फिल्म समीक्षा : दावत-ए-इश्क
-अजय ब्रह्मात्मज
मुमकिन है यह फिल्म देखने के बाद
स्वाद और खुश्बू की याद से ही आप बेचैन होकर किसी नॉनवेज रेस्तरां की तरफ
भागें और झट से कबाब व बिरयानी का ऑर्डर दे दें। यह फिल्म मनोरंजन थोड़ा
कम करती है, लेकिन पर्दे पर परोसे और खाए जा रहे व्यंजनों से भूख बढ़ा देती
है। अगर हबीब फैजल की'दावत-ए-इश्क में कुछ व्यंजनों का जिक्र भी करते तो
फिल्म और जायकेदार हो जाती। हिंदी में बनी यह पहली ऐसी फिल्म है,जिसमें
नॉनवेज व्यंजनों का खुलेआम उल्लेख होता है। इस लिहाज से यह फूड फिल्म कही
जा सकती है। मनोरंजन की इस दावत में इश्क का तडक़ा लगाया गया है। हैदराबाद
और लखनऊ की भाषा और परिवेश पर मेहनत की गई है। हैदराबादी लहजे पर ज्यादा
मेहनत की गई है। लखनवी अंदाज पर अधिक तवज्जो नहीं है। हैदराबाद और लखनऊ
के दर्शक बता सकेंगे उन्हें अपने शहर की तहजीब दिखती है या नहीं?
हबीब फैजल अपनी सोच और लेखन में जिंदगी की विसंगतियों और दुविधाओं के
फिल्मकार हैं। वे जब तक अपनी जमीन पर रहते हैं, खूब निखरे और खिले नजर आते
हैं। मुश्किल और अड़चन तब आती है, जब वे कमर्शियल दबाव में आकर हिंदी
फिल्मों की परिपाटी को ठूंसने की कोशिश करते हैं। 'दावत-ए-इश्क के कई
दृश्यों में वे 'सांप-छदूंदर की स्थिति में दिखाई पड़ती है। उनकी वजह से
फिल्म का अंतिम प्रभाव कमजोर होता है। इसी फिल्म में सच्चा प्यार पाने के
बावजूद गुलरेज का भागना और कशमकश के बाद फिर से लौटना नाहक ही फिल्म को
लंबा करता है। ऐसी संवेदनशील फिल्में संवेदना की फुहार के समय ही सिमट जाएं
तो अधिक मर्मस्पर्शी हो सकती हैं। बेवजह का विस्तार कबाब में हड्डी की तरह
जायके को बेमजा कर देता है।
परिणीति
चोपड़ा ने गुलरेज के गुस्से और गम को अच्छी तरह भींचा है। वह अपने किरदार
को उसके आत्मविश्वास के साथ जीती हैं। वह मारपीट के दृश्यों के अलावा हर
जगह अच्छी लगी हैं। खासकर बेटी और बाप के रिश्तों के सीन में उन्होंने
अनुपम खेर का पूरा साथ दिया है। अनुपम खेर भी लंबे समय के बाद अपने किरदार
की सीमा में रहे हैं। यह फिल्म बाप-बेटी के रिश्तों को बहुत खूबसूरती से
रेखांकित करती है। तारिक की वेशभूषा और भाषा तो आदित्य राय कपूर ने हबीब
फैजल के निर्देशन और सहायकों से ग्रहण कर ली है,लेकिन परफॉर्म करने में वे
फिसल गए हैं। उनमें लखनवी नजाकत और खूसूसियत नहीं आ पाई है। इस फिल्म में
वह कमजोर चयन हैं। परिणीति चोपड़ा के साथ के दृश्यों में भी वे पिछड़ गए
हैं। अपनी लंबाई को लेकर वह अतिरिक्त सचेत न रहें तो बेहतर। उन्हें इस
मामले में अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण से सीखना चाहिए।
फिल्म का
शीर्षक थीम के मुताबिक जायकेदार नहीं है। 'दावत-ए-इश्क को गाने में लाने
के लिए कौसर मुनीर को भी मेहनत करनी पड़ी है। फिल्म के गीत कथ्य के साथ
संगति नहीं बिठा पाते। कौसर मुनीर गीतों में अर्थ लाने के लिए सहजता और
स्वाभाविकता खो देती हैं। होली गीत में कैसे हैदराबाद की गुलरेज अचानक
लखनवी लब्जों का इस्तेमाल करने लगती है? तार्र्किकता तो गीतों की तरह अनेक
दृश्यों में भी नहीं है। ईमानदार पिता बेटी के बहकावे में आकर गत रास्ता
अख्तियार कर लेता है। समझदार बेटी भी शादी के दबाव में कैसे आ जाती है?
हबीब फैजल ने ऐसी चूक कैसे स्वीकार की?
यह फिल्म स्पष्ट शब्दों में दहेज का सवाल उठाती है और धारा 498ए का उल्लेख करती है। इसके लिए हबीब फैजल अवश्य धन्यवाद के पात्र हैं।
स्टार: ** 1/2 ढाई स्टार
अवधि-108 मिनट
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