फिल्‍म समीक्षा : जिगरिया

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
 सन् 1986 की पृष्ठभूमि में ताजमहल के शहर में शामू और राधा की प्रेम कहानी ने जन्म तो लिया लेकिन उसे जीवन नहीं मिल पाया। 'प्रतिघात' और 'लव 86' फिल्मों के पोस्टर से भान हुआ कि यह फिल्म उस कालखंड की होगी। लेखक-निर्देशक ने किसी और तरीके से समय का संकेत नहीं दिया है। शामू हलवाई परिवार का लड़का है और राधा ब्राह्मण परिवार की लड़की है। अंतर्जातीय प्रेम और विवाह को आज भी पूर्ण स्वीकृति नहीं मिल पाई है। 28 साल पहले तो और भी मुश्किलें थीं।
निर्देशक राज पुरोहित ने अंतर्जातीय प्रेम और विवाह की इस फिल्म के लिए जिन किरदारों को अपना प्रतिनिधि चुना है, वे अपने व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं करते। पढऩे-लिखने में फिसड्डी शामू शायरी के नाम पर तुकबंदी करता है और राधा तो अभी संभवत: स्कूल में ही पढ़ती है। ऐसे अव्यस्क किरदारों का प्रेम लिखना और दिखाना समीचीन नहीं है। खास कर फिल्म का अंत तो अनावश्यक और अप्रासंगिक है। बहरहाल, लेखक-निर्देशक ने इस प्रेम कहानी में हिंदी फिल्मों में सैकड़ों बार दिखाए जा चुके प्रसंगों, दृश्‍यों और संवादों का सहारा लिया है। पटकथा और दृश्य संरचना में ढीलापन है। बार-बार लगता है कि हम देखी हुई फिल्मों की नकल देख रहे हैं।
कलाकारों में केवल वीरेंद्र सक्सेना और केके रैना ही अपने किरदारों के साथ न्याय कर सके हैं। बाकी सारे कलाकारों के अभिनय में नकल और नाटकीयता है। शामू और राधा की मुख्य भूमिका निभा रहे हर्षवर्धन एवं चेरी मार्डिया अभी नए और अनगढ़ हैं। उनके चरित्रों को सही ढंग से गढ़ा भी नहीं गया है। लोकेशन की स्थानीयता प्रभावित करती है, लेकिन बार-बार नदी, पुल और ताजमहल का दिखना प्रभाव कम करता है। मुंबई के दृश्य भी घिसे-पिटे तरीके से पेश किए गए हैं। शामू के दोस्त के रूप में आए अभिनेता केतन सिंह में स्पार्क है, लेकिन उन्हें भी निर्देशक ने कैरीकेचर बना दिया है।
'जिगरिया' उत्तर भारत के रंग और खुशबू के बावजूद निर्देशकीय सीमाओं के कारण सामान्य फिल्म बनकर रह गई है।
अवधि: 141 मिनट
* 1/2 डेढ़ स्‍टार 

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