फिल्म समीक्षा : क्रीचर
-अजय ब्रह्माात्मज
एक जंगल
है। आहना अपने अतीत से पीछा छुड़ा कर उस जंगल में आती है और एक नया बिजनेस
आरंभ करती है। उसने एक बुटीक होटल खोला है। उसे उम्मीद है कि प्रकृति के
बीच फुर्सत के समय गुजारने के लिए मेहमान आएंगे और उसका होटल गुलजार हो
जाएगा। निजी देख-रेख में वह अपने होटल को सुंदर और व्यवस्थित रूप देती है।
उसे नहीं मालूम कि सकी योजनाओं को कोई ग्रस भी सकता है। होटल के उद्घाटन के
पहले से ही इसके लक्षण नजर आने लगते हैं। शुरु से ही खौफ मंडराने लगता है।
विक्रम भट्ट आनी सीमाओं में डर और खौफ से संबंधित फिल्में बनाते रहे हैं।
उनमें से कुछ दर्शकों को पसंद आई हैं। इन दिनों विक्रम भट्ट इस जोनर में
कुछ नया करने की कोशिश में लगे हैं।
इसी
कोशिश का नतीजा है क्रीचर। विक्रम भट्ट ने देश में उपलब्ध तकनीक और प्रतिभा
के उपयोग से 3डी और वीएफएक्स के जरिए ब्रह्मराक्षस तैयार किया है।
उन्होंने इसके पहले भी अपनी फिल्मों में भारतीय मिथकों का इस्तेमाल किया
है। इस बार उन्होंने ब्रह्मराक्षस की अवधारणा से प्रेरणा ली है।
ब्रह्मराक्षस का उल्लेख गीता और अन्य ग्रंथों में मिलता है। हिंदी के
विख्यात कवि मुक्तिबोध ने तो ब्रह्मराक्षस पर कविता भी लिखी है। इन
उल्लेखों और चित्रणों से अलग विक्रम भट्ट ने दस फीट लंबे एक मायावी जीव को
वीएफएक्स से रचा है, जो मनुष्य और जानवर के मेल से बना अलग प्राणि है। वह
उसी जंगल में रहता है। जंगल में होटल चालू होने के बाद वह वहां के
कर्मचारियों और मेहमानों को अपना शिकार बनता है। ऐसा नहीं है कि वह आहना पर
लक्षित आक्रमण करता हो। चूंकि होटल आहना का है और सारे मेहमानों की
जिम्मेदारी उसके ऊपर है, इसलिए वह ब्रह्मराक्षस के मुकाबले में खड़ी होती
है। ऐसा लगता है कि दोनों आमने-सामने हों। फिल्म में यह सवाल नहीं है कि
होटल खुलने से ब्रह्मराक्षस के संसार में खलल पड़ता है और वह उत्तेजित होकर
आक्रमण करता है। कहानी का यह रोचक आयाम हो सकता था।
विक्रम
भट्ट की क्रीचर के सीधी कहानी में कोई पेंच नहीं है। पिता और प्रेमी के
ट्रैक पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। निर्देशक की मंशा जल्दी से
ब्रहाराक्षस के दानवी व्यक्तित्व और आतंक तक आने की है। विक्रम भट्ट और
उनकी टीम ने वीएफएक्स से खौफनाक जीव को प्रभावशाली सृजन किया है। कंप्यूटर
के माध्यम से उन्होंने ब्रह्मराक्षस की चाल-ढाल को को जीवंत किया है।
ब्रह्मराक्षस की चिंघाड़ और चाल से भय होता है। 3डी और संगीत के प्रभाव से
यह भय और उभरता है। अपनी तरह की पहली कोशिश में विक्रम भट्ट निराश नहीं
करते। निस्संदेह इससे बेहतर इफेक्ट की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन हमें
बजट और भारतीय माहौल को भी नजर में रखना होगा। इस लिहाज से विक्रम भट्ट की
तारीफ करनी चाहिए कि वे अपनी कोशिश में सफल रहे हैं। इस जोनर में हॉलीवुड
की फिल्में देख चुके दर्शकों को विक्रम का प्रयास मामूली लग सकता है, लेकिन
हम आम भारतीय दर्शकों के संदर्भ में सोचें तो यह प्रयास सराहनीय है।
फिल्म
में दूसरी कमियां अमर्निहित हैं। बिपाशा बसु अपनी कोशिशों के बावजूद आहना
के किरदार में असर नहीं ला पातीं। भिड़ंत के कुछ दृश्यों में वह अवश्य
अच्छी लगती हैं। उन्हें अच्छे सहयोगी कलाकार नहीं मिले हैं। एक दीपराज राणा
ही अपने किरदार में डूबे दिखते हैं। विक्रम भट्ट की अन्य फिल्मों में
गीत-संगीत का भी योगदान रहता है। इस बार उसकी कमी खलती है।
अवधि: 135 मिनट
Comments
आपकी केवल दो समीक्षाओं को पढ़ने के आधार पर मुझे लगता है आप अच्छे समीक्षक हैं। सरल लिखते हैं पढ़ने में आरम्भ से अंत तक रुचि बनी रहती है। आपको हिंदी उत्सव में पुरस्कार मिला। बधाई !!
ब्लॉग का नाम 'चवन्नी चैप' या 'चवन्नी छाप'?
@ 'अमर्निहित ' ???