फिल्‍म समीक्षा : बबलू हैप्‍पी है

-अजय ब्रह्मात्‍मज 
शहरों की दौड़ती-भागती जिंदगी में युवक-युवतियों की बड़ी उलझन और समस्या प्यार, संबंध और समर्पण है। हर संबंध के लिए गहरी समझदारी के साथ परस्पर विश्वास अनिवार्य है। पसंद और आकांक्षाएं भी एक सी हों तो रिश्तों के पनपने के लिए समान भूमि मिल जाती है। यह फिल्म दिल्ली के कुछ युवक-युवतियों के जरिए प्यार और समर्पण तलाशती हुई एक ऐसे मुकाम पर पहुंचती है, जहां सच के आभास से डर पैदा होता है ओर उसके एहसास से प्रेम और विश्वास जगता है।
जतिन और तमन्ना की शादी होने वाली है। शादी से पहले जतिन दोस्तों के साथ पहाड़ों की सैर को निकलता है। तमन्ना को भी एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में पहाड़ों पर जाना है। तय होता है कि दोनों वहां मिलेंगे। तमन्ना तुनकमिजाज और पजेसिव किस्म की युवती है। वह जतिन को कभी कुछ कहने का मौका नहीं देती। हमेशा उलाहने और डांट से ही उनकी मुलकातें खत्म होती हैं? जतिन समर्पित प्रेमी की तहर हमेशा उसकी सुनता रहता है। पहाड़ों के सफर में उसके साथ हैरी और रोहन भी है। उनकी अपनी समस्याएं हैं। यात्रा की रात बैचलर पार्टी में जतिन की मुलाकात नताशा से हो जाती है। उन्हें सुधि नहीं रहती। नशे की हालत वे हमबिस्तर हो जाते हैं। बाद में भी नताशा से मुलाकातें होती हैं। नजदीकियां बढ़ती हैं। इसके साथ ही उसकी दुविधा बढ़ती जाती है। एक रहस्य गाढ़ा होता है। उनकी मौज-मस्ती और मुश्किलों के बीच कहानी बढ़ते-बढ़ते एक ऐसे मोड़ पर पहुंचती है, जहां जतिन स्तब्ध होने के साथ लाचार दिखता है। उसी लाचारी में उसे प्रेम का एहसास होता है।
नीला माधब पांडा और लेखक संजय चौहान ने फिल्म में समाज के एक जरूरी और गंभीर मुद्दे को खूबसूरती से पिरोया है। इंटरवल तक अनुमान नहीं रहता कि पिल्म उद्देश्यपूर्ण मोड़ लेगी। लगता ही नहीं कि साधारण सी लग रही युवा समूह की उलझनों की कहानी में सार्थक पेंच आ जाएगा। नीला माधब पांडा अपने उद्देश्य में सफल होते हैं। इस मकसद तक पहुंचने में उन्होंने नाहक प्रचलित फॉर्मूला का इस्तेमाल किया है। मीका सिंह का आइटम सॉन्ग और बंजारा डांस फिल्म के भाव के लिहाजा से अनावश्यक पैबंद लगते हैं।
फिल्म का गीत-संगीत प्रयोगधर्मी और प्रभावशाली है। गीतकार प्रतीक मजूमदार और संगीतकार बिशाख-कनीश ने मधुर गीत-संगीत संयोजन किया है। कलाकारों में नताशा की भूमिका निभा रही अभिनेत्री एरिका फर्नाडिस अपने किरदार की वजह से याद रह जाती हैं। साहिल आनंद और सुमित सूरी अपनी भूमिकाओं के संग न्याय करते हैं।
'बबलू हैप्पी है' साधारण और सहज रूप एक जरूरी मुद्दे को रोचक तरीके से फिल्म में ले आती है। यही इस फिल्म की खासियत है। इस मकसद और प्रयास के लिए लेखक संजय चौहान और निर्देशक नीला माधब पांडा की सराहना करनी होगी। प्रस्तुति में कुछ कमियों और अनावश्यक चतुराई का आभास होता है। उद्देश्य की वजह से उसे अनदेखा किया जा सकता है।
अवधि-114 मिनट
*** तीन स्‍टार

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