(हुमा कुरेशी ने यह लेख इंडियन एक्सप्रेस के लिए शनिवार,26 जुलाई को लिखा थ। मुझे अच्छा और जरूरी लगा तो उनके जन्मदिन 28 जुलाई के तोहफे के रूप में मैंने इस का अनुवाद कर दिया।) मेरी हमेशा से तमन्ना थी कि अभिेनेत्री बनूंगी,लेकिन इसे स्वीकार करने के लिए हिम्मत की जरूरत पड़ी। खुद को समझाने के लिए भी।हां,मैं मध्यवर्गीय मुसलमान परिवर की लड़की थी,एक हद तक रुढि़वादी। पढ़ाई-लिखाई में हेड गर्ल टाइप। मैं पारंपरिक 'बॉलीवुड हीरोइन' मैटेरियल नहीं थी। औरत के रूप में जन्म लेने के अनेक नुकसान हैं...भले ही आप कहीं पैदा हो या जैसी भी परवरिश मिले। इंदिरा नूई,शेरल सैंडबर्ग और करोड़ों महिलाएं इस तथ्य से सहमत होंगी। निस्संदेह लड़की होने की वजह से हमरा पहला खिलौना बार्बी होती है। ग्लोबलसाइजेशन की यह विडंबना है कि हमारे खेलों का भी मानकीकरण हो गया है। पांच साल की उम्र में मिला वह खिलौना हमारे शारीरिक सौंदर्य और अपीयरेंस का आजीवन मानदंड बन जाता है।(मैं दक्षिण दिल्ली की लड़की के तौर पर यह कह रही हूं।) संक्षेप में परफेक्शन। परफेक्शन का पैमाना बन जाता है। ...