़रूरी नहीं समझा जाता!!! कश्मीर में 'ग्वान्तेनामो
बे' जैसे तमाम 'डिटेंशन सेंटर' दरअसल
समस्या का हल निकालने की बजाय भ्रष्ट व्यवस्था के हित साधन का हथियार बनते जा रहे हैं|
इस पूरी व्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद महिलायें इन विसंगतियों से उपजे दबाव का सबसे आसान शिकार होतीं हैं| इन तकलीफों से जूझती औरत का यह संघर्ष बाहरी ही नहीं बल्कि आतंरिक भी है| पितृसत्तात्मक मूल्यों से लड़ती 'गज़ाला' के चरित्र में ये दोनों संघर्ष स्पष्ट तौर पर दिखते हैं|
इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इन प्रताड़नाओं के विरोध का कोई असर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर नहीं दिखता| 'आफ्सपा' के विरोध में चौदह साल से अनशन कर रही इरोम इस बात का जीता जागता प्रमाण है!
बहरहाल साहित्य, सिनेमा और समाज के अंतर्संबंधों की बेहतरीन पड़ताल करती #हैदर के लिए #विशालभारद्वाज के साथ ही साथ अपने खूबसूरत अभिनय केलिए #शाहिदकपूर,#तब्बू,#इरफ़ान #श्रद्धा कपूर और #केकेमेनन को बधाई!
इस पूरी व्यवस्था में निचले पायदान पर मौजूद महिलायें इन विसंगतियों से उपजे दबाव का सबसे आसान शिकार होतीं हैं| इन तकलीफों से जूझती औरत का यह संघर्ष बाहरी ही नहीं बल्कि आतंरिक भी है| पितृसत्तात्मक मूल्यों से लड़ती 'गज़ाला' के चरित्र में ये दोनों संघर्ष स्पष्ट तौर पर दिखते हैं|
इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इन प्रताड़नाओं के विरोध का कोई असर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर नहीं दिखता| 'आफ्सपा' के विरोध में चौदह साल से अनशन कर रही इरोम इस बात का जीता जागता प्रमाण है!
बहरहाल साहित्य, सिनेमा और समाज के अंतर्संबंधों की बेहतरीन पड़ताल करती #हैदर के लिए #विशालभारद्वाज के साथ ही साथ अपने खूबसूरत अभिनय केलिए #शाहिदकपूर,#तब्बू,#इरफ़ान #श्रद्धा कपूर और #केकेमेनन को बधाई!
Comments
पहला की फिल्म जो कह रही है या pr में जो कहा जरहा है तो वही मिल रहा है या नही। जैसी रोहित शेट्टी फिल्मे बनाते हैं वैसी कहते हैं। अतः बुरा नही लगता अपेक्षाओं के टूटने का।
दूसरा किसी मुद्दे पर फिल्म बनाने में उस मुद्दे की कितनी वास्तविक तसवीर पेश की है, डायरेक्टर का नज़रिया क्या है इस बात को समझाने का। इसके साथ फिल्म को पेश करने का तरीका
हैदर कई जगह हांफती हुई सी दिखी इन मामलों में
मेरे नज़रिए पर अपनी राय पढ़ कर दे सकें तो अच्छा लगेगा
http://tukbandie.blogspot.in/2014/10/blog-post_9.html?m=1
खैर क्यों न हो विशाल को शायद लगता होगा कि भारत से अलग होकर गिलानी साहब और उनके समर्थक वहाँ जरूर वामपंथी व्यवस्था ही लागू करेंगे ।
अफ्सपा से बड़ा आतंकित है विशाल। लेकिन यहाँ भी बताना चाहिए कि क्या वहाँ स्थानीय पुलिस और प्रशासन स्थिति को फिर से बिगडने नहीं देंगे?
और ये कानून तो वहाँ अलगाववादियों की हमदर्द सरकार की वजह से ही है। वर्ना राज्य सरकार ने जिन इलाकों को अशांत घोषित कर रखा है उन्हें शांत घोषित कर दे। वहाँ फिर अफस्पा लग ही नहीं सकता। फिर तो सेना भी अपने जवानों के हाथ बांधकर उन्हें मरने के लिए नहीं भेजेगी। पर ये सब तथ्य विशाल को क्यों बताने हैं। उन्हें तो बस चुत्स्पा करना है।
और हां विशाल जी। कला के नाम पर कुछ भी नहीं चल जाता है यदि कोई कुछ बोल नहीं रहा तो। मां बेटे के बीच के भावुक दृश्यों को तो कम से कम द्विअर्थी बनाने की कोशिश न किया करें। नजरों का दोष जैसा घिसा पिटा बहाना मारा जा सकता है पर दर्शक आपकी नियत महसूस कर लेता है। ऐसे दृश्य असहज कर जाते हैं पर कोई कुछ बोल नहीं पाता पर मैंनें बोल दिया है ठीक है?