टाइमिंग का कमाल है कामेडी -रितेश देशमुख


-अजय ब्रह्मात्मज
    अभिनेता रितेश देशमुख मराठी फिल्मों के निर्माता भी हैं। इस साल उन्हें बतौर निर्माता राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है। हिंदी में बतौर अभिनेता उनकी दो फिल्में ‘एक विलेन’ और ‘हमशकल्स’ आ रही है। सृजन के स्तर पर उनका दो व्यक्तित्व नजर आता है। यहां उन्हें अपने व्यक्तित्व के दो पहलुओं पर बातें की हैं।
- निर्माता और अभिनेता के तौर पर आपका दो व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है? बतौर निर्माता आप मराठी में गंभीर और संवेदनशील फिल्में बना रहे हैं तो अभिनेता के तौर पर बेहिचक चालू किस्म की फिल्में भी कर रहे हैं। इन दोनों के बीच संतुलन और समझ बनाए रखना मुश्किल होता होगा?
0 बतौर निर्माता जब मैं ‘बालक पालक’, ‘येलो’ और ‘लेई भारी’ का निर्माण करता हूं तो उनके विषय मेरी पसंद के होते हैं। मैं तय करता हूं कि मुझे किस तरह की फिल्में बनानी है। वहां सारा फैसला मेरे हाथ में होता है। जब फिल्मों में अभिनय करता हूं तो वहां विषय पहले से तय रहते हैं। स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी होती है। उनमें जो रोल मुझे ऑफर किया जाता है उन्हीं में से कुछ मैं चुनता हूं। हां, अगर जैसी फिल्मों का मैं निर्माण करता हूं, वैसी ही फिल्में मुझे ऑफर हों तो जरूर करूंगा। निजी तौर पर मुझे वैसी फिल्में पसंद हैं। दर्शक जिन फिल्मों में मुझे देख रहे हैं वे फिल्में मुझे दी गई हैं। अभी मैं हिंदी फिल्में बनाने की स्थिति में नहीं हूं। कल को संभव हुआ तो हिंदी में भी ‘बालक पालक’ जैसी फिल्में बनाऊंगा।
- क्या मान लिया जाए कि आपका एक्टिंग करिअर आपकी पसंद से नहीं चल रहा है?
0 ना ना ़ ़ ़ मैं अपनी पसंद की ही फिल्में चुनता हूं। मुझे जो दस फिल्में मिलती हैं उनमें से ही एक चुनता हूं। वह एक मेरी पसंद होती है। समस्या यह है कि कोई एक फिल्म चल जाती है तो उसी तरह की फिल्में मिलने लगती है। ‘हमशकल्स’ के पहले मैंने जो चार कामेडी फिल्में की हैं वे सभी सिक्वल हैं। उनमें मुझे रहना ही था। कायदे से देखें तो मैंने कोई नई फिल्म की ही नहीं है। ‘हमशकल्स’ उस लिहाज से ‘तेरे नाल लव हो गया’, ‘एक विलेन’ और ‘हमशकल्स’ नई फिल्में हैं। ‘एक विलेन’ जैसी फिल्म आती है तो कुछ अलग करने का अहसास होता है। एक्सेल प्रोडक्शन के लिए करण अंशुमान के लिए ‘बैंगिस्तान’ करूंगा। यह आतंकवाद पर सटायर है।
- ‘एक विलेन’ में आप अलग रूप में नजर आ रहे हैं?
0 पिछले कुछ सालों से नया ट्रेंड आया है कि स्टार को उसकी इमेज से अलग रोल और फिल्म दो। कोशिश रहती है कि एक्टर नए अंदाज और रूप में दिखे। हम कलाकारों के लिए यह अच्छा समय है। गोविंदा जैसे अभिनेता भी डार्क रोल कर रहे हैं।
- आप स्वभाव से विनोदी हैं या फिल्में करते-करते ऐसा स्वभाव बन गया है?
0 यह क्रिकेट की तरह होता है। आप जितनी अधिक प्रैक्टिस करेंगे आपकी टाइमिंग उतनी अच्छी होती जाएगी। जन्मजात तो कुछ भी नहीं होता। हम सभी में प्रतिभा रहती है। अभ्यास और व्यवहार से हम निखरते हैं। सभी कलाकारों की टाइमिंग अलग-अलग होती है। ह्यूमर की बेसिक समझ रहती है। लतीफे का पंच मालूम होना चाहिए। अलग-अलग डायरेक्टर और एक्टर के साथ काम करने के बाद उनके साथ टाइमिंग मैच करनी होती है। मैं अच्छा ऑबजर्वर हूं। उनसे सीखने की कोशिश करता हूं। कामेडी, टाइमिंग और जोक्स। सही समय पर हो तो असरदार होता है।
- पुराने कलाकारों में आप किन्हें पसंद करते हैं?
0 किशोर कुमार, महमूद, कादर खान, संजीव कुमार और गोविंदा ... इन सभी की टाइमिंग अलग-अलग है। अप्रोच अलग है। महमूद साहब की एक्टिंग इन योर फेस होती थी। उनके सामने हीरो भी घबराते थे। किशोर दा की एनर्जी गजब की थी। वे कामेडी परफार्म करते थे। आपका ध्यान खींच लेते थे। उनके ठीक विपरीत संजीव कुमार थे। संपूर्ण अभिनेता। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं रहता था, लेकिन अपनी शैली से वे हंसा देते थे।
- क्या ह्यूमर और कामेडी का सांस्कृतिक और भाषायी आधार होता है?
0 बिल्कुल होता है। कोई भी सिचुएशन युनिवर्सल हो सकती है, लेकिन उसका ट्रीटमेंट, पंचलाइन और डायलॉग संस्कृति और भाषा विशेष से तय होगा। केले के छिलके पर फिसलकर किसी भी देश में लोग गिरें तो आप हंसेंगे। बस प्रतिक्रिया की भाषा अलग होगी। यह सिटकॉम हुआ।
- साहित्य में हास्य और विनोद का राजनीतिक दृष्टिकोण भी रहता है। क्या फिल्मों में ऐसा नहीं हो सकता?
0 हो सकता है। इस तरफ हमारे फिल्मकारों का अभी ध्यान नहीं गया है। राजनीतिक व्यंग्य बहुत ही प्रभावशाली हो सकता है। शायद हम लिख नहीं पा रहे हैं। अगर कुछ लिख भी रहे हैं तो उसके मुताबिक फिल्म नहीं बन पा रही है। ऐसी छोटी-मोटी सफल कोशिशें चल रही हैं। उन्हें दर्शक पसंद भी कर रहे हैं। मेरी फिल्म ‘बैंगिस्तान’ धर्म और आतंकवाद पर सटायर है।

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