फिल्म समीक्षा : हीरोपंथी / हिरोपंती
सिर्फ और सिर्फ टाइगर श्रॉफ
-अजय ब्रह्मात्मज
जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर श्रॉफ को केंद्र में रख कर बनी निर्माता
साजिद नाडियाडवाला की साबिर खान निर्देशित 'हीरोपंती' का एक ही मकसद है
सिर्फ और सिर्फ टाइगर श्रॉफ की खूबियों को दिखाना। इन दिनों हिंदी फिल्मों
में हीरो के परफॉर्मेस को जांचने-परखने का तरीका एक्शन और डांस रह गया है।
ड्रामा और इमोशन के दृश्य उन्हें कम से कम दिए जाते हैं। 'हीरोपंती' में
टाइगर श्रॉफ अपनी मचलती मांसपेशियों और चुस्त देहयष्टि के साथ मौजूद हैं।
डांस सिक्वेंस में भी उनकी चपलता आकर्षित करती है। कमी है तो सिर्फ एक्टिंग
में, संवाद अदायगी में स्पष्टता नहीं है और हर इमोशन में चेहरे का भाव एक
सा ही बना रहता है। बतौर अभिनेता टाइगर को अभी काफी मेहनत करनी होगी।
'हीरोपंती' अंतर्निहित कमियों और खूबियों के साथ एंटरटेन करती है,
क्योंकि लंबे समय के बाद पर्दे पर दिख रहे हीरो के स्टंट में विश्वसनीयता
है। एक्शन के सभी दृश्यों में टाइगर श्रॉफ के आत्मविश्वास और दक्षता की झलक
है। एक्शन डायरेक्टर ने इन दृश्यों को हैरतअंगेज नहीं रखा है। इसी प्रकार
गानों के फिल्मांकन में टाइगर श्रॉफ के नृत्य कौशल का सही उपयोग किया गया
है। डांस में वे रितिक रोशन की तरह सिद्ध हैं। एक्टिंग के मामले में एक
प्रकाश राज के अलावा टाइगर श्रॉफ के इर्द-गिर्द कोई अनुभवी कलाकार नहीं है,
इसलिए ज्यादा ध्यान नहीं जाता।
इस फिल्म की बड़ी कमी लेखन है। हरियाणा और दिल्ली के आसपास के जाट बहुत
इलाके की पृष्ठभूमि में एक ऐसे चौधरी परिवार की कहानी चुनी गई है, जहां
प्रेम स्त्रियों के लिए ही नहीं पुरुषों के लिए भी वर्जित है। ऐसे माहौल
में शादी के मंडप से चौधरी की बड़ी बेटी अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है।
चौधरी बेटी की तलाश में बेटी के प्रेमी के दोस्तों को बंदी बना लेता है।
उनमें से एक बबलू भी है। जब लोग उससे कहते हैं कि वह हीरोपंती क्यों करता
है तो उसका जवाब होता है-'सब को आती नहीं, मेरी जाती नहीं।' पूरी फिल्म में
यह संवाद बार-बार दोहराया जाता है। अगर फिल्म के नायक के किरदार और उसके
मिजाज एवं रवैए को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि हीरोपंती का मतलब निर्भीक
और संतुलित व्यवहार है। फिल्म का नायक किसी प्रकार की उच्छृंखलता नहीं
दिखाता। वह प्रेमिका के पिता से हमदर्दी रखता है।
फिल्म बाप-बेटी के संबंध और बेटी के भाग जाने से अपमानित हुए पिता की
व्यथा और दर्द को भी व्यक्त करती है। विस्तार से रखे गए इस भाव के दृश्य
हास्यास्पद भी हो गए हैं। प्रकाश राज अपनी प्रतिभा से इन दृश्यों को
संभालने में असफल रहते हैं। फिल्म की नायिका कृति सैनन सुंदर और आकर्षक है,
लेकिन अभिनय के मामले में वह संतुष्ट नहीं करतीं। छोटी भूमिकाओं में आए
कलाकार सीमित दृश्यों में भी अपनी छाप छोड़ जाते हैं।
फिल्म में भाषा के प्रति लापरवाही है। जाट बहुत इलाके के प्रचलित
शब्दों के बजाए हिंदी फिल्मों के प्रचलित शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल
किया गया है। प्रकाश राज 'ढूंढा' को 'धूंधा' बोलते है। चौधरी की बड़ी बेटी
के प्रेमी का नाम कभी राकेश तो कभी राजेश हो जाता है। इनके साथ फिल्म के
टायटल के हिंदी उच्चारण और वर्तनी पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। यह
'हीरोपंती' के बजाय 'हीरोपंथी' होना चाहिए था। अफसोस की अंग्रेजी का दोष
हिंदी में भी लिप्यतंरित हो रहा है।
अवधि: 146 मिनट
**1/2
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