फिल्म समीक्षा : मस्तराम
[अजय ब्रह्मात्मज]
अश्लील और कामुक साहित्य के लेखक के रूप में
किंवदंती बन चुके मस्तराम को पहचानने और पूरी विडंबना के साथ उसे पेश करने
की कोशिश है 'मस्तराम'। लेखक-निर्देशक अखिलेश जायसवाल ने इस फिल्म के जरिए
भारतीय समाज में व्याप्त ढोंग को भी जाहिर किया है।
भारतीय समाज में सेक्स अभी तक वर्जित विषय है। हम इस विषय पर किसी भी
किस्म की चर्चा से परहेज करते हैं, जबकि समाज में निचले स्तर पर यह गुप्त
रूप से लोकप्रिय मुद्दा है। देश का नियम-कानून समाज में अश्लील साहित्य की
खरीद-बिक्री की अनुमति नहीं देता, लेकिन मस्तराम जैसे लेखकों की मांग और
लोकप्रियता बताती है कि ऐसे साहित्य और सामग्रियों की जरूरत बनी रहती है।
फिल्म का नायक राजाराम का छिपा रूप है मस्तराम। वह सामाजिक दबाव में
खुल कर सामने नहीं आता। प्रकाशकों के दबाव में आकर वह मसालेदार लेखन से
पैसे तो कमा लेता है, लेकिन वह अपना नाम नहीं जाहिर कर सकता। 'मन की
विलोचना' नाम से लिखे उसके गंभीर उपन्यास के पाठक नहीं हैं। दरअसल
'मस्तराम' भारतीय समाज में प्रचलित पाखंड को उजागर करती है।
लेखक-निर्देशक ने विषय के चित्रण और प्रस्तुति अश्लील होने के खतरे से
बचने की कोशिश में बचाव की मुद्रा अपना ली है। इस वजह से 'मस्तराम' ढोंग और
पाखंड को सही संदर्भ नहीं दे पाती। फिर भी अखिलेश जायसवाल के क्रिएटिव
साहस की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक फिल्म के माध्यम से 'मस्तराम' के
महत्व को रेखांकित किया है।
अवधि - 98 मिनट
**1/2 ढाई स्टार
**1/2 ढाई स्टार
Comments