शक्तिपाद राजगुरू
-प्रकाश के रे
जीवन की
अर्थहीनता मनुष्य को उसका
अर्थ रचने के लिए विवश करती
है. यह अर्थ-रचना
लिखित हो सकती है, विचारों
के रूप में हो सकती है, इसे
फिल्म के रूप में भी अभिव्यक्त
किया जा सकता है. महान
फिल्मकार स्टेनली क्यूब्रिक
के इस कथन को हम किसी लिखित या
वाचिक अभिव्यक्ति को फिल्म
का रूप देने या किसी फिल्म को
कहने या लिखने की स्थिति में
रख दें, जो जीवन के
अर्थ रचने की प्रक्रिया जटिलतर
हो जाती है. शायद
ऐसी स्थितियों में ही देश और
काल से परे कृतियों का सृजन
होता होगा तथा ऐसी कृतियां
स्वयं में एक अलग जीवन रच देती
होंगी जिनके अर्थों की पुनर्चना
की आवश्यकता होती होगी या
जिनसे पूर्वरचित अर्थों को
नये माने मिलते होंगे. ॠत्विक
घटक की फिल्म मेघे ढाका तारा
(1960) एक ऐसी ही रचना
है. इस फिल्म की मूल
कथा शक्तिपाद राजगुरू ने लिखी
थी. इस महान
बांग्ला साहित्यकार का 12 जून को 92 वर्ष
की उम्र में निधन हो गया.
बंगाल के
एक गांव में 1922 में
जन्मे शक्तिपाद राजगुरू का
पहला उपन्यास कोलकता में पढ़ाई
करते हुए 1945 में
प्रकाशित हुआ. उन्होंने
अपने लंबे सृजनात्मक जीवन
में सौ से अधिक उपन्यासों की
रचना की. बांग्ला
के अन्यतम साहित्यकारों-
बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय
और ताराशंकर बंधोपाध्याय-
से प्रभावित राजगुरू
ने कोलकाता से दूरस्थ स्थानों
में अपने सामान्य चरित्रों
को स्थित कर गूढ़तम, लेकिन
अत्यंत मानवीय घटनाक्रमों
में पिरोया. उनकी
साहित्यिक रचनाओं की संख्या
और बांग्ला के पाठकों में उनकी
लोकप्रियता इस बात का स्वत:
प्रमाण हैं कि लगातार
लिखने के बावजूद उनकी कथाओं,
कथानकों और चरित्रों
में अनोखापन बरकरार रहा.
यही कारण है कि राजगुरू
की कई रचनाएं किताबी आशियाने
से निकल कर सिनेमा की भाषा और
भाव-भंगिमा में भी
रचीं और बसीं. अनुवाद
के जरिये तो उनके कुछ उपन्यास
ही दूसरी भाषाओं के पाठकों
तक पहुंच सके, लेकिन
फिल्मों के माध्यम से राजगुरू
के चरित्रों और उनका विशिष्ट
जीवन देश की अनेक भाषाओं में
अनुदित हुआ.
मेघे ढाका
तारा के अतिरिक्त शक्तिपाद
राजगुरू की कृतियों पर अमानुष
(शक्ति सामंत,
1975), जीबन कहिनी (राजेन
तरफदेर, 1964), बरसात
की एक रात (शक्ति
सामंत, 1981), तिल थेके
ताल (शांतिमय बनर्जी,
1985), गायक (शांतनु
भौमिक, 1987), अंतरंग
(दिनेन गुप्ता,
1988), आशा-ओ-भालोबाशा
(1989) आदि फिल्में
बनीं जो उनके उपन्यासों की
तरह ही दर्शकों द्वारा सराही
गयीं. उनके साहित्यिक
रचना-कर्म और
रचना-प्रक्रिया
के विविध पहलुओं की समीक्षा
तो साहित्य के सुधी आलोचक व
पाठकों का जिम्मा है, उसी
तरह उनके सिनेमाई लेखन और अपनी
रचनाओं को पटकथा में परिवर्तित
करने के तौर-तरीके
पर विस्तार से विश्लेषण किया
जाना चाहिए. साहित्य
और सिनेमा के अंतर्संबंधों
में साहित्यिक कृति का सिनेमाई
रूपांतरण हमेशा से विवादों
में रहा है. माना
जाता है कि सिनेमा कृति के
स्तर से हमेशा निम्न होता है
क्योंकि पटकथा के जरूरत के
मुताबिक मूल रचना के कई हिस्सों
को छोड़ देना पड़ता है और कभी-कभी
संदर्भों से अलग घटना-क्रम
या परिस्थितियों को समाहित
कर दिया जाता है. एक
बड़ी आलोचना यह भी होती है कि
फिल्मकार मूल पाठ के गहन अर्थों
को परदे पर उतार पाने में असफल
रहता है. सिनेमा की
दृश्यात्मकता भी कथा के
चरित्रों, वस्तुओं,
स्थलों और स्थितियों
को एक निश्चित ढांचे में समाहित
कर देती है जिससे कथा के अर्थों
को विस्तार ले सकने की सीमा
बंध जाती है.
बहरहाल,
इस विवाद के तर्क-प्रतितर्क
हैं, लेकिन,
शक्तिपाद राजगुरू के
संदर्भ में यह बहस काफी हद तक
बेमानी हो जाती है क्योंकि
रचनाकार अपनी कृतियों के
सिनेमाई अवतरण की प्रक्रिया
में स्वयं ही गहरे से जुड़ा हुआ
है और फिल्मकार के रूप में उसे
संवेदनशील और साहित्यानुरागी
लोग मिले.
इस बारे
में आगे बात करने के लिए हम
उनकी दो बहुचर्चित फिल्मों
को ले सकते हैं, जो
भारतीय सिनेमा के इतिहास में
अपने कथ्य और शिल्प की दृष्टि
से विशिष्ट स्थान रखती हैं.
घटक की मेघे ढाका तारा
और शक्ति सामंत की अमानुष
सिनेमाई व्याकरण की हद को बड़ा
विस्तार देती हैं और इसी कारण
उन्हें अप्रतिम क्लासिक
फिल्मों की श्रेणी में रखा
जाता है.
मेघे ढाका
तारा की पृष्ठभूमि भारत-विभाजन
की त्रासदी है, जिसमें
पूर्व पाकिस्तान (अब
बांग्लादेश) से आये
एक शरणार्थी परिवार के
अंतर्संबंधों और अंतर्द्वंद्वों
की कथा है. भारत-विभाजन
की हिंसा और अपनी जडों से उखड़ने
का दुख सबसे अधिक दोनों तरफ
के पंजाब और बंगाल ने भोगा था.
दुनिया के इतिहास में
इस स्तर पर कभी भी लोगों का
पलायन नहीं हुआ था और न ही कभी
लोगों में एक-दूसरे
के प्रति हिंसा और नफरत का ऐसा
विभत्स तांडव देखा या सुना
गया था. बंगाली
साहित्य और सिनेमा ने इस त्रासदी
के अलग-अलग पहलुओं
को बखूबी दर्ज किया है. मेघे
ढाका तारा इस त्रासदी की अनवरत
उपस्थिति का उल्लेखनीय दस्तावेज
है. फिल्म शरणार्थी
स्मृतियों और स्थगित भविष्य
से उतपन्न असाधारण विलगन को
रेखांकित करती है, जहां
परिवार के सदस्य भी मानवीय
आदर्शों और मूल्यों को विस्मृत
कर देते हैं. परंतु,
कला आशा का दामन नहीं
छोड़ती है. जीवन ठहर
जाता है, लेकिन गति
की आस नहीं छोड़ता है. इस
फिल्म में भी नैराश्य के अंधेरे
सुनसान में विश्वास के लौ
मौजूद हैं.
फिल्म
शक्तिपाद राजगुरू की कहानी
चेनामुख पर आधारित है जिसे
एक अखबार में ॠत्विक घटक ने
पढ़ा था. इस कहानी
की संवेदनशीलता से प्रभावित
होकर उन्होंने इसकी पटकथा
तैयार की और मेलोड्रामा की
अपनी पसंदीदा शैली में परदे
पर उतारा. फिल्म
में पाशर््व संगीत और हिंदू
पौराणिकता के अद्भूत संयोग
से राजगुरू की कहानी की त्रासदी
अपने चरम को प्राप्त करती है.
उल्लेखनीय है कि राजगुरू
के पहले उपन्यास दिनगुली मोर
का विषय-वस्तु
शरणार्थियों की दुर्दशा ही
थी. यह फिल्म निश्चित
रूप से ॠत्विक घटक की फिल्म
है, लेकिन इस कहानी
के पात्र और उनका जीवन राजगुरू
ने रचा है. फिल्म
की तैयारी में भी उनकी सक्रिय
भागीदारी रही थी. इस
लिहाज से यह उनकी उपलब्धि भी
है.
अमानुष
आजाद भारत की त्रासदी का बयान
है जहां शोषण और अत्याचार है
और इस परिस्थिति में एक साधारण
इंसान अपने अस्तित्व को भूल
आत्महंता की भूमिका निभाने
के लिए विवश हो जाता है. मेघे
ढाका तारा की त्रासदी दो देशों
के अनियंत्रित इतिहास की
पैदाइश है. अमानुष
की त्रासदी अपना इतिहास स्वयं
लिखने की जिद्द में बेसुध देश
की यंत्रणा है. सामाजिक-राजनीतिक
व्यवस्था एक भलेमानुष को
अमानुष तो बना देती है, लेकिन
उसके भीतर के मानुष को पूरी
तरह नहीं मार पाती और वह मानुष
अपने ही जैसे लोगों पर हो रहे
अनाचार के प्रतिरोध में बोल
उठता है. वह नहीं
चाहता कि उसकी तरह अन्य लोग
भी अमानुष होने का अभिशाप जीने
के लिए विवश हों.
साहित्य
के पाठ और सिनेमा के फ्रेम के
भीतर और बाहर को लेकर बड़ी-बड़ी
बहसें होती रही हैं. शक्तिपाद
राजगुरू के लेखन और उन पर बनी
फिल्मों के संदर्भ में भी ये
बहसें प्रासंगिक हो सकती
हैं, लेकिन इनका
पाठन और दर्शन हमें आत्म और
आत्म के बाहर बसे जीवन को समझने
में तो निश्चित ही सहायता करती
हैं.
Comments
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-06-2014) को "जिन्दगी तेरी फिजूलखर्ची" (चर्चा मंच 1652) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक