फिल्म समीक्षा : ये है बकरापुर
बकरे के बहाने व्यंग्य
ये है बकरापुर
एक बकरे के बहाने भारतीय समाज की कहानी कहती ‘ये है बकरापुर’ छोटी और सारगर्भित फिल्म है। कुरैशी परिवार की आखिरी उम्मीद है यह बकरा, जिसे शाहरुख नाम दिया गया है। वह बकरा परिवार के बच्चे जुल्फी का दोस्त है। जब उसे बेचने की बात आती है तो जुल्फी दुखी हो जाता है। ऐसे वक्त में जाफर की एक युक्ति काम आती है। इस से बकरा परिवार में रहने के साथ ही आमदनी का जरिया भी बन जाता है। बकरे से हो रही आमदनी को देख कर गांव के दूसरे समुदाय के लोग भी हक जमाने आ जाते हैं। और फिर सामने आता है सामाजिक अंतर्विरोध।
‘ये है बकरापुर’ व्यंग्यात्मक तरीके से हमारे समाज की विसंगति को जाहिर करती है। बकरे के नाम पर धर्म, राजनीति और स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं। जानकी विश्वनाथन ने इस छोटी फिल्म में किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती हैं। शायद यह उनका उद्देश्य भी नहीं है। फिल्म केवल अंतर्विरोधों को प्रकट कर देती है। निर्देशक ने अपना पक्ष भी नहीं रखा है।
अच्छी बात है कि ऐसे विषयों पर फिल्मों की कल्पना की जा रही है। निर्देशक का आत्मविश्वास कथ्य के चयन में नजर आता है। कथ्य के अनुरूप शिल्प चुनने में थोड़ी कमी रह गई है। फिल्म का अंतिम प्रभाव उद्देश्य के मुताबिक उत्तेजक नहीं है। अपेक्षाकृत नए कलाकारों ने बेहतर काम किया है। अंशुमन झा और सुरुचि औलख ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। कुछ कलाकारों के अभिनय में थिएटर का असर दिखता है।
अवधि - 98 मिनट
** १/२ ढाई स्टार
ये है बकरापुर
एक बकरे के बहाने भारतीय समाज की कहानी कहती ‘ये है बकरापुर’ छोटी और सारगर्भित फिल्म है। कुरैशी परिवार की आखिरी उम्मीद है यह बकरा, जिसे शाहरुख नाम दिया गया है। वह बकरा परिवार के बच्चे जुल्फी का दोस्त है। जब उसे बेचने की बात आती है तो जुल्फी दुखी हो जाता है। ऐसे वक्त में जाफर की एक युक्ति काम आती है। इस से बकरा परिवार में रहने के साथ ही आमदनी का जरिया भी बन जाता है। बकरे से हो रही आमदनी को देख कर गांव के दूसरे समुदाय के लोग भी हक जमाने आ जाते हैं। और फिर सामने आता है सामाजिक अंतर्विरोध।
‘ये है बकरापुर’ व्यंग्यात्मक तरीके से हमारे समाज की विसंगति को जाहिर करती है। बकरे के नाम पर धर्म, राजनीति और स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं। जानकी विश्वनाथन ने इस छोटी फिल्म में किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचती हैं। शायद यह उनका उद्देश्य भी नहीं है। फिल्म केवल अंतर्विरोधों को प्रकट कर देती है। निर्देशक ने अपना पक्ष भी नहीं रखा है।
अच्छी बात है कि ऐसे विषयों पर फिल्मों की कल्पना की जा रही है। निर्देशक का आत्मविश्वास कथ्य के चयन में नजर आता है। कथ्य के अनुरूप शिल्प चुनने में थोड़ी कमी रह गई है। फिल्म का अंतिम प्रभाव उद्देश्य के मुताबिक उत्तेजक नहीं है। अपेक्षाकृत नए कलाकारों ने बेहतर काम किया है। अंशुमन झा और सुरुचि औलख ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। कुछ कलाकारों के अभिनय में थिएटर का असर दिखता है।
अवधि - 98 मिनट
** १/२ ढाई स्टार
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