इरशाद कामिल : विभाग के बदले बॉलीवुड जाने का मतलब

चवन्‍न्‍ाी के पाठकों के लिए विनीत कुमार का विशेष आलेख। इसे रचना सिंह के संपादन में निकली दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की हस्‍तलिखित पत्रिका हस्‍ताक्षर से लिया गया है।                                          

-विनीत कुमार 
ये, येsss  हो तुम, जिसकी लिखी चीजें छापने से संपादक मना कर दिया करते हैं. असल में तुम यही हो,वह इरशाद कामिल नहीं जिसकी तारीफ लोग करते हैं.  मेरी पत्नी, पत्रिकाओं से अस्वीकृत रचनाएं खासकर पहल और उस पर ज्ञानरंजन की चिठ्ठियां दिखाते हुए अक्सर कहती है. ऐसा करके खास हो जाने के गुरुर में जीने से रोकती है. वो तो फिल्मफेयर और रेडियो मिर्ची से मिले अवार्ड से कहीं ज्यादा इन अस्वीकृत रचनाओं और न छापने के पीछे की वजह से लिखी ज्ञानरंजन और दूसरे संपादकों के खत ज्यादा संभालकर रखती है. उनका बस चले तो ड्राइंगरुम में अवार्ड की जगह इन्हें ही सजाकर रक्खे ताकि दुनिया जान सके कि असल में इरशाद कामिल है क्या और उसकी हैसियत क्या है ? 
तब इरशाद के गिलास का रंग बदला नहीं था. हम गिलास के आर-पार सबकुछ साफ देख पा रहे थे और साथ ही उन्हें भी. उत्साह और मुस्कराहट के साथ एक के बाद एक घटनाओं की चर्चा करते इरशाद. तो यही हैं इरशाद कामिल..मन सात संमदर डोल गया( चमेली 2004), आंखो जो मेरी आंखो में है ( सोचा न था 2005), सड्डा हथ, एत्थे रख( रॉकस्टार 2011), आओगे जब तुम ओ साजना, अंगना फूल खिलेंगे (जब बी मेट 2007), हुआ चारो ओर शहनाई शोर, जो मेरी ओर तू निकला( रांझणा, 2013) के गीतकार.  लेकिन ये हमसे अपने गीतों पर बात न करके खालिस उस साहित्यिक दुनिया की बात क्यों कर रहे हैं जो इरशाद क्या किसी भी ऐसे शख्स के लिए एक समय के बाद वो छूटी हुई गली हो जाती है जो उसमे या तो नास्टॉल्जिया ढूंढता है या फिर कोई गहरी कसक जिससे छिटककर  टीवी और सिनेमा के पर्दे के व्याकरण( जाहिर है, शब्दों और बैलेंस शीट दोनों के संतुलन) में उलझकर, फंसकर रह जाता है. आखिर हमने भी तो अपने आसपास दर्जनों ऐसे दोस्त देखे हैं जिनके हाथों में एमए, एम.फिल् के दिनों में अंधेरे में या सूखा बरगद की प्रति हुआ करती थी और जो वर्चुअल स्पेस की दुनिया से बिल्कुल दूर थे, हम जैसों के दवाब और उपहास में कभी आ भी जाते तो वहां भी नामवर सिंह और रामविलास शर्मा पर लेख खोजने लग जाते और न मिलने पर झल्लाकर छोड़ देते- ये तुम्हारे इन्टरनेट की दुनिया बिना इनलोगों के डब्बा है, मुबारक हो तुम्हें ही ये कीबोर्ड की किचिर-पिचिर और फिर से उसी हार्डकॉपी की साहित्यिक दुनिया में लौट जाते.
 लेकिन अब मिलिए तो जरा इन दोस्तों से..हर बीस मिनट में उंगलियां स्मार्टफोन की टच स्क्रीन पर होती है और दो घंटे के लिए भी मनकंट्रोल डॉट कॉम नहीं देखा तो असहज हो जाने लगते हैं. हर बात के पीछे फेसबुकिए गॉशिप घुस आते हैं या फिर घुमा-फिराकर उसी न्यूजरुम की डायलॉग मार देते हैं- अच्छा लेखन वही है, जो चैनल की बैलेंस शीट मजबूत करे.

इस माहौल से अभ्यस्त बहसतलब 2013 के लिए मुंबई से आए इरशाद कामिल से महिपालपुर( गुडगांव) के होटल में जब हमारी पहली और अब तक की आखिरी मुलाकात हुई तो लगा कि इस शख्स के लिए भी साहित्य और कविताओं पर बात करना टेस्ट चेंजर या सिनेमा इन्ड्स्ट्री की उठापटक के बीच कॉमिक रिलीफ से ज्यादा कुछ भी नहीं है और इस बात से इसलिए भी आश्वस्त हुआ जा सकता था कि हमने बातचीत के दौरान ये जाहिर कर दिया था कि हम जितने लोग आपसे घिर हैं, ज्यादातर हिन्दी साहित्य से ही एमए हैं. मिहिर,सुमन, खुद मैं और अविनाश( मोहल्लालाइव) जैसे लोग साहित्य के डिग्रीधारी न होते हुए भी समझ और अभिव्यक्ति में जिस तरह हम जैसों को लजाते और ललकारते आए हैं, इरशाद को हुलकाने( उत्साहित करने) के लिए हमसे ज्यादा जरुरी थे. इधर सिनेमा अध्ययन में लगे प्रकाश के रे की बातचीत के बीच में से अचानक खासकर साहित्य और राजनीति के लेकर मुद्दों को हथिया लेने की कलाकारी कब असरदार नहीं हुआ करती है और आचार्यत्व के अंदाज में खोद-खोदकर पूछने की रंगनाथ सिंह का अंदाज के बीच इरशाद अपने स्वाभाविक आदिम उत्साह और साहित्यिक परिचर्चा से अपने को रोक नहीं पा रहे थे. इससे पहले मैंने कभी किसी ऐसे शख्स को साहित्य पर इतनी तल्लीनता से बात करते हुए नहीं सुना था जो दिन-रात उस व्यावसायिक सिनेमा के बीच जीता हो, उनकी शर्तों के बीच से विचारों और शब्दों की आवाजाही करने की कोशिश करता हो जो कामर्स से बुरी तरह डरे हुए हैं और उनका वो डर गीतकार, पटकथा लेखक की शैली और अंदाज बदलने पर आमादा रहता हो. हां, पटकथा लेखक संजय चौहान( पान सिंह तोमर) की पूरी बातचीत में जरुर एक प्रोफेसर का इत्मिनान और गंभीरता है. तब मुझे बिल्कुल पता नहीं था कि इरशाद के साथ वो कौन सा असर काम कर रहा था कि बीच-बीच में घड़ी देखने , नीचे मेरे एक दोस्त इंतजार कर रहे हैं, मैं सुबह के लिए लेट हो जाउंगा के बीच भी एक के बाद एक कविता, गजल पहले के लिखे वो हिस्से सुनाते रहे जिसके बारे में उन्होंने बार-बार कहा- आप इन सबकी कॉपी मत कीजिएगा क्योंकि मैं ही अपनी चीजों की चोरी करता रहता हूं. लोगों को ( इशारा साहित्य के लोगों की तरफ था) तो ये चीजें काम की लगती नहीं इसलिए मैं ही अपने पुराने लिखे को अब अपने गीतों में, स्क्रिप्ट में इस्तेमाल करता हूं. सच कहूं तो मैं जो आपको सुना रहा हूं न वो कुछ भी नया नहीं है. नया है तो बस ये कि आप सब इसे इतना गौर से, दिल से सुन रहे हैं.

 माहौल कुछ ऐसा बना था कि जिस चीज की जरुरत हो, जो लोग इरशाद के इंतजार में होटल की लॉबी में बैठे इंतजार कर रहे हों, सबों को यहीं ले आओ, बुला लो लेकिन खुद कोई कहीं नहीं जाएगा. रामकुमार सिंह( भोभर फिल्म के निर्माता-निर्देशक) तो इस माहौल में इतने उत्साहित थे कि अगर उनकी बातों पर हमने यकीन कर लिया होता तो मुंबई के लिए फ्लाईट भी होटल के कमरा संख्या 106 में आ लगती. हां इस दौरान दुष्यंत कुमार जरुर हॉस्टल के उस बच्चे की तरह थोड़े कटे-कटे और हल्के घबराए से थे जिसके कमरे में बाकी के वो दोस्त फुल-टू-मस्ती कर रहे हों लेकिन उसे सुबह उठकर ही परीक्षा देने जाना हो. दुष्यंत को अगली ही सुबह हिन्दू कॉलेज में स्वरचित कहानी पाठ के लिए जाना था. बहरहाल

इरशाद अपनी पूरी बातचीत में साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएं भेजने और अस्वीकृत कर दिए जाने के प्रसंग को कुछ ज्यादा ही गंभीरता और गाढ़ेपन के साथ याद कर रहे थे. खासकर ज्ञानरंजन की वो चिठ्ठियां जिसमे उनके न छापने का जिक्र किया होता. रहा नहीं गया और तब मैंने पूछ ही लिया- आपको पहल में न छपना इतना परेशान करता है, वो भी तब जबकि न जाने कितने लोग आपकी कलम के दीवाने हैं, आपसे एक मुलाकात को लॉटरी समझते हैं और दिनर थै-थै करके घूमते फिरते हैं. क्या फर्क पड़ता है पहल में न छपने से ? सच कहूं तो असल में पहल में छपना मेरी जिद है, कुछ-कुछ उसी तरह की जिद जैसे क्लास की बाकी लड़कियां तो मुझे पसंद करती हैं लेकिन वो नहीं करती जिसे कि मैं करता हूं. वो चीज बड़े होने के बावजूद आपके भीतर तक अटकी रहती है लेकिन कई बार लगता है मेरी इस जिद से कहीं ज्यादा मुझे न छापने की ज्ञानरंजन की ज्यादा बड़ी जिद है. लेकिन मैं अब भी समय निकालकर उन्हें अपनी रचनाएं भेजता हूं और मुझे लगता है कि एक न एक दिन ऐसा तो आएगा ही जहां मेरी इस जिद के आगे उनकी जिद मान जाएगी. मेरी पत्नी ये सब देखती रहती है और उसने समझ लिया है कि पहल में न छपने को मैं किस तरह से लेता हूं. तभी तो मैंने आपको पहले कहा न कि वो मुझे इन्हीं अस्वीकृत रचनाओं को दिखाकर मुझे बताती रहती है कि मैं क्या हूं  ?

ये कहां मिलेगा कि मैं एक के बाद एक अपनी कविताएं सुनाता जा रहा हूं और आप सुनते जा रहे हैं. यहां तो आलम है कि पिछले दिनों जब मेरी किताब समकालीन हिन्दी कविताः समय और समाज आयी तो अशोक वाजपेयी ने कहा कि अब सिनेमा के लोग भी कविता पर किताब लिखने लगे हैं. लेकिन साहब, सच बात तो ये है कि मैं सिनेमा और साहित्य के बीच पुल बनने आया हूं. मैं सिनेमा में इसलिए गया कि मैं उसमे साहित्य को बचा सकूं-

मैं वो हूं जिसके खून में, खुद्दारी और जिद बहे / मेरे साथ चल मेरी शर्त पर, चल न सके तो न सही
इस बेखुदी दौर की मैं आखिरी उम्मीद हूं/ ये शर्त एक सच्चाई है, कोई न पढ़े तो न सही.

देर शाम शुरु हुई बातचीत जो कि आगे आधी रात तक चली के दौरान इरशाद ने साहित्य और सिनेमा के अन्तर्संबंधों को लेकर जो कुछ भी कहा और पहली ही मुलाकात के बाद उनके प्रति मेरी जो अतिरिक्त दिलचस्पी पैदा हुई और तब से उन पर लिखे, उनकी कही लगभग हर बातों से गुजरने की कोशिश करने के क्रम में मैंने महसूस किया कि नहीं, इस शख्स के लिए सिनेमा के बहाने साहित्य को शामिल करना या फिर हम जैसे साहित्यिक कक्षाओं के कार्डधारी के बीच सिनेमा को लगभग साइड करके साहित्य पर बात करना कॉमिक रिलीफ का हिस्सा नहीं है बल्कि एक किस्म की धुन है जिसे कक्षाओं में पढ़ाते हुए हम जैसे सिकंस( सिलेबस कंटेंट सप्लायर) एकाधिकार से और इससे छिटककर न्यूजरुम में शिफ्ट हुए लोग लोकोक्ति और मुहावरे की शक्ल में कि साहित्यिक ज्ञान छांटने से यहां नहीं चलेगा, ये चौबीस गुना सात का न्यूज चैनल है जिसे रिक्शेवाले से लेकर कंपनी के सीइओ तक देखते हैं, अपनी भाषा बदलो अक्सर या तो मार देते हैं, पनपने नहीं देते या फिर नजरअंदाज करते जाते हैं. जाहिर है, ये दोनों ही स्थितियां क्रमशः अकादमिक और मीडिया उद्योग की पैदाईश है. एक में जहां अपनी जागीर होने का इत्मिनान है तो दूसरे में अतिरिक्त सतर्कता के नाम पर साहित्यिक समझ को मीडिया के लिए गैरजरुरी और कबाड़ करार देने की नासमझी. इरशाद की बातों और गीतकार के रुप में उनके काम से गुजरने पर इन दोनों से अलग जो स्थिति बनती है वो कम दिलचस्प और उपर के इन दोनों पेशे में लगे लोगों के लिए गौर करने लायक नहीं है.
देखिए, बात बहुत साफ है..मैं साहित्य को सिनेमा के उपर थोपना नहीं चाहता. मैं जानता हूं कि सिनेमा आम आदमी( तब आप का गठन नहीं हुआ था) का माध्यम है. आज से पचास साल पहले का जो सिनेमा है वो उस समय के लोगों के हिसाब से था और आज जो फिल्में बन रही हैं, वो आज के लोगों के हिसाब से है. अब मैं इस दौर में जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहा हूं वो न तो कोई इल्म है और न ही कोई खिचड़ी भाषा है. पहले लोगों की जुबान खालिस उर्दू-हिन्दुस्तानी थी तो सिनेमा में भी वैसा ही था..अब नहीं है, उसमे अंग्रेजी आ गयी है तो हमारे गीतों में भी है और मैं फिर कह रहा हूं कि ये कोई इल्म नहीं, जरुरत है.[1]

 इरशाद भाषा के सवाल पर राज्यसभा टीवी के गुफ्तगू कार्यक्रम में इरफान के सवालों का जो कि खुद भी भाषा बरतने में बेहद गंभीर हैं और आकाशवाणी के एफएम गोल्ड के जमाने से ही अपनी इस खासियत के लिए मशहूर रहे हैं जवाब दे रहे होते हैं. इसी क्रम में इरफान ने जब कुन फाया कुन( रॉकस्टार, 2011) की एक पंक्ति जब कहीं पे कुछ नहीं था, नहीं था. वही था, वही था में भी के प्रयोग को लेकर सवाल करते हैं और एक तरह से व्याकरणिक दोष करार देते हैं. ऐसे में इरशाद का बिल्कुल ही सपाट अंदाज में जवाब होता है - जिन लोगों को ये भी की गड़बड़ी लगती है, माफ कीजिएगा उन्हें ये लाइन समझ में ही नहीं आयी. उसके बाद  जब कहीं पे कुछ भी नहीं भी, नहीं था की व्याख्या करते हैं जिसे कि इरफान आखिर तक सिनेमेटोग्राफी के लिहाज से भी गैरजरुरी बताते हैं. [2]थोड़े वक्त के लिए हम इस भी की बहस में पड़ने के बजाय इस सिरे से सोचें कि इरशाद इसकी व्याख्या के लिए जिन औजारों का इस्तेमाल करते हैं वो क्या है ? इरफान इस तरह की गड़बड़ियों को हो सकता के अंदाज में व्यावसायिकता के दवाब का हिस्सा मान लेने की छूट दे देते जिसे कि आमतौर पर इन्डस्ट्री का आदमी सहजता से स्वीकार कर लेता है लेकिन नहीं, इरशाद अपने तर्क में उत्प्रेक्षा, वक्रोक्ति, दृष्टांत अलंकारों की जो परिभाषा और लक्षण हम सब पढ़ते आए हैं, उन खिड़कियों से इसे देखने-समझने की बात करते हैं.

 हिन्दी साहित्य का एक छात्र जो बॉलीबुड के मुकाम पर जा पहुंचा हो( हालांकि वो स्वयं इसे पड़ाव ही मानता है) लेकिन शब्दों की व्याख्या के क्रम में अब भी उन्हीं औजारों, उन्हीं तालिम को पुरजोर तरीके से शामिल करता हो जिसे कि हम साहित्य पढ़ते-पढ़ाते हुए भी मध्यकालीन काव्य के व्याख्याकारों के मतलब की चीज करार देकर चलता कर जाते हैं, इससे सुखद और गर्व करने की चीज क्या हो सकती है ? इरशाद कामिल पर लट्टू होने, अंधभक्त और पक्षधर होने के लिए किसी भी हिन्दी-उर्दू-पंजाबी के साहित्य के छात्र के लिए इतना काफी नहीं है कि वो बॉलीबुड इन्डस्ट्री जो कि अपनी पूरी बिजनेस पैटर्न में बेहद क्रूर है, में घुसकर साहित्य के लिए लड़ रहा है, ठेल-धकेलकर उसके लिए जगह बना रहा है. आपको हैरानी नहीं होती कि भाषा और खासकर हिन्दी के इतने हिमायती तो हम-आप भी नहीं होते जो हिन्दी बचाने के नाम पर ही वित्तकर्म में सक्रिय हैं. ये अलग बात है कि हम ज्यादातर उनके बीच हिन्दी बचाने की कोशिश में हैं जो स्वयं हिन्दी से बचना चाहते हैं. लेकिन इस सपाट पक्षधरता के बीच जो दूसरी स्थिति है वो कहीं ज्यादा संश्लिष्ट और गहरी है जिससे गुजरकर ही हम ये बेहतर समझ पाते हैं कि आखिर इरशाद कामिल जैसे गीतकार को सिनेमा में साहित्य की छौंक क्यों जरुरी लगती है और उस छौंक की सामग्री आती कहां से है ?
कुछ न हुए तो न सही/ कुछ न हुए तो न सही/ कुछ न रहे तो न सही
मेरी सोच ने तेरे हुस्न के सोलह सिंगार कर दिए/ अब मुझसे रूठ के सनम/ तू न सजे तो न सही
ले फूल तुझको कह दिया/ ले चांद भी कह देते हैं/ अब भी तेरी रुठी नजर अगर न हंसे तो न सही
  xxx             xxx               xxx               xxx            xxx           xxx              xxx
 इक पेड हमने प्यार का / कामिल लगाना है जरुर
फल आ गए तो ठीक है/ वो न फले तो न सही.

इम्तियाज की पहली फिल्म सोचा न था( 2005) का ये गाना असल में मेरी एक गजल का हिस्सा है जिसे कि मैं मुशायरे में सुनाया करता था. इक पेड वाली लाइन को हमने सोचा न था में स्टार्ट की लाइन बनायी थी जिसे कि इम्तियाज ने कहा कि इसमे तुम्हारा घटिया सा नाम आ रहा है, इसको हटाओ. तो इसे हम ऐसा करते हैं, इस तरह से कर देते हैं- इक पेड़ हमने प्यार का मिल के लगाया था कभी. इम्तियाज के लिए ये अब ये परफेक्ट था और इसमे फिर भी मेरा नाम का मिल  यानी कामिल आ जा रहा था. इरशाद जब ये संस्मरण हमें सुना रहे होते हैं तो रेडियो मिर्ची पर दिए इंटरव्यू[3] से कहीं ज्यादा शरारती मुस्कराहट कमरे में चारों तरफ फैल जा रही थी.
मुझे हमेशा से ये बात चुभती रही है कि हिन्दी सिनेमा में गीतों पर जो काम हो रहा है, वो उस धारा का काम नहीं है जो साहिर लुधियानवी, मजरुह साहब जैसे लोगों के बीच से विकसित हुई थी. ऐसा नहीं था कि उनके गीतों में कॉमर्स नहीं था लेकिन वो कामर्स होते हुए भी लिटरेचर था, साहित्य था. अब साहिर साहब की ये पंक्तियां देखिए-  ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनियां/ ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनियां/ ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनियां/ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है या फिर मजरुह सुल्तानपुरी साहब की- हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह/ हम हैं मता-ए-कुचा-ओ-बाजार की तरह/ उठती है हर निगाह खरीदार की तरह. असल में हुआ ये कि जब मैं इन्डस्ट्री में आने की सोच रहा था तो देखा कि सिनेमा से साहित्य का नमक निकल गया है. कुछ आड़ी-तिरछी तुकबंदी कर ली और हो गया गीत. ये इन्डस्ट्री की बदकिस्मती है कि सबके सब डायरेक्टर म्यूजिकल नहीं है, प्रोड्यूसर को संगीत की अच्छी समझ नहीं है और ये जो गाना पास करने वाली बात है न......[4] इरशाद को जो शिकायत सिनेमा में संगीत और साहित्य की समझ को लेकर रही है, गौर करें तो वो शिकायत मुख्यधारा मीडिया से अलग नहीं है. जिस पर तुर्रा ये कि बड़ी आसानी से पल्ला झाड़ लिया जाता है कि जैसा और जो लोग देखना चाहते हैं, हम वही दिखा-सुना रहे हैं. यानी मीडिया व्यवसाय का वाणिज्य-व्याकरण जिसे सही करार दे रहा है, उसे छोड़कर व्याकरण और संवेदना और रचनात्मकता के दवाब को भला कैसे महसूस किया जा सकता है ? एफ एम चैनलों की भाषा के संदर्भ में हम भाषा निवेश का मामला है, लगातार टिप्पणी करते आए हैं. न्यूज मीडिया बिजनेस में तो सरोकार फिर भी वक्त-वेवक्त थोड़ी दूर ही सही, पीछा करने लग जाता है लेकिन व्यावसायिक सिनेमा के गीत तो कई बार छुट्टा-सांड की तरह आइटम सांग और समय की मांग के नाम पर कूलट्रैक बनकर कानों और डांस फ्लोर पर कब्जा जमा लेते हैं. ऐसे में इरशाद के फिल्मी गीतों में साहित्य की मांग और ज्यादा नहीं तो नमक के माफिक घोलने की कोशिश कम मुश्किल काम नहीं है. भाषा- व्याकरण के बूते वाणिज्य-व्याकरण से टकराना वैसे भी कोई हंसी-खेल है क्या ?

लेकिन अच्छी बात है कि इरशाद के पास इस बात की खूबसूरत इल्म है कि व्यावसायिकता की अटारी पर चढ़कर, उनकी शर्तों को ध्यान में रखते हुए साहित्यिक तर्क के साथ कैसे जिया जाए, रचा जाए. उनके ही शब्दों में- काम तो सभी कर रहे हैं लेकिन काम को आगे कितना ले जा रहा है,चल तो सभी रहे हैं, कोई सीधी सड़क पर तो कोई कोल्हू के बैल की तरह, असल बात तो यही है. अपने काम को लेकर उनका कहा अक्सर ध्यान आता है- मैं जब गीतों पर काम कर रहा होता हूं, जाहिर है किसी न किसी प्रोड्यूसर-डायरेक्टर के लिए तो कई बार साथ बच्चे होते हैं और मैं उन्हें बस इतना कहता हूं- मैं भी अपना होमवर्क कर रहा हूं. साहब, ये जो मेरा आप काम देख रहे हैं न, उनमे से नब्बे फीसद हिस्सा वही होमवर्क है लेकिन जो दस फीसद बचा है, उसी के लिए ये होमवर्क करता रहता हूं. जिस दिन ये अनुपात उलट जाए न तो ये इरशाद कामिल धरती की गति बदलकर रख देगा. आप जिसे कामयाबी कहते हैं, वो दरअसल एक पड़ाव है क्योंकि लिखने की ललक कभी खत्म नहीं होती और आगे चलता चला जाता हूं..ये लिखना ही सबकुछ है, आप इसे मन हो तो कामयाबी कह लीजिए, शोहरत. लेकिन मेरे लिए तो बस लिखने की चाहत है जिसके लिए इरशाद कामिल आपके बीच है.
हिन्दी के किसी अकादमिक बल्कि कहिए कि परीक्षोपयोगी सवाल की तरह प्रतिपादित न भी करें कि इरशाद कामिल मूलतः कवि हैं या फिर सिनेमा उद्योग के गीतकार( हालांकि इरशाद खुद को पहले कवि और तब गीतकार मानते हैं.[5] संदेश शांडिल्या( चमेली 2003, और तब इम्तियाज अली की पहली फिल्म सोचा न था( 2005)  के संगीत पर काम कर रहे थे, इम्तियाज अली से उनका परिचय बतौर एक कवि करवाया, न कि एक गीतकार के रुप में. कारवां के लिए अक्षय मनबानी से हुई बातचीत में शांडिल्या ने यहां तक कहा कि- इस सिनेमा इन्डस्ट्री को एक शायर, एक कवि मिल गया) तो भी उनसे हुई अनौपचारिक बातचीत और विभिन्न माध्यमों के लिए दिए इंटरव्यू से गुजरते हुए स्पष्ट है कि ये शख्स अपने को पहले साहित्यकार, कवि कहलाना पंसद करता है. न केवल पसंद करता है बल्कि भीतर की बेचैनी, छटपटाहट है कि साहित्य के लोग उन्हें बतौर इस रुप में स्वीकार करें. लंबे समय से पहल और ज्ञानरंजन को लेकर आशिक की जिद इसी नतीजे के रुप में नजर आती है और यहीं से एक सवाल जिस पर कि गंभीरता से बात होनी चाहिए कि क्या जो लोग घोषित तौर पर बल्कि विधि-विधान( साहित्यिक पत्रिकाओं या हिन्दी विभाग से जुड़कर) से लेखन कर रहे हैं, साहित्यकार होने का सुख हासिल कर सकते हैं और बाकी के लोग, बाहरी लोग हैं ? ये बहस सिर्फ इरशाद कामिल जैसे किसी एक शख्सियत तक सीमित नहीं है बल्कि इसका एक सिरा पॉपुलर बनाम अभिजात्य की उस बहस में दोबारा जाकर खुलती है जहां लोकप्रियता, उद्योग के बीच( सिनेमा और मीडिया) की व्यावसायिक रचनात्मकता खारिज न किए जाने के बावजूद भी हाशिए पर धकेल दी जाती है. ये

कितना हास्यास्पद है कि साहित्य की कक्षाओं में हमारे जैसे हजारों सिकंस( सिलेबस कंटेंट सप्लायर) साहित्य के बीच हमेशा एक ऐसी चौड़ी सड़क तैयार करने की कोशिश करते हैं जो धक्का-मुक्की करके, चाहे किसी भी तरह मीडिया, सिनेमा और रोजगारोन्मुख दूसरे क्षेत्र की तरफ खुल जाए और ऐसा करने के लिए हम मजबूर भी हैं क्योंकि पाठ्यक्रम निर्माताओं ने यह मान लिया है कि हिन्दी और साहित्य तभी बचेगा जबकि बाजार की चकाचौंध के बीच इसकी आंखें चुंधिआने के बजाए आसानी से एडजेस्ट कर जाए..ऐसा करते-करते हम कितनी हिन्दी, कितना साहित्य और कितना शब्दों में अन्तर्निहित विचारों को बचा पाते हैं, ठीक-ठीक मालूम नहीं लेकिन एक शख्स जो खुलेआम शब्दों और विचारों को लेकर बैलेंस शीट पर दौड़ लगाते हुए भी यह कहता कि अगर आप शब्दों के जरिए विचारों तक पहुंचते हैं तो वो कामर्स है और अगर विचारों के जरिए शब्दों तक पहुंचते हैं तो कला और साहब मेरे लिए इस अर्थ में गीत भी कला है, साहित्य है. रॉकस्टार में मैंने गीत के नाम पर जो कुछ भी किया, वो साहित्य है..तो हिन्दी का लोकवृत्त और उनके पुरोधा सिनेमावाला की स्टीगर चिपकाने से बाज नहीं आते. हम परीक्षाओं में अक्सर झक्क मारकर किसी सिनेमा शो के लिए, रेडियो के लिए छात्रों को स्क्रिप्ट लिखते देखते हैं जिनके परिचय पत्र पर आनर्स इन हिन्दी टंकित है, ऐसे में इरशाद कामिल के तर्क और उनका काम ध्यान आता है और लगता है कि उनके इस दावे और यकीन को सही संदर्भ में विस्तार देने की जरुरत है.

कोई दुराव-छुपाव नहीं. जो शख्स विज्ञान की पढ़ाई से बचने के लिए दो दिन कहकर महीनों शिमला में इसलिए जाकर अटक जाता है कि उसे वहां साहित्यिक और नाटकीय गतिविधियों में जाने का मौका मिलता है और इसी शर्त पर मालेरकोटला( पंजाब) वापस आता है कि उसे साहित्य में स्नातक और परास्नातक करने की इजाजत मिल जाएगी, वही पीएचडी/ डॉक्टरेट के वक्त अपने सुपरवाइजर के सामने बिल्कुल सादे ढंग से आग्रह करता है- मुझे  अपनी पीएचडी बिना ज्यादा हील-हुज्जत के जल्दी से जल्दी खत्म करनी है. सिर्फ इसलिए कि मुझे लाइफ में बड़े-बड़े काम करने हैं, ये पीएचडी मैं टीचर-वीचर बनने के लिए नहीं कर रहा हूं......मेरे पास माल ही कुछ और है.[6]

 जब तक रचनात्मकता की पुख्ता जमीन तैयार नहीं हो जाती या फिर करिअर में कम से कम उतना हासिल नहीं हो जाता कि बुरे से बुरे वक्त चाहे कश्मीरी गेट के रिफ्यूजी और बौद्ध कैंप में गुजराने न पड़ जाएं, डिग्रीधारी हो जाने में ही भलाई है. इस बुनियादी समझ के साथ ही इरशाद ने दि ट्रिब्यून और जनसत्ता की नौकरी भी की और उसी से बचाए पैसे से दिल्ली का ये सफर भी जो कि जाहिर है तकलीफदेह होते हुए भी अन्नू कपूर के सुहाना सफर( बिग 92.7 एफ एम) का कभी भी हिस्सा बन सकता है..ये एक अजीब किस्म का अन्तर्विरोध लग सकता है कि अकादमिक स्तर पर साहित्य को जिस लगाव से पढ़ना शुरु किया, उसे पीएचडी तक आते-आते औपचारिकता में निबटा देने का अंदाज समझ की किस दिशा की ओर ले जाता है ? लेकिन अकादमिक दुनिया के भीतर साहित्यिक शुष्कता को महसूस करें और आखिर तक आते-आते यानी डॉक्टरेट तक जिस कर्मकांड का हिस्सा बनता नजर आता है, तब लगता है कि इरशाद कामिल अपने वक्त की पेंदी में छिपी बिडंबना को कितनी तल्खी से पहचान पा रहे थे. और फिर साहित्य और कविता को लेकर जो तरलता है, जो व्यावसायिक रचनात्मकता की जमीन पर आकर भी अपनी तासीर बचाए रखता है, उसके लिए कितना तर्कसंगत फैसला है.
इरशाद कामिल और उनके काम पर लिखने का सबसे बेहतर और लोकप्रिय तरीका एक तो ये हो सकता है कि उन्होंने हमसे और बाकी दूसरे साक्षात्कार में जो बातें कही है, उनकी गद्य शक्ल देते हुए, बीच-बीच में सोचा न था, चमेली, रॉकस्टार, अजब प्रेम की गजब कहानी, जब बी मेट, रांझणा और फटा पोस्टर निकाला हीरो जैसी फिल्मों के गीतों की चार पंक्तियां शामिल करते हुए विश्लेषण कर दिए जाएं. ये शैली और कौशल हमे हिन्दी साहित्य की कक्षाओं में आज से बारह-चौदह साल बल्कि उससे भी पहले मिला है. ये बेहद ही परिचित और लगभग अनिवार्य शैली है और इधर किसी गीतकार पर लिखी चीजें पॉपुलिस्ट राइटिंग का हिस्सा बने, इससे पहले ही अकादमिक टच मिल जाएगी. थोड़ी कोशिश करें तो उनके तमाम गीतों का संदर्भ भी मिल जाएगा और इसमे खुद इरशाद भी हमारी मदद करते नजर आते हैं- तुमसे ही दिन होता है/सुरमई शाम आती है/हर घड़ी सांस भरती है/जिंदगी कहलाती है/ तुमसे ही ( जब बी मेट 2007) को लेकर इरशाद का निजी अनुभव है कि जब एयरपोर्ट पर उन्हें एक साध्वी से मुलाकात होती है और पता चलता है कि इन्होंने ही ये गीत लिखी है तो वो बताती हैं कि इस गीत वो रोज सुबह प्रार्थना में गाती हैं. उपर की तरफ हाथ उठाते हुए इरशाद बताते हैं कि वो इस गीत को उस ईश्वर से जोड़कर देखतीं हैं जिसके लिए भक्तिकाव्य धारा से लेकर अभी भी न जाने कितने गीत,शब्द और
अभिव्यक्ति है. उनके लिए इस गीत में कहीं भी आदित्य( शाहिद कपूर) और गीत( करीना कपूर) का रोमांस नहीं है.

हिन्दी सिनेमा के गीतों के मौजूदा चलन पर गौर करें तो एक के बाद एक लगातार ऐसे गाने न केवल फिल्म रिलीज होने के दर्जनों दिन पहले से वाया टेलीविजन हमारी ड्राइंगरुम में, एफएम रेडियो के जरिए पब्लिक स्फीयर में पसर जाते हैं बल्कि एक स्वतंत्र परिवेश निर्मित करते हैं. जितनी कोफ्त आपको सिनेमा की कहानी से गुजरने के बाद जिस सिचुएशन पर ये गाने फिल्माए जाते हैं से होती है, उससे कहीं ज्यादा उस परिवेश से कि लोहड़ी, होली का  मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, कटका ले सइंया अल्कोहल से”,  लक ट्वंटी वेट कुडी दा, फोर्टी सेवन वेट कुडी दा या फिर लुंगी डांस जैसे गानों से क्या रिश्ता बनता है ? ऐसे में आप न केवल सिनेमा की पटकथा के साथ गीतों के संदर्भ को लेकर सोचते हैं बल्कि जीवन परिवेश को भी शामिल करके विचार करते हैं. इरशाद कामिल के गीत इनके लिए भी संदर्भ पैदा करते हैं. इरशाद के गीतों की सबसे बड़ी ताकत भी यही है कि वो हमारे जीवन के बीच के संदर्भों को ढूंढ लाते हैं. उनकी यही बात उन्हें सिनेमा की दुनिया का थॉटफुल राइटर[7] बनाता है. यानी जितना गीतों का सिनेमा में संदर्भ है, उतना ही जीवन में और शायद यही कारण है कि सड्डा हत्थ, एत्थे रक्ख( रॉकस्टार, 2011) को लेकर वो ये कह पाते हैं कि इसमे मेरा हक, मेरी मांग भी शामिल है और ये मांग जाहिर है सिनेमा और उनके गीतों में साहित्य की मौजूदगी है.

ऐसे में प्रगतिवादी काव्यधारा और प्रगतिशील काव्य का विश्लेषण करने में अभ्यस्त रहे( जाहिर है परीक्षोपयोगी और अब छात्रोपयोगी) हम जैसे सिंकस की आंखें चमक जाती है कि जो बातें हमने शमशेर के लिए, जो व्याख्या हमने नागार्जुन की कविताओं के लिए करते आए बल्कि पहले से किए गए को आगे बूफे सिस्टम की प्लेट की तरह आगे पास करते आए हैं कि कवि ने जीवन में रोटी की मांग की तरह ही कविता और भाषा की मांग की है या फिर इनकी कविता में भाषा का देशज रुप उसी तरह से शामिल है जिस तरह से लोटे की पेंदी में गांव की मिट्टी चिपकी होती है तो इससे इरशाद को सही-सही श्रद्धावश सम्मान देने की जमीन तैयार होती नजर आती है. इरशाद जब ये कहते हैं कि उन्होंने अपने गीतों की भाषा मालेरकोटला के रंगरेज, कुली, चाय बेचनेवाले,रिक्शे-ठेलेवाले के बीच से लाकर इस्तेमाल किया है तो बहुत संभव है कि अकथ कहानी प्रेम की शक्ल में कबीर की छाया खोजने लग जाएं और उनकी ही परंपरा का विकास स्थापित करने में सहूलियत हो. यह सब जानते हुए कि मध्यवर्ग/निम्न मध्यवर्ग  से आए किसी भी साहित्य और मीडिया के छात्र के लिए इस समाज से गुजरना एक्सक्लूसिव नहीं है. लेकिन

इन सबके बीच आप उस व्यावसायिकता के दवाब का क्या करेंगे, खुद इरशाद कामिल की उस स्वीकारोक्ति का क्या करेंगे जिसे वो बेहद ही सहज अंदाज में स्वीकार करते हैं कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वो मेरे रोज का होमवर्क है. उस नोट करने की मनाही का क्या करेंगे जब वो हमें कहते हैं कि मैं आपके सामने कुछ भी नया नहीं कह रहा हूं बल्कि पहले से वो कहीं न कहीं मौजूद है. मैं तो बस अपने ही पुराने लिखे की चोरी कर रहा हूं. यानी साहित्यिक मिजाज और रुझान से लिखी चीजों का व्यावसायिक धरातल पर उपयोग और ऐसा करते हुए उनका पहले का लिखा संदर्भ-कोश बनता नजर आता है, उसका भी. मेरे ख्याल से इरशाद सहित बाकी के लोगों का लिखा साहित्य इसी संदर्भ-कोश के बनने की प्रक्रिया के प्रति नए सिरे से समझ पैदा करने की मांग करता है[8] जहां देशभर में खोमचे की शक्ल में क्रिएटिव और मीडिया राइटिंग के नाम पर दूकान चलाने से लेकर शॉपिंग मॉल जैसी दैत्याकार बिल्डिंगों में संस्थान चलानेवाले लोग समझ नहीं पा रहे हैं और पूरी ताकत से अपने छात्र-ग्राहकों को नहीं समझने देने के लिए रोक रहे हैं. दूसरी तरफ हम जैसे सिकंस जिनके पास साहित्य के उन्नयन के लिए बाकायदा परमिट और चालान मिली हुई है, दम ठोककर साहित्य के साथ सेवा जोड़ देते हैं लेकिन ये समझाने में नाकाम रहे हैं कि साहित्य की कक्षाओं में व्यावहारिक और रोजगारोन्मुख कौशल की जो सड़क बनाने की कोशिश करते हैं, उसमे दरअसल अभिव्यक्ति की सहजता गायब है, खुद को व्यक्त करने की छटपटाहट नहीं है. व्यावसायिक स्तर की सफलता भी कहीं न कहीं फार्मूला लेखन और मशीनी पाठ से कहीं ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने भीतर की स्वाभाविकता के साथ कैसा सलूक करते हैं..

 महिपालपुर के होटल के उस कमरे में इरशाद सहित मेरे बाकी दोस्तों के गिलास का रंग बदलने लगा था. लेकिन शागिर्दी और गुफ्तगू का नशा कितना गहरा होता है और उनके आगे रंग-बिरंगे पानी से भरे गिलास कितने निरीह जान पड़ते हैं, इसे साफ महसूस कर पा रहा था. इरशाद छूटना नहीं चाह रहे थे और हम थे कि छोड़ना नहीं चाह रहे थे. अविनाश की पीपर- सॉल्ट( काली मिर्च-नमक) टिप्पणी जारी थी- इरशाद भाई, आप अपने बारे में इतना कुछ मत बताइए, ये ब्लॉगर-पत्रकार सब हैं, लिख देंगे सब जाकर इन्टरनेट पर..लेकिन इरशाद इस बात से लापरवाह दोहराते जा रहे थे-
उठे हुए निगाह से भला क्या जान सकोगे/ इबारत है जिंदगी, हम अखबार नहीं हैं.   


संदर्भ एवं टिप्पणी

[1] गुफ्तगूः इरशाद कामिल, राज्यसभा टीवी, यूट्यूब वीडियो अपलोडेड, 27 जनवरी 2012
[2] वही
[3] शेयर सम ऑफ योर एक्सपीरिएंसेंज फ्रॉम योर फर्स्ट मूवी के सवाल पर इरशाद कामिल का जवाब. रेडियो मिर्ची 98.3 एफ एम. यूट्यूब वीडियो अपलोडेड, 25 अक्टूबर 2011
[4]  गुफ्तगूः इरशाद कामिल, राज्यसभा टीवी, यूट्यूब वीडियो अपलोडेड, 27 जनवरी 2012

[5]  इरशाद कामिल है क्या, ये मैं सबको बताना चाहता हूं. वो गीतकार तो है ही लेकिन एक कवि है, शायर है और एक इरशाद कामिल वो है जो बहुत रिवेलियन नेचर का है. रेडियो मिर्ची 98.3 एफ एम. यूट्यूब वीडियो अपलोडेड, 25 अक्टूबर 2011

[6] समथिंग टू सिंग अवाउटः अक्षय मनबानी, 1 सितंबर 2013, कारवां, दिल्ली प्रेस
[7] If you listen to the songs you will get to know what time ‘Main kya hoon’ is based in. Who says all these things? It’s the new generation, so it's based in 2009. What we did was work on the language used. Saif plays a Sikh so we have used a Punjabi accent and Punjabi words. Today youngsters use a lot more English so we've used that as well
. ये बात प्लैनेट रेडियो सिटी के लिए सौमिता सेनगुप्ता को दिए इंटरव्यू में इरशाद ने भाषाई प्रयोग को लेकर अपनी रणनीति स्पष्ट करते हुए कही . इंटरव्यू का शीर्षक है- ए थॉटफुल राइटर,
[8] हर शब्द का एक रुह होती है, हर शब्द का एक इतिहास होता है. उस इतिहास को जाने बिना और उस रुह को समझे बिना उसका इस्तेमाल कर लिया जाए तो उस तरह का असर नहीं छोड़ पाता जिस तरह का असर उसे छोड़ना चाहिए. ये इश्क मिजाजी से इश्क हकीकी तक का सफर है. रेडियो मिर्ची 98.3 एफ एम, यूट्यूब अपलोडेड, 25 अक्टूबर 2011
9. When other lyricists just play around with all those mera dil tere liye kind of rhyme and meter, lyricist Irshad Kamil uses Hindi, Urdu and Punjabi words to give a distinct flavour to his songs. Because his songs have worked even when the films didn’t, we think Irshad is the Next Big Thing. नेक्सट बिग थिंगः मीट वर्डस्मिथ इरशाद कामिल. सोमेन मिश्रा, सीएनएन-आइबीएन, 18 जनवरी 2008

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