फिल्‍म समीक्षा : भूतनाथ रिटर्न्‍स

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
 पिछली बार भी 'भूतनाथ' में विवेक शर्मा ने हॉरर से अधिक संवेदना पर जोर दिया था। इस बार 'भूतनाथ रिट‌र्न्स' में नितेश तिवारी एक कदम और आगे बढ़ते हैं। वे भूतनाथ को राजनीतिक चेतना से लैस कर देते हैं। 'भूतनाथ रिट‌र्न्स' सिक्वल नहीं है। पिछली फिल्म और इस फिल्म में एक ही समानता है कि भूतनाथ की भूमिका अमिताभ बच्चन ही निभा रहे हैं।
पिछली बार भूतनाथ लौट कर भूतव‌र्ल्ड चले गए थे। भूतव‌र्ल्ड में भूतनाथ की हंसाई हो गई है, क्योंकि धरती पर वे किसी को डरा नहीं सके थे। उन्हें एक मौका और दिया जा रहा है कि वे धरती पर भूतों का भय पैदा कर लौटें। इस बार भी एक बच्चा उन्हें पहचान लेता है। यहीं से भूतनाथ की नई यात्रा आरंभ होती है। इस बार मिला बच्चा अखरोट मुंबई के धारावी इलाके में अपनी अकेली मां के साथ रहता है। उसके पास घूमते हुए भूतनाथ पृथ्वी पर मौजूद असमानता और असुविधा की सच्चाइयों से अवगत होते हैं। गढ्डे, कचरा, पानी और सड़क की समस्याओं से भूतनाथ का राजनीतिक संस्कार होता है और बात चुनाव लड़ने तक आ जाती है।
'भूतनाथ रिट‌र्न्स' में भूतनाथ सीटिंग एमपी भाउजी के खिलाफ चुनाव में खडे़ होते हैं। भूत के चुनाव लड़ने के रोचक प्रसंग के साथ फिल्म में भारत की चुनावी राजनीति का कुरूप चेहरा सामने आता है। भूत की यह फिल्म हॉरर से निकल कर देश के हॉरीबल सिचुएशन में उलझ जाती है। धरती के कड़वे यथार्थ से भूत का परिचय होता है तो वह उद्विग्न हो उठता है। चुनौती मिलने पर भूत अपनी परालौकिक शक्तियां भी त्याग देता है, लेकिन चुनाव के मैदान से नहीं हटता। जाहिर होता है कि भूत नेताओं से अधिक संवेदनशील है।
'भूतनाथ रिट‌र्न्स' सही मायने में पॉलिटिकल पंच है। चुनाव के इस माहौल में भूतनाथ का संदेश मतदाताओं को 'सच्चे और अच्छे' उम्मीदवारों को चुनने के लिए प्रेरित कर सकता है। आश्चर्य नहीं होगा यदि इस फिल्म के कुछ नारे फिलहाल चल रहे चुनाव प्रचार में इस्तेमाल होने लगें। 'भूतनाथ रिट‌र्न्स' हमारे समय और समाज की विसंगतियों पर रोचक कटाक्ष करती है। फिल्म देखते हुए अपनी ही स्थितियों पर हमें हंसी आती है। दिक्कत तब होती है जब संदेश और साक्ष्य देते-देते लेखक-निर्देशक विचार और विषय की जलेबी बनाने लगते हैं। संयम से काम लिया जाता तो फिल्म सुगठित और अधिक असरदार होती। फिर भी नितेश तिवारी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इस फिल्म को पारंपरिक ढांचे में नहीं रखा है।
अमिताभ बच्चन विविध आयामी अभिनेता हैं। उन्होंने अपनी लोकप्रियता के शिखर पर कुछ गलतियां भले ही की हों। अभी वे उम्र के लिहाज से अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। इस फिल्म में बाल अभिनेता पार्थ भालेराव से संगत बिठाने में उनकी चपलता की सराहना करनी होगी। पार्थ भालेराव स्वाभाविक अभिनेता हैं। इस बाल कलाकार ने अपने चरित्र को सबल तरीके से प्रस्तुत किया है। भाउजी की भूमिका में बोमन ईरानी या तो बोलते या लोटते हैं। संजय मिश्र अपनी छोटी भूमिका से भी बड़ा योगदान करते हैं। सशक्त अभिनेत्री उषा जाधव मां की साधारण भूमिका को नए एक्सप्रेशन से नैचुरल बना देती हैं। फिल्म में शाहरुख खान, रणबीर कपूर और अनुराग कश्यप भी झलक दिखाते हैं।
यो यो हनी सिंह और अमिताभ बच्चन का ट्रैक फिल्म के लिए अनुपयोगी है।
अवधि-155 मिनट
***1/2 साढ़े तीन स्‍आर

Comments

Popular posts from this blog

तो शुरू करें

फिल्म समीक्षा: 3 इडियट

सिनेमालोक : साहित्य से परहेज है हिंदी फिल्मों को