फिल्म समीक्षा : क्वीन
जिंदगी की रसधार में डूबी
-अजय ब्रह्मात्मज
विकास बहल की 'क्वीन' देखते समय एहसास हुआ कि अपने देश में लड़कियां
डकार नहीं लेतीं। बचपन से परिवार और समाज की हिदायतों में पलने की वजह से
उन्हें ख्याल ही नहीं आता कि डकार भी लिया जा सकता है। पेरिस में
विजयलक्ष्मी की डकार पर पर्दे पर चौंकी दिल्ली के राजौरी गार्डन की रानी
उर्फ क्वीन की तरह मैं भी चौंक गया था। मेरी विस्मय अलग था कि मुझे यह
मामूली स्थिति मालूम नहीं थी। 'क्वीन' एक लड़की के तितली बनने की कहानी है।
पंख निकलते ही वह दुनिया से दो-चार होती है। खुद को समझती और फुदकती है।
दिल्ली की पृष्ठभूमि पर आ रही फिल्मों में शादी एक बड़ा जश्न होता है।
इस फिल्म की शुरुआत भी मेंहदी से होती है। चाशनी में डूबी स्वीट रानी की
शादी होने वाली है। ढींगड़ा अंकल का बेटा विजय उससे प्रेम करता है। फ्लैशबैक
में हम देखते हैं कि वह कैसे रानी पर डोरे डालता है। उसे क्वीन नाम देता
है। शादी की रजामंदी के बाद वह लंदन चला जाता है। लंदन से वह शादी के लिए
लौटता है तो उसे अपनी रानी पिछड़ी और साधारण लगती है, जिंस पर कुर्ती पहनने
वाली दिल्ली के मिडिल क्लास की आम लड़की। लंदन प्रवास में वह ग्लोबल मॉडर्न
युवक हो गया है। शादी की नियत तारीख के दो दिन पहले विजय शादी तोड़ देता है।
रानी इस झटके को बर्दाश्त नहीं कर पाती, वह एकांत और उपवास में चली जाती
है। ऐसे पल में उसकी दादी सलाह देती है, वह दुखी न हो। अपने जीवन के
साक्ष्य से वह रानी को वर्तमान और यथार्थ से लड़ने के लिए तैयार करती है। हम
देखते हैं कि भूखी रानी पास में पड़े डब्बे से लड्डू निकाल कर गटक लेती है।
अभी तक मां, पिता, भाई, सहेली और प्रेमी के साथ पली रानी का अगला फैसला
होता है कि वह अकेले ही हनीमून पर जाएगी। उसने पेरिस और एम्सटर्डम जाने का
सोच रखा था। घर वाले भी दिल रखने के लिए उसे जाने की इजाजत दे देते हैं।
रानी राजौरी गार्डन के अपने घर से निकलती है तो फिर निकल ही जाती है।
पहले पेरिस और फिर एम्सटर्डम में उसका सामना जिन व्यक्तियों, स्थितियों और
दिक्कतों से होता है, वे उसका विस्तार करते चले जाते हैं। रुढि़यों और
धारणाओं की मैल उतरती चली जाती है। मन से स्वच्छ होते ही उसका पसमंजर बदल
जाता है। वह सोच, विचार पहनावे और दृष्टिकोण में बदलती जाती है। रानी के
व्यक्तित्व के रूपांतरण को लेखक-निर्देशक ने सहज और स्वाभाविक रखा है।
दिल्ली से गई रानी और दिल्ली लौटी रानी की छवि और बॉडी लैंग्वेज को अलग-बगल
में रखकर देखें तो यह परिवर्तन साफ नजर आएगा।
हिंदी फिल्मों में नायिका प्रधान, नारी स्वतंत्रता और औरतों की
अभिव्यक्ति की फिल्मों में शोषण और दमन की पृष्ठभूमि रहती है। औरतें
बिलखती, चीखती और छाती पीटती रहती है। विकास बहल की 'क्वीन' हिंदी फिल्मों
की नारी प्रधान फिल्मों की किसी परंपरा का पालन नहीं करती। यह रानी के
खुलने और खिलने की कहानी को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में पेश करती है। रानी
चीखती नहीं है, सीखती है। अनजाने में हुआ एक्सपोजर उसे बंधनमुक्त कर देता
है। फिल्म की कथाभूमि हमारे आसपास की है। रानी मध्यवर्गीय परिवारों की आम
लड़की है, जो पंख लगते ही उड़ने को बेताब है। 'क्वीन' हिंदी सिनेमा के पर्दे
पर लड़की की स्वच्छंद उड़ान है। वह किसी वाद, सोच और नारे से प्रभावित नहीं
है।
कंगना रनौत ने रानी के किरदार को बखूबी पेश किया है। अगर चरित्र और
कलाकार के स्वभाव में हल्की सी भी समानता हो तो पर्दे पर किरदार निखर जाता
है। कंगना रनौत की 'फैशन' में यही हुआ था। 'क्वीन' में कंगना ने फिर से
नैसर्गिक प्रतिभा का परिचय दिया है। उन्होंने रानी के कायांतरण के हर चरण
को पूरे प्रभाव से परफॉर्म किया है। उनकी भाव मुद्राएं, संवाद अदायगी और
संवादों के शब्द भी किताबी नहीं हैं। निश्चित ही संवादों में कंगना की निजी
शब्दावली और एक्सप्रेशन हैं। विजयलक्ष्मी की भूमिका में लीजा हेडेन ने
रुढि़मुक्त स्वच्छंद लड़की को फूहड़ और अश्लील नहीं होने दिया है। रानी के
व्यक्तित्व व उसकी तब्दीली में उसकी संजीदा भूमिका है। एम्सटर्डम में मिले
रानी के रूममेट की भूमिकाओं में आए तीनों कलाकारों ने कथ्य के प्रभाव को
बढ़ा दिया है। और राजकुमार राव हमेशा की तरह अपने किरदार के मिजाज में रहते
हैं। वे मिले हुए दृश्यों में रानी पर हावी होने की कोई कोशिश नहीं करते।
इस फिल्म का गीत-संगीत भी उल्लेखनीय है। अमित त्रिवेदी के संगीत और
अन्विता दत्त के गीतों में रानी की आजादी की चपलता है। गीतों का चयन और
फिल्मांकन खूबसूरत है। कहीं भी वह थोपा हुआ नहीं लगता।
'क्वीन' की रानी पर ममता कालिया की ये पंक्तियां सटीक हैं-अपनी मर्जी
आप जिएंगे, जीवन का रसधार पिएंगे, कलश उठाकर ओक लगाकर, नहीं चाहिए हमें
कृपाएं, करछुल-करछुल चम्मच..चम्मच।
अवधि- 146 मिनट
**** चार स्टार
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