कुछ बदला है, कुछ बदलेगा
-अजय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों में महिलाओं की वर्तमान स्थिति के आंकलन के दो अनिवार्य स्तर हो सकते हैं। पर्दे पर दिखती महिला चरित्रों के अध्ययन-विश्लेषण से हम उनकी बदलती-बढती भूमिका को रेखांकित कर सकते हैं। इसके साथ ही हमें यह ध्यान में रखना होगा कि पर्दे के पीछे महिलाओं की सक्रियता में कोई बदलाव आया है क्या? दोनों ही स्थितियों के सम्मिलत निष्कर्ष से हम कोई धारणा बनाएं तो ज्यादा सटीक होगा।
पर्दे के पीछे की स्त्री
पहले हम हिंदी फिल्मों में महिलाओं की स्थिति के दूसरे स्तर यानी पर्दे के पीछे की महिलाओं पर नजर डालें। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भारतीय समाज का ही हिस्सा है। भारतीय समाज के मूल्य कमोबेश फिल्म इंडस्ट्री में भी माने और जाने जाते हैं। भारतीय समाज आजादी के 67 साल बाद भी पुरुष प्रधान है। जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुष काबिज हैं। करियर से समाज तक जारी उनकी प्रभुता से समाज की सोच और दिशा प्रभावित होती है। वह सोच ही महिलाओं की स्थिति में बदलाव या यथास्थिति का कारक होता है। हालांकि भारत कुछ ऐसे देशों में से एक है, जहां लंबे समय तक कोई महिला सत्तासीन रहीं, लेकिन इसके बावजूद मनुस्मृति से प्रेरित पारंपरिक मूल्यों में जकड़े समाज में उल्लेखनीय बदलाव नहीं दिखा। संविधान निर्माताओं ने महिलाओं के संवैधानिक समानता और अधिकार सुनिश्चित किए, लेकिन व्यावहारिकता में महिलाएं घर-परिवार की चौखट नहीं लांघ पाई।
स्त्री प्रधान फिल्में बढ़ीं
स्त्री प्रधान फिल्में बढ़ीं
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की स्थिति में खास तब्दीली नहीं आई है। पिछले दिनों दीपिका पादुकोण अधिकतम फिल्मों की सफलता की वजह से सुर्खियों में रहीं। माना जा रहा है कि दीपिका की फिल्में सफल होती हैं। फिलहाल दर्शक उन्हें पसंद कर रहे हैं। इस सच्चाई के बावजूद वास्तविकता यही है कि दीपिका को प्रति फिल्म पारिश्रमिक किसी भी लोकप्रिय अभिनेता की तुलना में काफी कम मिलता है। अभिनेता और अभिनेत्री के पारिश्रमिक में यह विषमता दशकों से चली आ रही है। कभी कोई अभिनेत्री लगातार सफलता से शीर्ष पर आ जाती है। फिर भी ऐसी अभिनेत्रियों को केंद्र में रखकर निरंतर फिल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी फिल्मों में अभी दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, करीना कपूर, विद्या बालन, अनुष्का शर्मा आदि अभिनेत्रियों का महत्व और प्रभाव पिछली पीढ़ी से बढ़ा है। कुछ अभिनेत्रियां समकालीन लोकप्रिय अभिनेताओं की तरह प्रॉफिट शेयरिंग की शर्तों पर चंद फिल्में कर रही हैं। फिल्मों के निर्माण में उन्हें भी दांव लगाने का मौका दिया जा रहा है। इस सकारात्मक बदलाव का गुणनफल इतना कम है कि बदलाव की स्थिति में गति नजर नहीं आती। अभी तक यह स्थिति नहीं आई है कि अभिनेत्रियों को फिल्म इंडस्ट्री में पहला या अभिनेताओं के समकक्ष दर्जा मिले।
अभिनेताओं का वर्चस्व
अभिनेताओं का वर्चस्व
महिला दिवस के ठीक एक दिन पहले रिलीज होने जा रही ‘गुलाब गैंग’ में माधुरी दीक्षित और जूही चावला आमने-सामने हैं। सौमिक सेन निर्देशित इ फिल्म के निर्माता अनुभव सिन्हा हैं। उन्होंने अपने अनुभव शेयर करते हुए कहा, ‘इस फिल्म की योजना के बाद जब मैं निवेशकों से मिलने लगा तो लगभग सभी का पहला सवाल यही रहता था कि माधुरी और जूही चावला तो ठीक हैं, पर यह बताएं कि फिल्म का हीरो कौन है?बगैर हीरो के हिंदी फिल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती।’ यह नया सवाल नहीं है? दशकों से हिंदी फिल्में अभिनेताओं के नाम और दम पर ही बनती और बेची जाती रही हैं। आज भी हर निर्माता और कॉरपोरेट हाउस फिल्म की योजना बनाते समय सबसे पहले किसी पॉपुलर मेल एक्टर के बारे में सोचता है।
महिला डायरेक्टर्स
महिला डायरेक्टर्स
‘गुलाब गैंग’ में मेन लीड की भूमिका निभा रही माधुरी दीक्षित ने खास बातचीत में एक बदलाव की ओर इशारा किया। वह एक अंतराल के बाद फिर से फिल्मों में सक्रिय हुई हैं। उनके मुताबिक, ‘अभी किसी भी सेट पर लड़कियों की संख्या उल्लेखनीय रहती है। निर्देशन, प्रॉडक्शन, लाइटिंग, मेकअप आदि सभी विभागों में सहायक के तौर पर वे दिखती हैं। मैंने गौर किया कि वे अपना काम पूरी मुस्तैदी, जिम्मेदारी और अधिकार भाव से करती हैं। पहले ऐसा नहीं दिखता था।’ सचमुच फिल्म निर्माण के विभागों तक आ रहा यह बदलाव उल्लेखनीय है। लड़कियां और महिलाएं अभी तक पुरुषों के लिए सुरक्षित(मेकअप, प्रोडक्शन आदि) विभागों में भी आ चुकी हैं। इस बदलाव के बावजूद यह देखने में आता है कि उनकी सक्रियता सहायक से बहुत आगे नहीं बढ़ पाती है। उनहें नेतृत्व नहीं सौंपा जाता। आशावादी सोच यही कहती है कि ना से कुछ हुआ है तो भविष्य में कुछ से सब कुछ होगा।
ले-देकर एक फराह खान सक्रिय और सफल डायरेक्टर हैं। हर साल दो-चार महिला निर्देशक उभरती हैं, पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाती। उनके इस हश्र के अपने कारण होंगे। दूसरे विभागों पर भी गौर करें तो 10-12 से ज्यादा नाम नहीं गिनाए जा सकते। फिल्म निर्माण में महिलाएं नहीं आ पातीं। भट्ट कैंप से निकलने के बाद पूजा भट्ट ने अवश्य अपने हस्ताक्षर छोड़े। देखा जा रहा है कि अभिनय की पारी समाप्त होने या उसके पहले अभिनेत्रियां फिल्म निर्माण में कदम रख रही हैं। असल बदलाव तब नजर आएगा, जब गुनीत मोंगा और अशी दुआ जैसी और महिलाएं फिल्म निर्माण में उतर जाएंगी। बदलाव की रफ्तार धीमी है, लेकिन यथास्थिति बदल रही है। संख्या, मौजूदगी और सक्रियता में महिलाएं मजबूत होंगी तो उसका असर फिल्मों और महिला किरदारों में भी दिखेगा।
महिला किरदारों को पेश करने का एक फॉर्मूला बन चुका है। आठवें दशक के आरंभ से हिंदी फिल्मों में तेजी से परिवर्तन आया। अचानक हीरो सबसे अहम हो गया। हीरोइन सजावट की वस्तु रह गईं। अपवाद स्वरूप हृषिकेष मुखर्जी, गुलजार, बासु भट्टाचार्य और कुछ निर्देशकों की मध्यमार्गी फिल्मों में महिलाओं की सम्मानजनक छवि में दिखती रही। मोटे रूप से हीरो के सर्वव्यापी चित्रण से हीरोइनों की भूमिका दोयम दर्जे की हो गई। उन्ळें सजावट या नाच गाने के लिए ही रखा जाने लगा। पिछली सदी के अंतिम दशक में सूरत बदली भी तो उनकी भूमिका प्रेमिका और हीरो के लव इंट्रेस्ट तक बनी रही। उन्हें भव्य, सुंदर, ग्लैमरस और आधुनिक तो बनाया गया, लेकिन वे फैसले लेते नजर नहीं आईं। हीरो के इशारे या सहारे ही उनकी जिंदगी चलती रही। पैरेलल और आर्ट फिल्मों में जरूर महिलाओं को महत्व दिया गया। सभी निर्देशकों ने महिला चरित्रों को उनके द्वंद्व, संघर्ष और समस्याओं के बीच उन्हें पेश किया और बाज दफा उन्हें विजयी होते भी दिखाया।
बोल्ड स्त्री का चित्रण
ले-देकर एक फराह खान सक्रिय और सफल डायरेक्टर हैं। हर साल दो-चार महिला निर्देशक उभरती हैं, पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाती। उनके इस हश्र के अपने कारण होंगे। दूसरे विभागों पर भी गौर करें तो 10-12 से ज्यादा नाम नहीं गिनाए जा सकते। फिल्म निर्माण में महिलाएं नहीं आ पातीं। भट्ट कैंप से निकलने के बाद पूजा भट्ट ने अवश्य अपने हस्ताक्षर छोड़े। देखा जा रहा है कि अभिनय की पारी समाप्त होने या उसके पहले अभिनेत्रियां फिल्म निर्माण में कदम रख रही हैं। असल बदलाव तब नजर आएगा, जब गुनीत मोंगा और अशी दुआ जैसी और महिलाएं फिल्म निर्माण में उतर जाएंगी। बदलाव की रफ्तार धीमी है, लेकिन यथास्थिति बदल रही है। संख्या, मौजूदगी और सक्रियता में महिलाएं मजबूत होंगी तो उसका असर फिल्मों और महिला किरदारों में भी दिखेगा।
महिला किरदारों को पेश करने का एक फॉर्मूला बन चुका है। आठवें दशक के आरंभ से हिंदी फिल्मों में तेजी से परिवर्तन आया। अचानक हीरो सबसे अहम हो गया। हीरोइन सजावट की वस्तु रह गईं। अपवाद स्वरूप हृषिकेष मुखर्जी, गुलजार, बासु भट्टाचार्य और कुछ निर्देशकों की मध्यमार्गी फिल्मों में महिलाओं की सम्मानजनक छवि में दिखती रही। मोटे रूप से हीरो के सर्वव्यापी चित्रण से हीरोइनों की भूमिका दोयम दर्जे की हो गई। उन्ळें सजावट या नाच गाने के लिए ही रखा जाने लगा। पिछली सदी के अंतिम दशक में सूरत बदली भी तो उनकी भूमिका प्रेमिका और हीरो के लव इंट्रेस्ट तक बनी रही। उन्हें भव्य, सुंदर, ग्लैमरस और आधुनिक तो बनाया गया, लेकिन वे फैसले लेते नजर नहीं आईं। हीरो के इशारे या सहारे ही उनकी जिंदगी चलती रही। पैरेलल और आर्ट फिल्मों में जरूर महिलाओं को महत्व दिया गया। सभी निर्देशकों ने महिला चरित्रों को उनके द्वंद्व, संघर्ष और समस्याओं के बीच उन्हें पेश किया और बाज दफा उन्हें विजयी होते भी दिखाया।
बोल्ड स्त्री का चित्रण
21 वीं सदी में परिदृश्य बदला है। इधर फिर से चर्चा चल रही है कि विद्या बालन की ‘द डर्टी पिक्चर’ और ‘कहानी’ जैसी फिल्मों से महिला के सशक्तीकरण का आभास होने लगा है। निश्चित ही दोनों फिल्मों में विद्या बालन ही प्रमुख चरित्र थीं। उन्होंने दोनों फिल्मों में खुद के अभिनय से प्रभावित किया। फिर भी उन किरदारों पर विचार करें तो पाएंगे कि वे पुरुष समाज और उसकी सोच से आगे नहीं निकल पाती है। ‘द डर्टी पिक्चर’ की नायिका आरंभिक सफलता के बाद शराब के नशे में डूबती है और आखिरकार आत्महत्या कर लेती है। ऐसी आत्महंता चरित्र किसी भी समाज के आदर्श नहीं हो सकते। ‘कहानी’ की नायिका एक स्थान पर बोलती है कि गर्भवती होने का नाटक करने में उसे सबसे अधिक आनंद आया। अकेला यही संवाद उसकी विजय को बट्टा लगा देता है।
बहरहाल, बदलाव तो आ रहा है। इसी साल ‘गुलाब गैंग’, ‘क्वीन’, ‘हाईवे’ और ‘बॉबी जासूस’ जैसी फिल्में आएंगी। इन फिल्मों में नायिकाओं की भूमिका खास है। इन सभी फिल्मों में नायिकाएं केंद्रीय चरित्र हैं। किसी भी फिल्म में स्त्री या पुरुष के महत्व को समझाने का सरल तरीका है कि क्याा फिल्म की कहानी उस चरित्र के फैसले या कृत्य से आगे बढ़ती है? अगर नहीं तो अपनी मौजूदगी और पहचान के बावजूद वह अनुगामी चरित्र ही होगा। इस साल आ रही इन चारों फिल्मों में महिलाएं या नारी चरित्र पर निर्देशकों ने ध्यान दिया है। इन फिल्मों में पुरुष चरित्र भी हैं, लेकिन वे सहायक और गौण भूमिकाओं में हैं।
फिल्मों के जानकार और विशेषज्ञ बताते हैं कि हिंदी फिल्मों में पुरुषों का वर्चस्व बना रहेगा। पूरे समाज में परिवर्तन आने के साथ-साथ फिल्म इंडस्ट्री में भी बदलाव परिलक्षित होगा। बदलाव की धीमी प्रक्रिया से निराश होने की जरूरत नहीं है। समय और परिवर्तन की गति से दूर हट कर देखें तो पाएंगे कि फिल्में, फिल्मों के महिला चरित्र और फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की भूमिका में गुणात्मक बदलाव आ चुका है।
बहरहाल, बदलाव तो आ रहा है। इसी साल ‘गुलाब गैंग’, ‘क्वीन’, ‘हाईवे’ और ‘बॉबी जासूस’ जैसी फिल्में आएंगी। इन फिल्मों में नायिकाओं की भूमिका खास है। इन सभी फिल्मों में नायिकाएं केंद्रीय चरित्र हैं। किसी भी फिल्म में स्त्री या पुरुष के महत्व को समझाने का सरल तरीका है कि क्याा फिल्म की कहानी उस चरित्र के फैसले या कृत्य से आगे बढ़ती है? अगर नहीं तो अपनी मौजूदगी और पहचान के बावजूद वह अनुगामी चरित्र ही होगा। इस साल आ रही इन चारों फिल्मों में महिलाएं या नारी चरित्र पर निर्देशकों ने ध्यान दिया है। इन फिल्मों में पुरुष चरित्र भी हैं, लेकिन वे सहायक और गौण भूमिकाओं में हैं।
फिल्मों के जानकार और विशेषज्ञ बताते हैं कि हिंदी फिल्मों में पुरुषों का वर्चस्व बना रहेगा। पूरे समाज में परिवर्तन आने के साथ-साथ फिल्म इंडस्ट्री में भी बदलाव परिलक्षित होगा। बदलाव की धीमी प्रक्रिया से निराश होने की जरूरत नहीं है। समय और परिवर्तन की गति से दूर हट कर देखें तो पाएंगे कि फिल्में, फिल्मों के महिला चरित्र और फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं की भूमिका में गुणात्मक बदलाव आ चुका है।
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