फिल्म समीक्षा : कुक्कू माथुर की झंड हो गई
-अजय ब्रह्मात्मज
कहीं की ईंट,कहीं का रोड़ा
जिगरी दोस्त पारिवारिक अपेक्षाओं और निजी आकांक्षाओं की वजह से अपनी-अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाते हैं। अपनी जिंदगी में सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं हो सका कुक्कू अपने दोस्त रोनी से छल करता है। इस कार्य में प्रभाकर उसकी मदद करता है। प्रभाकर आज के समय का ऐसा मददगार व्यक्ति है, जो जुगाड़ और प्रपंच के शॉर्टकट से सब कुछ हासिल करवा सकता है। इस शॉर्टकट के बुरे परिणाम भी सामने आते हैं। इस सफर में आखिरकार कुक्कू की आत्मा जागती है। वह अपने कुकर्मों को सुधारता है और फिर ़ ़ ़
अमन सचदेवा की फिल्म ‘कुक्कू माथुर की झंड हो गई’ की अवधारणा बहुत अच्छी है, मगर लेखक-निर्देशक इस अवधारणा को कागज पर उतारने में असफल हो गए हैं। हालांकि उन्होंने ऐसी फिल्मों के लिए आवश्यक सभी उपादान जोड़े हैं। सारी तिकड़में शामिल की हैं। शायद इसी ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा’ की वजह से फिल्म अपनी बात नहीं कह पाती। कलाकारों में केवल प्रभाकर की भूमिका निभा रहे अमित स्याल ही संतुष्ट करते हैं। बाकी सभी कलाकारों का परफारमेंस बुरा है।
इस फिल्म के निर्माताओं में बिजॉय नांबियार का भी नाम है। अगर वे ऐसी ही फिल्में चुनते और करते रहेंगे तो उनकी बनी साख गिरेगी। इस साल की बुरी फिल्मों में से एक है ‘कुक्कू माथुर की झंड हो गई’।
अवधि - 109 मिनट
* एक स्टार
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