फिल्म समीक्षा : सिटीलाइट्स
दुख मांजता है
-अजय ब्रह्मात्मज
माइग्रेशन
(प्रव्रजन) इस देश की बड़ी समस्या है। सम्यक विकास न होने से आजीविका की
तलाश में गावों, कस्बों और शहरों से रोजाना लाखों नागरिक अपेक्षाकृत बड़े
शहरों का रुख करते हैं। अपने सपनों को लिए वहां की जिंदगी में मर-खप जाते
हैं। हिंदी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' से लेकर 'गमन' तक हम ऐसे किरदारों
को देखते-सुनते रहे हैं। महानगरों का कड़वा सत्य है कि यहां मंजिलें हमेशा
आंखों से ओझल हो जाती हैं। संघर्ष असमाप्त रहता है।
हंसल मेहता की 'सिटीलाइट्स' में कर्ज से लदा दीपक राजस्थान के एक कस्बे
से पत्नी राखी और बेटी माही के साथ मुंबई आता है। मुंबई से एक दोस्त ने उसे
भरोसा दिया है। मुंबई आने पर दोस्त नदारद मिलता है। पहले ही दिन स्थानीय
लोग उसे ठगते हैं। विवश और बेसहारा दीपक को हमदर्द भी मिलते हैं। यकीनन
महानगर के कोनों-अंतरों में भी दिल धड़कते हैं। दीपक को नौकरी मिल जाती है।
एक दोस्त के बहकावे में आकर दीपक साजिश का हिस्सा बनता है, लेकिन क्या यह
साजिश उसके सपनों को साकार कर सकेगी? क्या वह अपने परिवार के साथ सुरक्षित
जिंदगी जी पाएगा? फिल्म देखते समय ऐसे कई प्रश्न उभरते हैं, जिनके उत्तर
हंसल मेहता मूल फिल्म 'मैट्रो मनीला' और लेखक रितेश शाह की कल्पना के
सहारे खोजते हैं।
'सिटीलाइट्स'
उदास फिल्म है। पूरी फिल्म में अवसाद पसरा रहता है। सुकून की जिंदगी जी
रहे एक रिटायर्ड फौजी की पारिवारिक जिंदगी में आए आर्थिक भूचाल से सब
तहस-नहस हो जाता है। हंसल मेहता दीपक के संघर्ष और दुख को नाटकीय तरीके से
नहीं उभारते। उनके पास राजकुमार राव और पत्रलेखा जैसे सक्षम कलाकार हैं, जो
अपनी अंतरंगता में भी अवसाद जाहिर करते हैं। हिंदी फिल्मों में प्रणय
दृश्य की यह खूबसूरती और गर्माहट दुर्लभ है। वास्तविक स्टार जोडिय़ां भी यह
प्रभाव नहीं पैदा कर सकी हैं। निश्चित ही हंसल मेहता की सूझ-बूझ और
राजकुमार राव एवं पत्रलेखा के समर्पण और सहयोग से यह संभव हुआ है। फिल्म के
अनेक दृश्यों में दोनों कलाकारों की परस्पर समझदारी और संयुक्त भागीदारी
दिखती है। ऐसे दृश्य हिंदी फिल्मों में सोचे नहीं जाते।
अभिनय के
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित राजकुमार राव ने दीपक की विवशता और लाचारी
को बड़ी सहजता से प्रकट किया है। उन्हें संवादों का समुचित सहारा नहीं
मिला है। वह कैमरे के सामने मनोभाव को अनावृत करने से नहीं हिचकते। उनका
मौन मुखर होता है। खामोशी की खूबसूरती भावों को अभिव्यक्त कर देती है। लंबे
अर्से के बाद हिंदी फिल्मों को ऐसा उम्दा कलाकार मिला है। हंसल मेहता ने
उनकी प्रतिभा का सदुपयोग किया है। पत्रलेखा की यह पहली फिल्म है। राखी के
समर्पण और द्वंद्व को वह आसानी से आत्मसात कर लेती हैं। उनकी भावमुद्राओं
और भाषा की पकड़ से किरदार विश्वसनीय लगता है। दीपक के दोस्त की भूमिका में
आए मानव कौल ने अपेक्षित जिम्मेदारी निभाई है। यह फिल्म शहरी रिश्तों के
नए आयाम और अर्थ भी खोलती है।
फिल्म का
गीत-संगीत प्रभावशाली है। फिल्म की थीम को रेखांकित करने के साथ वह
दर्शकों को दृश्यों में दर्शकों को डुबोता है। रश्मि सिंह की गीतों के अर्थ
व्यक्ति, शहर, संघर्ष और सपने के साथ वर्तमान का सच भी जाहिर करते हैं।
'सिटीलाइट्स' महानगरों की चकाचौंध और छलकती खुशी के पीछे के अंधेरे में
लिपटी व्यथा को आज का संदर्भ देती है। फिल्म का क्लाइमेक्स थोड़ा नाटकीय और
रोमांचक हो गया है, लेकिन अंत फिर से चौंकाता है। इस फिल्म की एक और
विशेषता है कि इसे आप देख कर ही महसूस कर सकते हैं।
इस फिल्म के कई दृश्य अभिनय का पाठ बन सकते हैं।
और हां, चालू और उत्तेजक फिल्मों के लिए महेश भट्ट से नाराज प्रशंसकों यह फिल्म सुकून देगी कि वे पुरानी राह पर लौटे हैं।
अवधि-126 मिनट
**** चार स्टार
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