फिल्म समीक्षा : देख तमाशा देख
-अजय ब्रह्मात्मज
फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'देख तमाशा देख' वर्तमान समय और समाज की विसंगतियों और पूर्वाग्रहों में पिसते आम जन की कहानी है। हालांकि ऐसी कहानियां हम दशकों से देखते आ रहे हैं, लेकिन उनकी प्रासंगिकता आज भी नहीं खत्म हुई है। फिरोज अब्बास खान ने हिंदू-मुसलमान के बीच जारी विद्वेष को नए संदर्भ में पेश किया है। समाज के स्वार्थी पैरोकार दोनों धार्मिक समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का कोई मौका नहीं चूकते।
कहानी एक साधारण व्यक्ति की है। उसका नाम किशन है। एक मुसलमान औरत से शादी करने के लिए वह मजहब के साथ नाम भी बदल लेता है। अब उसका नाम हमीद है। शहर के व्यापारी के विशाल कटआउट के भहरा कर गिरने से उसकी आकस्मिक मौत हो जाती है। वह कट
आउट के नीचे आ जाता है। इस प्रसंग तक आने में फिरोज अब्बास खान ने चुटीला अंदाज अपनाया है। फिल्म के संवादों की तीक्ष्णता भेदती है। बहरहाल, किशन उर्फ हमीद के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद होता है। हिंदू अपने किशन का दाह संस्कार करना चाहते हैं तो मुसलमान हमीद को दफन करना चाहते हैं। एक ही व्यक्ति की दो पहचानों का मामला कोर्ट तक चला जाता है। कोर्ट के फैसले तक और घटनाएं घटती हैं। हम समाज के सफेदपोश नुमाइंदो की शक्ल से नकाब उतरते देखते हैं।
फिरोज अब्बास खान की 'देख तमाशा देख' एक सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य है। दृश्यों और संवादों से उन्होंने सामयिक कटाक्ष किया है। फिल्म की प्रस्तुति सरल है और अधिकांश कलाकार अपरिचित हैं। फिल्म धार्मिकता की आड़ में चल रहे विद्वेष के साथ विभिन्न स्तरों पर घट रहे सामाजिक क्लेश को भी छूती है। राजनीति, मीडिया और धर्म के विरोधाभासों को उजागर करती है। फिल्म के चित्रण में फिरोज अब्बास खान की सादगी उल्लेखनीय है। उन्होंने किसी प्रकार के फिल्मी करतब का उपयोग नहीं किया है।
अवधि-108 मिनट
*** तीन स्टार
फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'देख तमाशा देख' वर्तमान समय और समाज की विसंगतियों और पूर्वाग्रहों में पिसते आम जन की कहानी है। हालांकि ऐसी कहानियां हम दशकों से देखते आ रहे हैं, लेकिन उनकी प्रासंगिकता आज भी नहीं खत्म हुई है। फिरोज अब्बास खान ने हिंदू-मुसलमान के बीच जारी विद्वेष को नए संदर्भ में पेश किया है। समाज के स्वार्थी पैरोकार दोनों धार्मिक समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने का कोई मौका नहीं चूकते।
कहानी एक साधारण व्यक्ति की है। उसका नाम किशन है। एक मुसलमान औरत से शादी करने के लिए वह मजहब के साथ नाम भी बदल लेता है। अब उसका नाम हमीद है। शहर के व्यापारी के विशाल कटआउट के भहरा कर गिरने से उसकी आकस्मिक मौत हो जाती है। वह कट
आउट के नीचे आ जाता है। इस प्रसंग तक आने में फिरोज अब्बास खान ने चुटीला अंदाज अपनाया है। फिल्म के संवादों की तीक्ष्णता भेदती है। बहरहाल, किशन उर्फ हमीद के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद होता है। हिंदू अपने किशन का दाह संस्कार करना चाहते हैं तो मुसलमान हमीद को दफन करना चाहते हैं। एक ही व्यक्ति की दो पहचानों का मामला कोर्ट तक चला जाता है। कोर्ट के फैसले तक और घटनाएं घटती हैं। हम समाज के सफेदपोश नुमाइंदो की शक्ल से नकाब उतरते देखते हैं।
फिरोज अब्बास खान की 'देख तमाशा देख' एक सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य है। दृश्यों और संवादों से उन्होंने सामयिक कटाक्ष किया है। फिल्म की प्रस्तुति सरल है और अधिकांश कलाकार अपरिचित हैं। फिल्म धार्मिकता की आड़ में चल रहे विद्वेष के साथ विभिन्न स्तरों पर घट रहे सामाजिक क्लेश को भी छूती है। राजनीति, मीडिया और धर्म के विरोधाभासों को उजागर करती है। फिल्म के चित्रण में फिरोज अब्बास खान की सादगी उल्लेखनीय है। उन्होंने किसी प्रकार के फिल्मी करतब का उपयोग नहीं किया है।
अवधि-108 मिनट
*** तीन स्टार
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