दरअसल : फिल्म समीक्षा की नई चुनौतियां
-अजय ब्रह्मात्मज
इस साल सोशल मीडिया खास कर ट्विटर पर दो फिल्मों की बेइंतहा तारीफ हुई। फिल्म बिरादरी के छोटे-बड़े सभी सदस्यों ने तारीफों के ट्विट किए। ऐसा लगा कि फिल्म अगर उनकी तरह पसंद नहीं आई तो समझ और रसास्वादन पर ही सवाल होने लगेंगे। ऐसी फिल्में जब हर तरफ से नापसंद हो जाती हैं तो यह धारणा बनती है कि फिल्म बिरादरी की तहत सिर्फ औपचारिकता है। पहले शुभकामनाएं देते थे। अब तारीफ करते हैं। फिल्म बिरादरी इन दिनों कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गई है। वे फिल्म पत्रकारों और समीक्षकों का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते। आए दिन कहा जाता है कि अब समीक्षक अप्रासंगिक हो गए हैं। उनकी समीक्षा से फिल्म का बिजनेस अप्रभावित रहता है। वे कमर्शियल मसाला फिल्मों के उदाहरण से साबित करना चाहते हैं कि भले ही समीक्षकों ने पसंद नहीं किया,लेकिन उनकी फिल्में 100 करोड़ से अधिक बिजनेस कर गईं। धीरे-धीरे दर्शकों के मानस में यह बात भी घर कर गई है कि फिल्म का बिजनेस ही आखिरी सत्य है। बाजार और खरीद-बिक्री के इस दौर में मुनाफा ही आखिरी सत्य हो गया है।
इन दिनों प्रिव्यू या किसी शो से निकलते ही संबंधित निर्माता,निर्देशक,कलाकार और दोस्त-परिचित यही पूछते हैं-क्या लगता है क्या लगता है से उनका तात्पर्य फिल्म के बिजनेस की संभावनाओं का अनुमान लगाना होता है। वे तुरंत हिंट या फ्लॉप सुनना चाहते हैं। मैं ऐसे जिज्ञासुओं से हमेशा यही कहता हूं कि मैं जलेबी खाने के बाद यह तो बता सकता हूं कि वह मीठी और स्वादिष्ट है कि नहीं? मैं यह नहीं बता सकता कि वह कितनी बिकेगी? दुकानदार उसे बेच पाएगा कि नहीं? जलेबी की बिक्री कई और बातों पर निर्भर करती है,जो जलेबी की गुणवत्ता से परे होती हैं। फिलम का बिजनेस इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि आम दर्शक भी पहले दिन से यह जानना चाहते हैं कि फिल्म चल रही है या नहीं। अनेक दर्शक फिल्म के कलेक्शन के आधार पर उसे देखने या नहीं देखने का फैसला करते हैं। फिल्म की कोई बात नहीं करता। धारणा बनती जा रही है कि अगर फिल्म का कलेक्शन अच्छा है तो फिल्म भी अच्छी होगी। आप खुद ही सोचें। ऐसा है क्या? फिर तो 100 करोड़ क्लब में आ चुकी सभी फिल्में क्वालिटी के लिहाज से श्रेष्ठ फिल्में होतीं।
डिजिटल युग में समीक्षकों खास का प्रिंट मीडिया के समीक्षकों की चुनौतियां बढ़ गई हैं। सालों की निरंतर समीक्षा से कुछ समीक्षकों ने प्रशंसक और पाठक जुटाए हैं। उनके लिए चुनौती है कि वे अपने पाठकों को कैसे संतुष्ट रखें। इन दिनों फिल्म की रिलीज के पहले से उसकी सराहना और आलोचना में टिप्पणियां आने लगती हैं। इन टिप्पणियों से सोशल मीडिया पर एक्टिव दर्शक प्रभावित होते हैं। स्वयं दर्शक भी समीक्षक हो गए है। अपनी राय और दूष्टिकोण जाहिर करने से वे नहीं हिचकते। प्रिंट मीडिया में शुक्रवार और शनिवार तक समीक्षाएं छपती हैं। डिजिटल युग के दर्शकों के लिए तब तक काफी देर हो चुकी होती है। इसके अलावा अभी यह बता पाना मुश्किल है कि क्या किसी समीक्षा से फिल्म का बिजनेस प्रभावित होता है या यों कहें कि दर्शक फिल्म के प्रति आकर्षित होते हैं। लोकप्रिय सितारों की मसाला फिल्मों पर भले ही असर न होता हो ,लेकिन छोटी और स्वतंत्र फिल्मों के दर्शक बढ़ाने में समीक्षकों की भूमिका रहती है। आज भी वे फिल्म और दर्शकों के बीच पुल होते हैं। यहां तक कि कमर्शियल मसाला फिल्मों के मनोरंजन और आनंद में भी समीक्षक की दृष्टि मददगार होती है।
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