फिल्म समीक्षा : कोयलांचल
-अजय ब्रह्मात्मज
आशु त्रिखा की फिल्म 'कोयलांचल' कुख्यात कोल माफिया की जमीन को टटोलती
हुई एक ऐसे किरदार की कहानी कहती है, जिसकी क्रूरता एक शिशु की मासूम
प्रतिक्रियाओं से बदल जाती है। आशु त्रिखा ने मूल कहानी तक पहुंचने के पहले
परिवेश चित्रित करने में ज्यादा वक्त लगा दिया है। नाम और इंटरवल के पहले
के विस्तृत निरूपण से लग सकता है कि यह फिल्म कोल माफिया के तौर-तरीकों पर
केंद्रित होगी। आरंभिक विस्तार से यह गलतफहमी पैदा होती है।
'कोयलांचल' में व्याप्त हिंसा और गैरकानूनी हरकतों को आशु त्रिखा ने
बहुत अच्छी तरह चित्रित किया है। मालिक (विनोद खन्ना) के अमर्यादित और अवैध
व्यवहार की मुख्य शक्ति एक व्यक्ति करुआ है। मालिक के इशारे पर मौत को
धत्ता देकर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार करुआ स्वभाव से हिंसक है।
संयोगवश एक शिशु के संपर्क में आने पर उसकी क्रूरता कम होती है। वह
संवेदनाओं से परिचित होता है। वह पश्चाताप करता है और अपने व्यवहार में
बदलाव लाता है।
इस फिल्म में हिंसा जघन्यतम रूप में दिखती है। आशु त्रिखा का उद्देश्य
अपने मुख्य किरदार को पेश करने के लिए उचित परिवेश के सृजन का रहा है। इस
प्रक्रिया में निर्देशक बार-बार दृश्यों और किरदारों के प्रेम में फंसते
दिखाई देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रेम में वे कई बारी अतिवादी
अप्रोच अपनाते हैं। मूल उद्देश्य से भी भटकते हैं। 'कोयलांचल' वास्तव में
परिवेश से अधिक उन किरदारों की कहानी है, जिन्होंने भावनाओं का दूसरा पक्ष
देखा ही नहीं है। इन कोमल पक्षों के साक्षात्कार के बाद उनमें भी तब्दीली
आती है।
फिल्म के संवाद उत्तेजक हैं। 'कोयलांचल' की स्थिति और भयावहता को संजय
मासूम ने सटीक शब्दों में व्यक्त किया है। फिल्म चुस्त और सुगठित होती तो
अधिक प्रभावशाली होती। कलाकारों में नवोदित अभिनेता विपिन्नो का कार्य
सराहनीय है। विनोद खन्ना और सुनील शेट्टी को अपने किरदारों के लिए अधिक
मेहनत करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। आशु त्रिखा की एक उलझन यह भी रही है कि
वे एक साथ गई मुद्दों को टच करते हैं, लेकिन उन्हें पर्याप्त गहराई से नहीं
छू पाते, इसलिए उनकी अप्रोच और कोशिश में अधूरेपन की झलक है।
अवधि: 140 मिनट
**1/2 ढाई स्टार
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